निर्मला (उपन्यास) (भाग 14) - मुंशी प्रेमचंद महीना कटते देर न लगी! विवाह का शुभमुहूर्त आ पहुँचा! मेहमानों से घर भर गया| मुन्शी तोताराम एक दिन पहले ही आ

निर्मला (उपन्यास) - मुंशी प्रेमचंद
भाग 14
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महीना कटते देर न लगी! विवाह का शुभमुहूर्त आ पहुँचा! मेहमानों से घर भर गया| मुन्शी तोताराम एक दिन पहले ही आ गए; और उनके साथ निर्मला की सहेली भी आई| निर्मला ने तो बहुत आग्रह न किया था-वह खुद ही आने को उत्सुक थी| निर्मला को सबसे बड़ी उत्कण्ठा यही थी कि वर के बड़े भाई के दर्शन करूँगी, और हो सका, तो उनकी सुबुद्धि पर धन्यवाद दूँगी!
सुधा ने हँस कर कहा-तुम उनसे बोल सकोगी?
निर्मला-क्यों, बोलने में क्या हानि है| अब तो दूसरा ही सम्बन्ध हो गया| और मैं न बोल सकूँगी, तो तुम तो हो ही!
सुधा-न भाई, मुझसे यह न होगा| मैं पराये मर्द से नहीं बोल सकती| न जाने कैसे आदमी हों?
निर्मला-आदमी तो बुरे नहीं हैं; और फिर तुम्हें उनसे कुछ विवाह तो करना नहीं, जरा सा बोलने में क्या हानि है? डॉक्टर साहब यहाँ होते तो मैं तुन्हें आज्ञा दिला देती!
सुधा-जो लोग हदय के उद्धार होते हैं, क्या चरित्र के भी अच्छे होते हैं? पराई बी को घूरने में तो किसी मर्द को सङ्कोच नहीं होता|
निर्मला-अच्छा न बोलना, मैं ही बातें कर लूंगी, घूर लेंगे जितना उनसे घूरते बनेगा; बस, अब तो राजी हुई|
इतने में कृष्ण आकर बैठ गई| निर्मला ने मुस्करा कर कहा तब बत्ता कृष्णा, तेरा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रहा है?
कृष्णा-जीजा जी बुला रहे हैं, पहले जाकर सुन आओ, पीछे गपे लड़ाना| बहुत बिगड़ रहे हैं|
निर्मला क्या है, तूने कुछ पूछा नहीं?
कृष्णा-कुछ बीमार से मालूम होते हैं| बहुत दुबले हो गए हैं|
निर्मला--तो जरा बैठ कर उनका मन बहला देती, यहाँ दौड़ी क्या चली आई| यह कहो ईश्वर ने कृपा की, नहीं तो ऐसा ही पुरुष तुझे भी मिलता! जरा बैठ कर बातें तो करो| बुड्ढे वाते बड़ी लच्छेदार करते हैं| जबान इतने डीगियल नहीं होते!
कृष्णा नहीं बहिन, तुम जाओ; मुझसे दो वहाँ नहीं बैठा जाता|
निर्मला चली गई, तो सुधा ने कृष्णा से कहा-अब तो बारात आ गई होगी| द्वार-पूजा क्यों नहीं होती?
कृष्णा-क्या जाने वहिन, शास्त्री जी सामान इकट्ठा कर रहे हैं|
सुधा-सुना है, दूल्हा की भावज बड़ी कड़े स्वभाव की स्त्री है|
कृष्णा-कैसे मालूम?
सुधा-मैं ने सुना है, इसलिए चेताए देती हूँ| चार वातें ग़म खाकर रहना होगा|
कृष्णा-मेरी झगड़ने की आदत ही नहीं| जब मेरी तरफ से कोई शिकायत ही न पावेंगी, तो क्या अनायास ही विगड़ेंगी?
सुधा- हाँ, सुना तो ऐसा ही है| झूठमूठ लड़ा करती हैं|
कृष्णा-मैं तो सौ बात की एक बात जानती हूँ-नम्रता पत्थर को भी मोम कर देती है|
सहसा शोर मचा-वारात आ रही है| दोनों रमणियाँ खिड़की के सामने आ बैठी| एक क्षण में निर्मला भी आ पहुंची|
वर के बड़े भाई को देखने की उसे वड़ी उत्सुकता हो रही थी|
सुधा ने कहा- कैसे पता चलेगा कि बड़े भाई कौन हैं?
निर्मला-शास्त्री जी से पूछ तो मालूम हो| हाथी पर तो कृष्णा के ससुर महाशय हैं| अच्छा, डॉक्टर साहब यहाँ कैसे आ पहुँचे| वह घोड़े पर क्या हैं, देखती नहीं हो?
सुधा-हाँ, हैं तो वही|
निर्मला-उन लोगों से मित्रता होगी| कोई सम्बन्ध तो नहीं है? .
सुधा-अव भेंट हो, तो पूछ| मुझे तो कुछ नहीं मालूम|
निर्मला-पालकी में जो महाशय बैठे हुए हैं, वह तो दूल्हा के भाई जैसे नहीं दीखते|
सुधा-बिलकुल नहीं, मालूम होता है, सारी देह में पेट ही पेट है|
निर्मला-दूसरे हाथी पर कौन बैठा हुआ है, समझ में नहीं आता|
सुधा-कोई हो, दूल्हा का भाई नहीं हो सकता| उसकी उम्र नहीं देखती हो-चालीस के ऊपर होगी|
निर्मला-शास्त्री जी तो इस वक्त द्वार-पूजा की फिक्र में हैं, नहीं तो उनसे पूछती|
संयोग से नाई आ गया| सन्दूकों की कुञ्जियाँ निर्मला ही के पास थीं| इस वक्त द्वार-चार के लिए कुछ रुपए की जरूरत थी, माता ने भेजा था| यह नाई भी पण्डित मोटेराम जी के साथ तिलक लेकर गया था| निर्मला ने कहा-क्या अभी रुपए चाहिए?
नाई-हाँ वहिन जी, चल कर दे दीजिए|
निर्मला-अच्छा चलती हूँ| पहले यह वता, तू दूल्हा के बड़े भाई को पहचानता है?
नाई-पहचानता काहे नहीं, वह क्या सामने हैं|
निर्मला-कहाँ, मैं तो नहीं देखती?
नाई-अरे, वह क्या घोड़े पर सवार हैं? वही तो हैं|
निर्मला ने चकित होकर कहा-क्या कहता है, घोड़े पर दूल्हा के भाई हैं! पहचानता है या अटकल से कह रहा है?
नाई-अरे वहिन जी, क्या इतना भूल जाऊँगा? अभी तो जल-पान का सामान दिए चला आता हूँ|
निर्मला-अरे, यह तो डॉक्टर साहब हैं, मेरे पड़ोस में रहते हैं|
नाई-हाँ हाँ, वही तो डॉक्टर साहब हैं|
निर्मला ने सुधा की ओर देख कर कहा-सुनती हो बहिन इसकी बातें?
सुधा ने हँसी रोक कर कहा-झूठ बोलता है|
नाई-अच्छा साहब, झूठ ही सही; अब बड़ों के मुँह कौन लगे| अभी शास्त्री जी से पुछवा दूंगा, तब तो मानिएगा?
नाई के आने में देर हुई, तो मोटेराम ख़ुद आँगन में आकर शोर मचाने लगे-इस घर की मर्याद रखना ईश्वर ही के हाथ है| नाई घण्टे भर से आया हुआ है, और अभी तक रुपए नहीं मिले|
निर्मला-जरा यहाँ चले आइएगा; शास्त्री जी? कितने रुपए दरकार हैं, निकाल दूँ?
शास्त्री जी भुनभुनाते और ज़ोर-ज़ोर से हाँफते हुए ऊपर आए; और एक लम्बी साँस लेकर बोले-क्या है? यह बातों का समय नहीं है| जल्दी से रुपए निकाल दो|
निर्मला-लीजिए, निकाल तो रही हूँ| अब क्या मुँह के, वल गिर पड़ें| पहले यह बताइए कि दूल्हा के बड़े भाई कौन हैं|
शास्त्री जी-राम-राम, इतनी सी बात के लिए मुझे आकाश पर लटका दिया| नाई क्या न पहचानता था?
निर्मला-नाई तो कहता है कि वह जो घोड़े पर सवार हैं, वही है|
शास्त्री जी-तो फिर और किसे बता दे? वही तो हैं ही|
नाई-घड़ी भर से कह रहा हूँ; पर बहिन जी मानती ही नहीं| निर्मला ने सुधा की ओर स्नेह, ममता, विनोद और कृत्रिम तिरस्कार की दृष्टि से देख कर कहा-अच्छा, तो तुम्ही अब तक मेरे साथ यह त्रिया-चरित्र-खेल रही थीं| मैं जानती तो तुम्हें यहाँ बुलाती ही नहीं| ओफ्कोह! बड़ा गहरा पेट है तुम्हारा!! तुम महीनों से मेरे साथ यह शरारत करती चली आती हो; और कभी भूल से भी इस विषय का एक शब्द तुम्हारे मुँह से नहीं निकला | मैं तो दो-चार ही दिन में उबल पड़ती|
सुधा-तुम्हें मालूम हो जाता, तो तुम मेरे यहाँ आती ही क्यों? '
निर्मला-गज़ब रे गज़ब, मैं डॉक्टर साहब से कई बार बातें कर चुकी हूँ| तुम्हारे ऊपर यह सारा पाप पड़ेगा| देखी कृष्णा तूने अपनी जेठानी की शरारत? यह ऐसी मायाविनी हैं, इनसे डरती रहना!
कृष्णा-मैं तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर माथे चढ़ाऊँगी| धन्य भाग कि उनके दर्शन हुए?
निर्मला-अब समझ गई| रुपए भी तुम्हीं ने भेजवाए होंगे| अब सिर हिलाया तो सच कहती हूँ, मार बैठूँगी|
सुधा-अपने घर बुला कर मेहमान का अपमान नहीं किया जाता|
निर्मला-देखो तो अभी कैसी-कैसी खबरें लेती हूँ| मैंने तुम्हारा मान रखने को ज़रा सा लिख दिया था; और तुम सचमुच आ पहुँची| भला वहाँ वाले क्या कहते होंगे?
सुधा-सब से कह कर आई हूँ|
निर्मला-अब तुम्हारे पास कभी न आऊँगी| इतना तो इशारा कर देती कि डॉक्टर साहब से परदा रखना|
सुधा-उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई| न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़ कर कैसी चीज़ खोदी! अब तो तुम्हें देख कर लाला जी हाथ मल कर रह जाते हैं| मुँह से तो कुछ नहीं कहते; पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं|
निर्मला-अब तुम्हारे घर कभी न जाऊँगी|
सुधा-अब पिण्ड नहीं छूट सकता| मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नहीं देखी है|
द्वार-पूजा समाप्त हो चुकी थी| मेहमान लोग बैठे जल-पान कर रहे थे| मुन्शी तोताराम की बग़ल में ही डॉक्टर सिन्हा बैठे हुए थे| निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें बैठे देखा और कलेजा थाम कर रह गई| एक आरोग्य, यौवन और प्रतिभा का देवता था, दूसरा......इस विषय में कुछ न कहना ही उचित है|
निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों ही बार देखा था; पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे| बार-बार यही जी चाहता था कि बुला कर खूब फटकारूँ, ऐसे-ऐसे ताने मारूँ कि वह भी याद करें, रुला-रुला कर छोडूँ मगर सहम करके रह जाती थी| बारात जनवासे चली गई थी| भोजन की तैयारी हो रही थी| निर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी, सहसा महरी ने आकर कहा-बिट्टी, तुम्हें सुधा रानी बुला रही हैं| तुम्हारे कमरे में बैठी हैं|
निर्मला ने थाल छोड़ दिए और घबराई हुई सुधा के पास आई, मगर अन्दर कदम रखते ही ठिठक गई-डॉक्टर सिन्हा खड़े थे|
सुधा ने मुस्करा कर कहा-लो बहिन, बुला दिया| अब जितना चाहो, फटकारो| मैं दरवाजा रोके खड़ी हूँ, भाग नहीं सकते|
डॉक्टर साहब ने गम्भीर भाव से कहा-भागता कौन है यहाँ तो सिर झुकाए खड़ा हूँ|
निर्मला ने हाथ जोड़ कर कहा-इसी तरह सदा कृपा-दृष्टि रखिएगा, भूल न जाइएगा! यही मेरी विनय है!!
सुधा ने हँस कर कहा-तुम उनसे बोल सकोगी?
निर्मला-क्यों, बोलने में क्या हानि है| अब तो दूसरा ही सम्बन्ध हो गया| और मैं न बोल सकूँगी, तो तुम तो हो ही!
सुधा-न भाई, मुझसे यह न होगा| मैं पराये मर्द से नहीं बोल सकती| न जाने कैसे आदमी हों?
निर्मला-आदमी तो बुरे नहीं हैं; और फिर तुम्हें उनसे कुछ विवाह तो करना नहीं, जरा सा बोलने में क्या हानि है? डॉक्टर साहब यहाँ होते तो मैं तुन्हें आज्ञा दिला देती!
सुधा-जो लोग हदय के उद्धार होते हैं, क्या चरित्र के भी अच्छे होते हैं? पराई बी को घूरने में तो किसी मर्द को सङ्कोच नहीं होता|
निर्मला-अच्छा न बोलना, मैं ही बातें कर लूंगी, घूर लेंगे जितना उनसे घूरते बनेगा; बस, अब तो राजी हुई|
इतने में कृष्ण आकर बैठ गई| निर्मला ने मुस्करा कर कहा तब बत्ता कृष्णा, तेरा मन इस वक्त क्यों उचाट हो रहा है?
कृष्णा-जीजा जी बुला रहे हैं, पहले जाकर सुन आओ, पीछे गपे लड़ाना| बहुत बिगड़ रहे हैं|
निर्मला क्या है, तूने कुछ पूछा नहीं?
कृष्णा-कुछ बीमार से मालूम होते हैं| बहुत दुबले हो गए हैं|
निर्मला--तो जरा बैठ कर उनका मन बहला देती, यहाँ दौड़ी क्या चली आई| यह कहो ईश्वर ने कृपा की, नहीं तो ऐसा ही पुरुष तुझे भी मिलता! जरा बैठ कर बातें तो करो| बुड्ढे वाते बड़ी लच्छेदार करते हैं| जबान इतने डीगियल नहीं होते!
कृष्णा नहीं बहिन, तुम जाओ; मुझसे दो वहाँ नहीं बैठा जाता|
निर्मला चली गई, तो सुधा ने कृष्णा से कहा-अब तो बारात आ गई होगी| द्वार-पूजा क्यों नहीं होती?
कृष्णा-क्या जाने वहिन, शास्त्री जी सामान इकट्ठा कर रहे हैं|
सुधा-सुना है, दूल्हा की भावज बड़ी कड़े स्वभाव की स्त्री है|
कृष्णा-कैसे मालूम?
सुधा-मैं ने सुना है, इसलिए चेताए देती हूँ| चार वातें ग़म खाकर रहना होगा|
कृष्णा-मेरी झगड़ने की आदत ही नहीं| जब मेरी तरफ से कोई शिकायत ही न पावेंगी, तो क्या अनायास ही विगड़ेंगी?
सुधा- हाँ, सुना तो ऐसा ही है| झूठमूठ लड़ा करती हैं|
कृष्णा-मैं तो सौ बात की एक बात जानती हूँ-नम्रता पत्थर को भी मोम कर देती है|
सहसा शोर मचा-वारात आ रही है| दोनों रमणियाँ खिड़की के सामने आ बैठी| एक क्षण में निर्मला भी आ पहुंची|
वर के बड़े भाई को देखने की उसे वड़ी उत्सुकता हो रही थी|
सुधा ने कहा- कैसे पता चलेगा कि बड़े भाई कौन हैं?
निर्मला-शास्त्री जी से पूछ तो मालूम हो| हाथी पर तो कृष्णा के ससुर महाशय हैं| अच्छा, डॉक्टर साहब यहाँ कैसे आ पहुँचे| वह घोड़े पर क्या हैं, देखती नहीं हो?
सुधा-हाँ, हैं तो वही|
निर्मला-उन लोगों से मित्रता होगी| कोई सम्बन्ध तो नहीं है? .
सुधा-अव भेंट हो, तो पूछ| मुझे तो कुछ नहीं मालूम|
निर्मला-पालकी में जो महाशय बैठे हुए हैं, वह तो दूल्हा के भाई जैसे नहीं दीखते|
सुधा-बिलकुल नहीं, मालूम होता है, सारी देह में पेट ही पेट है|
निर्मला-दूसरे हाथी पर कौन बैठा हुआ है, समझ में नहीं आता|
सुधा-कोई हो, दूल्हा का भाई नहीं हो सकता| उसकी उम्र नहीं देखती हो-चालीस के ऊपर होगी|
निर्मला-शास्त्री जी तो इस वक्त द्वार-पूजा की फिक्र में हैं, नहीं तो उनसे पूछती|
संयोग से नाई आ गया| सन्दूकों की कुञ्जियाँ निर्मला ही के पास थीं| इस वक्त द्वार-चार के लिए कुछ रुपए की जरूरत थी, माता ने भेजा था| यह नाई भी पण्डित मोटेराम जी के साथ तिलक लेकर गया था| निर्मला ने कहा-क्या अभी रुपए चाहिए?
नाई-हाँ वहिन जी, चल कर दे दीजिए|
निर्मला-अच्छा चलती हूँ| पहले यह वता, तू दूल्हा के बड़े भाई को पहचानता है?
नाई-पहचानता काहे नहीं, वह क्या सामने हैं|
निर्मला-कहाँ, मैं तो नहीं देखती?
नाई-अरे, वह क्या घोड़े पर सवार हैं? वही तो हैं|
निर्मला ने चकित होकर कहा-क्या कहता है, घोड़े पर दूल्हा के भाई हैं! पहचानता है या अटकल से कह रहा है?
नाई-अरे वहिन जी, क्या इतना भूल जाऊँगा? अभी तो जल-पान का सामान दिए चला आता हूँ|
निर्मला-अरे, यह तो डॉक्टर साहब हैं, मेरे पड़ोस में रहते हैं|
नाई-हाँ हाँ, वही तो डॉक्टर साहब हैं|
निर्मला ने सुधा की ओर देख कर कहा-सुनती हो बहिन इसकी बातें?
सुधा ने हँसी रोक कर कहा-झूठ बोलता है|
नाई-अच्छा साहब, झूठ ही सही; अब बड़ों के मुँह कौन लगे| अभी शास्त्री जी से पुछवा दूंगा, तब तो मानिएगा?
नाई के आने में देर हुई, तो मोटेराम ख़ुद आँगन में आकर शोर मचाने लगे-इस घर की मर्याद रखना ईश्वर ही के हाथ है| नाई घण्टे भर से आया हुआ है, और अभी तक रुपए नहीं मिले|
निर्मला-जरा यहाँ चले आइएगा; शास्त्री जी? कितने रुपए दरकार हैं, निकाल दूँ?
शास्त्री जी भुनभुनाते और ज़ोर-ज़ोर से हाँफते हुए ऊपर आए; और एक लम्बी साँस लेकर बोले-क्या है? यह बातों का समय नहीं है| जल्दी से रुपए निकाल दो|
निर्मला-लीजिए, निकाल तो रही हूँ| अब क्या मुँह के, वल गिर पड़ें| पहले यह बताइए कि दूल्हा के बड़े भाई कौन हैं|
शास्त्री जी-राम-राम, इतनी सी बात के लिए मुझे आकाश पर लटका दिया| नाई क्या न पहचानता था?
निर्मला-नाई तो कहता है कि वह जो घोड़े पर सवार हैं, वही है|
शास्त्री जी-तो फिर और किसे बता दे? वही तो हैं ही|
नाई-घड़ी भर से कह रहा हूँ; पर बहिन जी मानती ही नहीं| निर्मला ने सुधा की ओर स्नेह, ममता, विनोद और कृत्रिम तिरस्कार की दृष्टि से देख कर कहा-अच्छा, तो तुम्ही अब तक मेरे साथ यह त्रिया-चरित्र-खेल रही थीं| मैं जानती तो तुम्हें यहाँ बुलाती ही नहीं| ओफ्कोह! बड़ा गहरा पेट है तुम्हारा!! तुम महीनों से मेरे साथ यह शरारत करती चली आती हो; और कभी भूल से भी इस विषय का एक शब्द तुम्हारे मुँह से नहीं निकला | मैं तो दो-चार ही दिन में उबल पड़ती|
सुधा-तुम्हें मालूम हो जाता, तो तुम मेरे यहाँ आती ही क्यों? '
निर्मला-गज़ब रे गज़ब, मैं डॉक्टर साहब से कई बार बातें कर चुकी हूँ| तुम्हारे ऊपर यह सारा पाप पड़ेगा| देखी कृष्णा तूने अपनी जेठानी की शरारत? यह ऐसी मायाविनी हैं, इनसे डरती रहना!
कृष्णा-मैं तो ऐसी देवी के चरण धो-धोकर माथे चढ़ाऊँगी| धन्य भाग कि उनके दर्शन हुए?
निर्मला-अब समझ गई| रुपए भी तुम्हीं ने भेजवाए होंगे| अब सिर हिलाया तो सच कहती हूँ, मार बैठूँगी|
सुधा-अपने घर बुला कर मेहमान का अपमान नहीं किया जाता|
निर्मला-देखो तो अभी कैसी-कैसी खबरें लेती हूँ| मैंने तुम्हारा मान रखने को ज़रा सा लिख दिया था; और तुम सचमुच आ पहुँची| भला वहाँ वाले क्या कहते होंगे?
सुधा-सब से कह कर आई हूँ|
निर्मला-अब तुम्हारे पास कभी न आऊँगी| इतना तो इशारा कर देती कि डॉक्टर साहब से परदा रखना|
सुधा-उनके देख लेने ही से कौन बुराई हो गई| न देखते तो अपनी किस्मत को रोते कैसे? जानते कैसे कि लोभ में पड़ कर कैसी चीज़ खोदी! अब तो तुम्हें देख कर लाला जी हाथ मल कर रह जाते हैं| मुँह से तो कुछ नहीं कहते; पर मन में अपनी भूल पर पछताते हैं|
निर्मला-अब तुम्हारे घर कभी न जाऊँगी|
सुधा-अब पिण्ड नहीं छूट सकता| मैंने कौन तुम्हारे घर की राह नहीं देखी है|
द्वार-पूजा समाप्त हो चुकी थी| मेहमान लोग बैठे जल-पान कर रहे थे| मुन्शी तोताराम की बग़ल में ही डॉक्टर सिन्हा बैठे हुए थे| निर्मला ने कोठे पर चिक की आड़ से उन्हें बैठे देखा और कलेजा थाम कर रह गई| एक आरोग्य, यौवन और प्रतिभा का देवता था, दूसरा......इस विषय में कुछ न कहना ही उचित है|
निर्मला ने डॉक्टर साहब को सैकड़ों ही बार देखा था; पर आज उसके हृदय में जो विचार उठे, वे कभी न उठे थे| बार-बार यही जी चाहता था कि बुला कर खूब फटकारूँ, ऐसे-ऐसे ताने मारूँ कि वह भी याद करें, रुला-रुला कर छोडूँ मगर सहम करके रह जाती थी| बारात जनवासे चली गई थी| भोजन की तैयारी हो रही थी| निर्मला भोजन के थाल चुनने में व्यस्त थी, सहसा महरी ने आकर कहा-बिट्टी, तुम्हें सुधा रानी बुला रही हैं| तुम्हारे कमरे में बैठी हैं|
निर्मला ने थाल छोड़ दिए और घबराई हुई सुधा के पास आई, मगर अन्दर कदम रखते ही ठिठक गई-डॉक्टर सिन्हा खड़े थे|
सुधा ने मुस्करा कर कहा-लो बहिन, बुला दिया| अब जितना चाहो, फटकारो| मैं दरवाजा रोके खड़ी हूँ, भाग नहीं सकते|
डॉक्टर साहब ने गम्भीर भाव से कहा-भागता कौन है यहाँ तो सिर झुकाए खड़ा हूँ|
निर्मला ने हाथ जोड़ कर कहा-इसी तरह सदा कृपा-दृष्टि रखिएगा, भूल न जाइएगा! यही मेरी विनय है!!
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