निर्मला (उपन्यास) (भाग 13) - मुंशी प्रेमचंद

निर्मला (उपन्यास) (भाग -13) - मुंशी प्रेमचंद

निर्मला (उपन्यास) - मुंशी प्रेमचंद

भाग 13

अनुक्रम
पिछला भाग
तीनों बातें एक ही साथ हुईं - निर्मला की कन्या ने जन्म लिया, कृष्णा का विवाह निश्चित हुआ; और मुन्शी तोताराम का मकान नीलाम हो गया! कन्या का जन्म तो साधारण बात थी! यद्यपि निर्मला की दृष्टि में यह उसके जीवन की सबसे महान् घटना थी; लेकिन शेष दोनों घटनाएँ असाधारण थीं! कृष्णा का विवाह ऐसे सम्पन्न घराने में क्यों कर ठीक हुआ? उसकी माता के पास तो दहेज के नाम कौड़ी भी न थी; और इधर बूढ़े सिन्हा साहब जो अब पेन्शन लेकर घर आ गये थे, बिरादरी में महा लोभी मशहूर थे | वह अपने पुत्र का विवाह ऐसे दरिद्र घराने में करने पर कैसे राज़ी हुए? किसी को सहसा विश्वास न आता था | इससे भी बड़े आश्चर्य की बात मुन्शी जी के मकान का नीलाम होना था | लोग मुन्शी जी को अगर लखपती नहीं, तो बड़ा आदमी अवश्य समझते थे | उनका मकान कैसे नीलाम हुआ? बात यह थी कि मुन्शी जी ने एक महाजन से कुछ रुपये कर्ज लेकर एक गाँव रहन रक्खा था | उन्हें आशा थी कि साल आध साल में यह रुपये पटा देंगे | फिर दस - पाँच साल में उस गाँव पर भी कब्जा कर लेंगे | वह जमींदार असल और सूद के कुछ रुपये अदा करने में असमर्थ हो जायगा | इसी भरोसे पर मुन्शी जी ने वह मामला किया था | गाँव बहुत बड़ा था - चार - पाँच सौ रुपया नफा होता था;लेकिन मन की सोची मन ही में रह गई | मुन्शी जी दिल को बहुत समझाने पर भी कचहरी न जा सके | पुत्र - शोक ने उनमें कोई काम करने की शक्ति ही नहीं छोड़ी! कौन ऐसा हृदय - शून्य पिता है जो अपने पुत्र की गर्दन पर तलवार चला कर चित्त को शान्त करले?

महाजन के पास जब साल भर तक सूद न पहुँचा; और न उसके बार - बार बुलाने पर मुन्शी जी उसके पास गये यहाँ तक कि पिछली बार उन्होंने साफ - साफ कह दिया कि हम किसी के गुलाम नहीं हैं; साहू जी जो चाहें करें, तब साहू जी को गुस्सा आ गया | उसने नालिश कर दी | मुन्शी जी पैरवी करने भी न गये | एकतरफ़ा डिग्री हो गई! यहाँ घर में रुपये कहाँ रखे थे? इतने ही दिनों में मुन्शी जी की साख भी उठ गई थी | वह रुपये का कोई प्रवन्ध न कर सके | आखिर मकान नीलाम पर चढ़ गया | निर्मला सौर में थी | यह खबर सुनी, तो कलेजा सन्न सा हो गया! जीवन में और कोई सुख न होने पर भी धनाभाव की चिन्ताओं से मुक्त थी! धन मानव - जीवन में अगर सर्व - प्रधान वस्तु नहीं, तो वह उसके वहुत निकट की वस्तुअवश्य है | अब और अभावों के साथ यह चिन्ता भी उसके सिर सवार हुई, उसने दाई द्वारा कहला भेजा मेरे सब गहने बेच कर घर को बचा लीजिये; लेकिन मुन्शी जी ने यह प्रस्ताव किसी तरह स्वीकार न किया |

उस दिन से मुन्शी जी और भी चिन्ता - यस्त रहने लगे | जिस धन का मुख भोगने के लिए उन्होंने विवाह किया था, वह अब अतीत की स्मृति - मात्र था | वह मारे ग्लानि के अब निर्मला को अपना मुँह तक न दिखा सकते थे | उन्हें अब उस अन्याय का अनुमान हो रहा था, जो उन्होंने निर्मला के साथ किया था, और कन्या के जन्म ने तो रही - सही कसर भी पूरी कर दी - सर्वनाश ही कर डाला!

बारहवें दिन सौर से निकल कर निर्मला नवजात शिशु को गोद में लिए पति के पास गई | वह इस अभाव में भी इतनी प्रसन्न थी, मानो उसे कोई चिन्ता नहीं है! बालिका को हृदय से लगा कर वह अपनी सारी चिन्ता भूल गई थी! शिशु के विकसित और हर्ष - प्रदीप्त नेत्रो को देख कर उसका हृदय प्रफुल्लित हो रहा था! मातृत्व के इस उद्गार में उसके सारे क्लेश विलीन हो गए थे! वह शिशु को पति की गोद में देकर निहाल हो जाना चाहती थी, लेकिन मुन्शी जी कन्या को देख कर सहम उठे | गोद में लेने के लिए उनका हृदय हुलसाया नहीं; पर उन्होने एक बार उसे करुण - नेत्रों से देखा; और फिर सिर झुका लिया | शिशु की सूरत मन्साराम से बिलकुल मिलती थी!

निर्मला ने उनके मन का भाव कुछ और ही समझा! उसने शत - गुण स्नेह से लड़की को हृदय से लगा लिया; मानो उनसे कह रही है - अगर तुम इसके बोझ से दबे जाते हो, तो आज से मैं इस पर तुम्हारा साया भी न पड़ने दूंगी | जिस रत्न को मैं ने इतनी तपस्या के बाद पाया है, उसका निरादर करते हुए तुम्हारा हृदय फट नहीं जाता? वह उसी क्षण शिशु को गोद से चिपटाए हुए अपने कमरे में चली आई; और देर तक रोती रही! उसने पति की इस उदासीनता को समझने की ज़रा भी चेष्टा न की; नहीं तो शायद वह उन्हें इतना कठोर न समझती | उसके सिर पर उत्तरदायित्व का इतना बड़ा भार कहाँ था, जो उसके पति पर आ पड़ा था? क्या वह सोचने की चेष्टा करती, तो इतना भी उसकी समझ में न आता?

मुन्शी जी को एक ही क्षण में अपनी भूल मालूम हो गई | माता का हृदय प्रेम में इतना अनुरक्त रहता है कि भविष्य की चिन्ता और बाधाएँ उसे जरा भी भयभीत नहीं करती! उसे अपने अन्तःकरण में एक अलौकिक शक्ति का अनुभव होता है, जो बाधाओं को उसके सामने परास्त कर देती है | मुन्शी जी तुरन्त दौड़े हुए घर में आए; और शिशु को गोद में लेकर बोले - मुझे याद आता है, मन्सा भी ऐसा ही था - बिलकुल ऐसा ही!

निर्मला - दीदी जी भी तो यही कहती हैं!

मुन्शी जी - बिलकुल वही बड़ी - बड़ी आँखें और लाल - लाल ओंठ हैं | ईश्वर ने मुझे मेरा मन्साराम इस रूप में दे दिया | वही 'माथा है, वही मुँह, वही हाथ - पाँव! ईश्वर, तुम्हारी लीला अपार है!! सहसा रुक्मिणी भी आ गई | मुन्शी जी को देखते ही बोली - - देखो बाबू, मन्साराम है कि नहीं? वही आया है! कोई लाख कहे, मैं न मानेंगी, साफ मन्साराम है | साल भर के लगभग हो भी तो गया |

मुन्शी जी - बहिन, एक - एक अङ्ग मिलता है! वस, भगवान् ने मुझे मेरा मन्साराम दे दिया | (शिशु से) क्यों री, तू मन्साराम ही है? छोड़ कर जाने का नाम न लेना, नहीं फिर खीच लाऊँगा! कैसे निष्ठुर होकर भागे थे | नाजिर पकड़ लाया कि नहीं? बस कह दिया, अब मुझे छोड़ कर जान का नाम न लेना | देखो बहिन, कैसा टुकुर - टुकुर ताक रही है?

उसी क्षण मुन्शी जी ने फिर से अभिलाषाओं का भवन बनाना शुरू कर दिया | मोह ने उन्हें फिर संसार की ओर खींचा | मानव - जीवन! तू कितना क्षण - भद्र है;पर तेरी कल्पनाएँ कितनी दीर्घायु! वही तोताराम जो संसार से विरक्त हो रहे थे, जो रात - दिन मृत्यु का आवाहन किया करते थे, तिनके का सहारा पाकर तट पर पहुँचने के लिए पूरी शक्ति से हाथ - पॉव मार रहे हैं |

मगर तिनके का सहारा पाकर कोई तट पर पहुंचा है?



निर्मला को यद्यपि अपने ही घर के झञ्झटों से अवकाश न था; पर कृष्णा के विवाह का सन्देशा पाकर वह किसी तरह न रुक सकी | उसकी माता ने बहुत आग्रह करके बुलाया था | सबसे बड़ा आकर्षण यह था कि कृष्णा का विवाह उसी घर में हो रहा था, जहाँ निर्मला का विवाह पहले तय हुआ था | आश्चर्य यही था कि इस बार बिना कुछ दहेज लिए कैसे विवाह होने पर तैयार हो गए | निर्मला को कृष्णा के विषय में बड़ी चिन्ता रहती थी | समझती थी - मेरी ही तरह वह भी किसी के गले मढ़ दी जायगी | बहुत चाहती थी कि माता की कुछ सहायता करूँ, जिससे कृष्णा के लिए कोई योग्य वर मिले; लेकिन इधर वकील साहब के घर बैठ जाने और महाजन के नालिश कर देने से उसका हाथ भी तङ्ग था | ऐसी दशा में यह ख़बर पाकर उसे बड़ी शान्ति मिली | चलने की तैयारी कर दी, वकील साहब स्टेशन तक पहुँचाने आए | नन्हीं बच्ची से उन्हें बहुत प्रेम था | छोड़ते ही न थे;यहाँ तक कि निर्मला के साथ चलने को तैयार हो गए लेकिन विवाह से एक महीने पहले उनका ससुराल जा बैठना निर्मला को उचित न मालूम हुआ |

निर्मला ने अपनी माता से अब तक अपनी विपत्ति - कथा न कही थी | जो बात हो गई, उसका रोना रोकर माता को कष्ट देने और रुलाने से क्या फायदा? इसलिए उसकी माता समझती थी, निर्मला बड़े आनन्द से है | अब जो निर्मला की सूरत देखी, तो मानो उसके हृदय पर धक्का सा लग गया | लड़कियाँ ससुराल से घुल कर नहीं आती; फिर निर्मला जैसी लड़की, जिसको सुख की सभी सामग्रियाँ प्राप्त थीं! उसने कितनी ही लड़कियों को दौज की चन्द्रमा की भाँति ससुराल जाते और पूर्णचन्द्र वन कर आते देखा था! मन में कल्पना कर रक्खी थी, निर्मला का रङ्ग निखर गया होगा, देह भर कर सुडौल हो गई होगी - अङ्गप्रत्यङ्ग की शोभा कुछ और ही हो गई होगी | अब जो देखा, तो वह आधी भी न रही थी! न यौवन की चञ्चलता थी, न वह विहँसित छवि, जो हृदय को मोह लेती है! वह कमनीयता, वह सुकुमारता जो विलासमय जीवन से आ जाती है, यहाँ नाम को न थी | मुख पीला, चेष्टा गिरी हुई, अङ्ग शिथिल, उन्नीसवें ही वर्ष में वुड्ढी हो गई थी | जव माँ - बेटियाँ रो - धोकर शान्त हुई, तो माता ने पूछा - क्यों री, तुझे वहाँ खाने को न मिलता था? इससे कहीं अच्छी तो तू यहीं थी | वहाँ तुझे क्या तकलीफ थी?

कृष्णा ने हँस कर कहा - वहाँ मालिकिन थी कि नहीं | मालिकिन को दुनिया भर की चिन्ताएँ रहती हैं, भोजन कब करें?

निर्मला - नहीं अम्माँ, वहाँ का पानी मुझे रास नहीं आता - तबीयत भारी रहती है |

माता - वकील साहब न्यौते में आएंगे न? तब पूछूंगी कि आपने फूल सी लड़की ले जाकर उसकी यह गत बना डाली | अच्छा, अब यह बता कि तूने यहाँ रुपए क्यों भेजे थे? मैंने तो तुझसे कभी न माँगे थे | लाख गई - गुजरी हूँ लेकिन बेटी का धन खाने की नीयत नहीं!

निर्मला ने चकित होकर पूछा - किसने रुपए भेजे थे? अम्माँ! मैंने तो नहीं भेजे!

माता - झूठ न बोल! तूने ५००) के नोट नहीं भेजे थे?

कृष्णा - भेजे नहीं थे, तो क्या आसमान से आगए? तुम्हारा नाम साफ लिखा था | मोहर भी वहीं की थी |

निर्मला - तुम्हारे चरण छूकर कहती हूँ, मैंने रुपए नहीं भेजे | यह कब की बात है?

माता - अरे यही दो - ढाई महीने हुए होंगे | मगर तूने नहीं भेजे, तो आए कहाँ से?

निर्मला यह मैं क्या जानूँ? मगर मैंने रुपए नहीं भेजे | हमारे यहाँ तो जब से जवान बेटा मरा है, कचहरी ही नहीं जाते | मेरा हाथ तो आप ही तङ्ग था, रुपए कहाँ से आते?

माता - यह तो बड़े आश्चर्य की बात है! वहाँ और कोई तेरा सगा - सम्बन्धी तो नहीं है? वकील साहब ने तुझसे छिपा कर तो नहीं भेजे?

निर्मला - नहीं अम्माँ, मुझे तो विश्वास नहीं |

माता - इसका पता लगाना चाहिए | मैने सारे रुपए कृष्णा के गहने कपड़े में खर्च कर डाले | यही बड़ी मुश्किल हुई |

दोनों लड़की में किसी विषय पर विवाद उठ खड़ा हुआ;और कृष्णा उधर फैसला करने चली गई, तो निर्मला ने माता से कहा इस विवाह की बात सुन कर मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ | यह कैसे हुआ अम्मॉ?

माता - यहाँ जो सुनता है, दाँतों उँगली दवाता है | जिन लोगों ने पकी की - कराई वात फेर दी; और केवल थोड़े से रुपए के लोभ से! वे अव विना कुछ लिए कैसे विवाह करने पर तैयार हो गये, समझ में नहीं आता | उन्होंने खुद ही पत्र भेजा | मैंने साफ लिख दिया कि मेरे पास देने लेने को कुछ नहीं है; कुश - कन्या ही से आपकी सेवा कर सकती हूँ |

निर्मला - इसका कुछ जवाब नहीं दिया?

माता - शास्त्री जी पत्र लेकर गए थे | वह तो यह कहते थे कि अव मुन्शी जी कुछ लेने के इच्छुक नहीं हैं | अपनी पहली वादा - खिलाफी पर कुछ लज्जित भी हैं | मुन्शी जी से तो इतनी उदारता की आशा न थी, मगर सुनती हूँ उनके बड़े पुत्र बहुत सजन आदमी हैं | उन्होंने कह - सुन कर बाप को राजी किया है | निर्मला - पहले तो वह महाशय भी थैली चाहते थे न?

माता - हाँ, मगर अब तो शास्त्री जी कहते थे कि दहेज के नाम से चिढ़ते हैं | सुना है, यहाँ विवाह न करने पर पछताते भी थे | रुपए के लिए बात छोड़ी थी; और रुपए खूब पाए; पर स्त्री पसन्द नहीं!

निर्मला के मन में उस पुरुष को देखने की बड़ी प्रबल उत्कण्ठा हुई, जो उसकी अवहेलना करके अब उसकी बहिन का उद्धार करना चाहता है | प्रायश्चित्त सही; लेकिन कितने ऐसे प्राणी हैं, जो इस तरह प्रायश्चित्त करने को तैयार हैं | उनसे बातें करने के लिए नम्र शब्दों में उनका तिरस्कार करने के लिए, अपनी अनुपम छबि दिखा कर उन्हें और भी जलाने के लिए निर्मला का हृदय अधीर हो उठा | रात को दोनों बहिनें एक ही कमरे में सोई | मुहल्ले में किन - किन लड़कियों का विवाह हो गया, कौन - कौन सी लड़कोरी हुईं; किस - किस को विवाह धूम - धाम से हुआ, किस - किस के पति कन्या की इच्छानुकूल मिले, कौन कितने और कैसे गहने चढ़ावे में लाया - इन्हीं विषयों पर दोनों में बड़ी देर तक बातें होती रहीं | कृष्णा बार - बार चाहती थी कि बहिन के घर का कुछ हाल पूछ; मगर निर्मला उसे कुछ पूछने का अवसर न देती थी | वह जानती थी कि यह जो बातें पूछेगी, उसके बताने में मुझे सङ्कोच होगा | आखिर एक बार कृष्णा पूछ ही बैठी - जीजा जी भी आएँगे न?

निर्मला - आने को कहा तो है |

कृष्णा - अब तो तुमसे प्रसन्न रहते हैं न, या अब भी वही हाल है | मैं तो सुना करती थी, दुहाज पति अपनी स्त्री को प्राणों से भी प्रिय समझता है, यहाँ विलकुल उलटी वात देखी | आखिर किस वात पर बिगड़ते रहते हैं?
निर्मला - अव मैं किसी के मन की बात क्या जानूं?

कृष्णा - मैं तो समझती हूँ, तुम्हारी रुखाई से वह चिढ़ते होंगे | तुम तो यहीं से जली हुई गई थीं | वहाँ भी उन्हें कुछ कहा होगा?

निर्मला - - यह वात नहीं है कृष्णा; मैं सौगन्द खाकर कहती हूँ, जो मेरे मन में उनकी ओर से जरा भी मैल हो | मुझसे जहाँ तक हो सकता है, उनकी सेवा करती हूँ | अगर उनकी जगह कोई देवता भी होता, तो भी मैं इससे ज्यादा और कुछ न कर सकती | उन्हें भी मुझसे प्रेम है, वरावर मेरा मुँह देखते रहते हैं;लेकिन जो बात उनके और मेरे काबू से बाहर है, उसके लिए वह क्या कर सकते हैं;और मैं क्या कर सकती हूँ? न वह जवान हो सकते हैं, न मैं बुढ़िया हो सकती हूँ | जवान बनने के लिए वह न जाने कितने रस और भस्म खाते रहते हैं, मैं बुढ़िया बनने के लिए दूध - घी सव छोड़े बैठी हूँ | सोचती हूँ, मेरे दुवलेपन ही से अवस्था का भेद कुछ कम हो जाय; लेकिन न उन्हें पौष्टिक पदार्थों से कोई लाभ होता है; न मुझे उपवासों से! जब से मन्साराम का देहान्त हो गया है, तबसे उनकी दशा और भी खराब हो गई है |

कृष्णा - मन्साराम को तो तुम भी बहुत प्यार किया करती थीं |

निर्मला - वह लड़का ही ऐसा था कि जो देखता था, प्यार करता था | ऐसी बड़ी - बड़ी डोरेदार ऑखें मैं ने किसी की नहीं देखी | कमल की भाँति मुख हरदम खिला रहता था | ऐसा साहसी कि अगर अवसर आ पड़ता, तो आग में फाँद जाता | कृष्णा, मैं तुझसे सच कहती हूँ, जब वह मेरे पास आकर बैठ जाता था, तो मैं अपने को भूल जाती थी | जी चाहता था, यह हरदम सामने बैठा रहे और मैं देखा करूँ! मेरे मन में पाप का लेश भी न था | अगर एक क्षण के लिए भी मैं ने उसकी ओर किसी और भाव से देखा हो, तो मेरी आँखें फूट जाय; पर न जाने क्यों उसे अपने पास देख कर मेरा हृदय फूला न समाता था | इसीलिए मैंने पढ़ने का स्वाँग रचा, नहीं तो वह घर में आता ही न था | यह मैं जानती हूँ कि अगर उसके मन में पाप होता, तो मैं उसके लिए सबकुछ कर सकती थी |

कृष्ण - अरे बहिन, चुप रहो; कैसी बातें मुँह से निकालती हो |

निर्मला - हाँ, यह बात सुनने में बुरी मालूम होती है और है भी बुरी; लेकिन मनुष्य की प्रकृति को तो कोई बदल नहीं सकता | ' तूही बता - एक पचास वर्ष के मर्द से तेरा विवाह हो जाय, तो तू क्या करेगी?

कृष्णा - बहिन, मैं तो जहर खाकर सो रहूँ | मुझसे तो उसका मुंह भी न देखते बने!

निर्मला - तो बस यही समझ ले | उस लड़के ने कभी मेरी ओर आँख उठा कर नहीं देखा; लेकिन बुड्ढे शक्की तो होते ही हैं - तुम्हारे जीजा उस लड़के के दुश्मन हो गए; और आखिर उसकी जान लेकर ही छोड़ी | जिस दिन उसे मालूम हो गया कि पिता जी के मन में मेरी ओर से सन्देह है, उसी दिन से उसे ज्वर चढ़ा, जो जान लेकर ही उतरा | हाय! उस अन्तिम समय का दृश्य आँखों से नहीं उतरता! मैं अस्पताल गई थी, वह ज्वर में बेहोश पड़ा था - उठने की शक्ति न थी, लेकिन ज्योंही मेरी आवाज सुनी, चौंक कर उठ बैठा और माता - माता कह कर मेरे पैरों पर गिर पड़ा! (रो कर ) कृष्णा, उस समय ऐसा जी चाहता था कि अपने प्राण निकाल कर उसे दे दूं | मेरे पैरों पर ही वह मूर्छित हो गया; और फिर आँखें न खोली | डॉक्टर ने उसकी देह में ताजा खून डालने का प्रस्ताव किया था, यही सुन कर मैं दौड़ी गई थी; लेकिन जब तक डॉक्टर लोग वह क्रिया आरम्भ करें, उसके प्राण निकल गए!

कृष्णा - ताजा रक्त पड़ जाने से उसकी जान बच जाती ?

निर्मला - कौन जानता है ! लेकिन मैं तो अपने रुधिर की अन्तिम बूंद देने की तैयार थी | उस दशा में भी उसका मुख - मण्डल दीपक की भाँति चमकता था | अगर वह मुझे देखते ही दौड़ कर मेरे पैरों पर न गिर पड़ता - पहले कुछ रक्त देह में पहुँच जाता, तो शायद बच जाता |

कृष्णा - तो तुमने उन्हें उसी वक्त लेटा क्यों न दिया?

निर्मला - अरे पगली, तू अभी तक बात नहीं समझी | वह मेरे पैरों पर गिर कर और माता - पुत्र का सम्बन्ध दिखा कर, अपने बाप के दिल से वह सन्देह निकाल देना चाहता था | केवल इसीलिए वह उठा था | मेरा क्लेश मिटाने के लिए उसने प्राण दिए और उसकी वह इच्छा पूरी हो गई | तुम्हारे जीजा जी उसी दिन से सीधे हो गए | अब तो उनकी दशा पर मुझे दया आती है | पुत्र - शोक उनके प्राण लेकरं छोड़ेगा | मुझ पर सन्देह करके मेरे साथ जो अन्याय किया है, अब उसका प्रतिशोध कर रहे हैं | अब की उनकी सूरत देख कर तू डर जायगी | बूढ़े बाबा हो गए हैं | कमर भी कुछ झुक चली है |

कृष्णा - बुड्ढे लोग इतने शकी क्यों होते हैं; वहिन ?

निर्मला - यह जाकर बुड्ढों से पूछ !

कृष्णा - मैं तो समझती हूँ, उनके दिल में हरदम एक चोर सा बैठा रहता होगा कि मैं इस युवती को प्रसन्न नहीं रख सकता | इसीलिए जरा - जरा सी बात पर उन्हें शक होने लगता है |

निर्मला - जानती तो है, फिर मुझसे क्यों पूछती है ?

कृष्णा - इसीलिए बेचारा स्त्री से दवता भी होगा | देखने वाले समझते होंगे कि यह बहुत प्रेम करता है |

निर्मला तूने इतने ही दिनों में इतनी बातें कहाँ से सीख ली ? इन बातों को जाने दे, बता तुझे अपना वर पसन्द है ? उसकी तस्वीर तो देखी होगी?

कृष्णा - हाँ, आई तो थी | लाऊँ, देखोगी ?

एक क्षण में कृष्णा ने तस्वीर लाकर निर्मला के हाथ में रख दी | निर्मला ने मुस्करा कर कहा - तू बड़ी भाग्यवान है !

कृष्णा - अम्माँ जी ने भी बहुत पसन्द किया |

निर्मला - तुझे पसन्द है कि नहीं, सो कह ; दूसरों की बात न चला |

कृष्णा - (लजाती हुई ) शक्ल - सूरत तो बुरी नहीं है, स्वभाव का हाल ईश्वर जाने | शास्त्री जी तो कहते थे, ऐसे सुशील और चरित्रवान् युवक कम होंगे |

निर्मला - - यहाँ से तेरी तस्वीर भी गई थी?

कृष्णा - गई तो थी, शास्त्री जी ही तो ले गए थे |

निर्मला - उन्हें पसन्द आई?

कृष्णा - अब किसी के मन की बात मैं क्या जानूँ? शास्त्री जी तो कहते थे, बहुत खुश हुए थे |

निर्मला - अच्छा वता, तुमे क्या उपहार दूं | अभी से वता दे, जिसमें बनवा रक्खूँ |

कृष्णा - जो तुम्हारा जी चाहे दे देना | उन्हें पुस्तकों से बहुत प्रेम है | अच्छी - अच्छी पुस्तकें मँगवा देना |

निर्मला - उनके लिए नहीं पूछती, तेरे लिए पूछती हूँ |

कृष्णा अपने ही लिए तो मैं भी कह रही हूँ |

निर्मला - (तस्वीर की तरफ देखती हुई) कपड़े सव खद्दर के मालूम होते हैं |

कृष्णा - हाँ, खदर के बड़े प्रेमी हैं | सुनती हूँ.कि पीठ पर खद्दर लाद कर देहातों में वेचने जाया करते हैं | व्याख्यान देने में भी चतुर हैं |

निर्मला - तब तो तुझे भी खदर पहनना पड़ेगा | तुझे तो मोटे कपड़ों से चिढ़ है?

कृष्णा - जब उन्हें मोटे कपड़े अच्छे लगते हैं, तो मुझे क्यों चिढ़ होगी; मैं ने तो चर्खा चलाना सीख लिया है |

निर्मला - सच! सूत निकाल लेती है?

कृष्णा - हाँ बहिन, थोड़ा - थोड़ा निकाल लेती हूँ | जब वह खद्दर के इतने प्रेमी हैं; तो चरखा भी जरूर चलाते होंगे | मैं न चला सकूँगी, तो मुझे कितना लज्जित होना पड़ेगा |

इस तरह बातें करते - करते दोनों बहिनें सोई | कोई दो बजे रात को बच्ची रोई, तो निर्मला की नींद खुली | देखा तो कृष्णा की चारपाई खाली पड़ी थी | निर्मला को आश्चर्य हुआ कि इतनी रात गए कृष्णा कहाँ चली गई | शायद पानी - वानी पीने गई हो | मगर पानी तो सिरहाने रक्खा हुआ है, फिर कहाँ गई है? उसने दो - तीन बार उसका नाम लेकर आवाज़ दी; पर कृष्णा का पता न था | तब तो निर्मला घबरा उठी | उसके मन में भाँति - भाँति की शङ्काएँ होने लगीं | सहसा उसे ख्याल आया कि शायद अपने कमरे में न चली गई हो | बच्ची सो गई, तो वह उठ कर कृष्णा के कमरे के द्वार पर आई | उसका अनुभव ठीक था | कृष्णा अपने कमरे में थी | सारा घर सो रहा था; और वह बैठी चर्खा चला रही थी | इतनी तन्मयता से शायद उसने थियेटर भी न देखा होगा | निर्मला दङ्ग रह गई! अन्दर जाकर बोली - यह क्या कर रही है रे, यह चर्खा चलाने का समय है?

कृष्णा चौंक कर उठ बैठी; और संकोच से सिर झुका कर बोली - तुम्हारी नींद कैसे खुल गई? पानी - वानी तो मैंने रख दिया था |

निर्मला - मैं कहती हूँ, दिन को तुझे समय नहीं मिलता, जो पिछली रात को चर्खा लेकर बैठी है?

कृष्णा - दिन को तो फुरसत ही नहीं मिलती |

निर्मला - (सूत देख कर) सूत तो बहुत महीन है |

कृष्ण - कहाँ वहिन, यह सूत तो मोटा है | मैं बारीक सूत कात कर उनके लिए एक साफा बनाना चाहती हूँ | यही मेरा उपहार होगा |

निर्मला - बात तो तूने खूब सोची है | इससे अधिक मूल्यवान वस्तु उनकी दृष्टि में और क्या होगी? अच्छा उठ इस वक्त; कल कातना! कहीं बीमार पड़ जायगी; तो यह सब धरा रह जायगा |

कृष्णा - नहीं मेरी बहिन, तुम चल कर सोओ; मैं अभी आती हूँ | निर्मला ने अधिक आग्रह नहीं किया - लेटने चली गई | मगर किसी तरह नीद न आई | कृष्णा की यह उत्सुकता और यह उमङ्ग देख कर उसका हृदय किसी अलक्षित आकांक्षा से आन्दोलित हो उठा | ओह! इस समय इसका हृदय कितना प्रफुल्लित हो रहा है! अनुराग ने इसे कितना उन्मत्त कर रक्खा है | तव उसे अपने विवाह की याद आई | जिस दिन तिलक गया था, उसी दिन से उसकी सारी चञ्चलता, सारी सजीविता बिदा हो गई थी! वह अपनी कोठरी में बैठी अपनी किस्मत को रोती थी; और ईश्वर से विनय करती थी कि प्राण निकल जायें! अपराधी जैसे दण्ड की प्रतीक्षा करता है, उसी भाँति वह विवाह की प्रतीक्षा 
करती थी, उस विवाह की - जिसमें उसके जीवन की सारी अभिलाषाएँ विलीन हो जायँगी, जब मण्डप के नीचे बने हुए हवन - कुण्ड में उसकी आशाएँ जल कर भस्म हो जायेंगी!!

Post a Comment

कृपया स्पेम न करे |

Previous Post Next Post