मेरे मेहमान - मजाज़ लखनवी -2

मेरे मेहमान - मजाज़ लखनवी -2

इसकी पिछली कड़ी आप यहाँ पढ़ सकते है |
जो लोग मजाज़ को उसकी बेरोजगारी के लिए निशाना बनाते है, वो नहीं जानते की इस बेरोजगारी के पीछे उसकी नाकाम जद्दोजहद की कटनी लंबी दास्तान है | उसने कई मुलाज़मते की, लेकिन मुलाज़मत की आद में ज़मीर और अपनी तरक्की पसंदी को बेचना गवारा नहीं किया | तक़रीबन ढाई बजे रात को कवि सम्मलेन खत्म हुआ | कालेज के लडको ने मजाज़ को हाथो पर उठा लिया | उस रात का हीरो भी मजाज़ था |

दूसरे दिन हम लोग मजाज़ को ग्वालियर के तारीखी मुक़ामात (एतिहासिक स्थल) दिखने ले गए| तानसेन के मजार पर मजाज़, माजिद मियाँ और अय्यूब मिर्ज़ा 'वज्द' बड़ी देर तक कव्वाली गाते रहे | वापसी पर मजाज़ मुझसे कहने लगा, ” अख्तर, ये तानसेन का मुसलमान कहा जाना बेसबब नहीं, इतना बड़ा कलाकार मुहम्मद गौस के तह्काने में तो न ही आ सकता' |

लेकिन जब मैंने उसे बताया की एक अप्रमाणिक रिवायत यह भी है की उसने किसी मुसलमान लड़की के इश्क में इस्लाम क़ुबूल कर लिया था, तो मजाज़ खुश हो गया और कहने लगा, 'बस यही तस्दीक शुदा, बाकि सब फ़िज़ूल' फिर वो रात भर गुनगुनाता रहा,
अतिया की बदौलत आज एक काफ़िर मुस्लमा हो गया |

हम लोग घर वापस हुए तो शाम हो चुकी थी | मजाज़ ने 'आशा' की फरमाइश की | ये ग्वालियर की खास शराब है | अपने जायके और नशे के एतबार से बहुत तेज होती है | दूसरे दिन तो मजाज़ ने उसे मय-मर्दे-अफगान (शेर जैसे मर्दों की शराब) का लकब दे दिया था | गरज की बाहर के कमरे में महफ़िल जमी, मेरे दो-एक दोस्त भी शरीक थे | कोई दस बजे के करीब सब के रुखसत होने के बाद में और मजाज़ तनहा रह गए |

उस जमाने में मजाज़ शराब के बाद भी खामोश सा रहने लगा था, लेकिन उस रात उसने न जाने कितनी बाते कर डाली | आमतौर पर लगातार बातचीत मजाज़ के बस की बात न थी |,

लेकिन आज वो दो घंटे, डेढ़ घंटे तक अकेला ही बोलता रहा | उसने बहुत से अजीज दोस्तों की शिकायत की | उसे उस 'जुहरा जबी' से भी शिकवा था, जिससे उसे खुद नहीं मालूम था की वो आखिर क्या चाहता है | फिर भी वो ऐसा जरुर महसूस करता था की उसे जो मुहब्बत जवाब में मिलनी चाहिए, उसमे कही कमी जरुर रह गयी है | मुझसे बडे प्रभावी लहजे में कहने लगा, 'अख्तर', मै चाहता हू की अपनी किताब के किसी एडिसन को उसके नाम करु, लेकिन उसने मंजूर नहीं किया | मैंने उसे भाव-विह्हल होते देख कर बात का रुख मोडना चाह | कहा, ' लेकिन यह फैज़ की भूमिका के नाम जो तुमने 'आहंग' (मजाज़ का काव्य संग्रह) का समपर्ण किया है, उससे तो अच्छा था की तुम फैज़ ही के नाम से समपर्ण कर देते |'

उसने मुझे बताया की ये समपर्ण उसका किया हुआ नहीं, खुद पब्लिशर की जेहनी उपज है | फिर वो फैज़ के बारे में बहुत सी प्यारी बाते करता रहा | उसे अपने समकालीनो में फैज़ और (ज़ज्बी (मुईनुददीन) से बेहद प्यार था | ज़ज्बी से अपनी लड़ाईया भी बयान करता रहा |

फिर वो खुद मेरे और सफिया के बारे में बाते करने लगा | अपने घर में उसे सफिया से बहुत ज्यादा लगाव था | सफिया को वो बहुत चाहता था और साथ ही मानसिक टूर पर उसका रौब भी मानता था | कृशनचंदर ने 'जेरे-लैब' की भूमिका में लिखा है की: 'अपनी सामजिक सुझबुझ में, अपने अंदाजे-फ़िक्र (चिंतन) में, अपने मह्सुसात में सफिया मजाज़ से बहुत आगे थी |'

तो मजाज़ को इस बात का एहसास ही नहीं, स्वीकार्य भी थी | सफिया के मरने पर जो खत उसने सुहैल अजिमाबादी के नाम लिखा है और जो इत्तफाक से पोस्ट करना भूल गया था, वो उसके कागजात में मौजूद है | इसमें मजाज़ ने सफिया की मौत पर लिखा की मुझे ऐसा महसूस होता है, जैसे मेरा जेहन हमेशा के लिए सो गया है |

हद यह थी की मजाज़ ने कभी सफिया के सामने पी कर आने की हिम्मत नहीं की लेकिन उस रात वो सफिया के मुत्तालिक बेतहाशा बाते करते-करते भूल गया कि वो बहुत ज्यादा नशे के आलम में है और उसने एकबारगी मुझ से कहा, 'अख्तर, सफिया को बुला लाओ|'
मैंने सफिया से कहा, 'मजाज़ तुम्हे बुलाते है'|
लेकिन सफिया तैयार न हुई | उसने कहा,'अख्तर तुम यकीन करो, मैंने कभी असरार भाई को इस आलम में नहीं देखा और न मै उन्हें इस आलम में देखने के ताब (शक्ति) रखती हूँ | यह में यह जज्बाती कमजोरी है | फिर अगर मै इस वक्त मान लो, चली भी जाऊ, तो असरार भाई पर सुबह अपनी जुर्रत का बहुत बुरा रद्दे अमल होगा और वो कल तो चले ही जायेंगे, लेकिन शायद फिर कभी मेरे घर आने कि उनमे हिम्मत न रहे |' मैंने सफिया से कोई आग्रह नहीं किया और मजाज़ से सफिया कि कमजोरी बयान कर दी | सफिया के इनकार पर मजाज़ ने बेकाबू होकर रोना शुरू कर दिया | मेरे गले में दोनों हाथ डाले वो बड़ी देर तक फूट-फूट कर रोता रहा | उधर सफिया ने रो-रो कर बुरा हाल कर लिया | आखिर इस हालत में मजाज़ बगैर खाना खाए बिस्तर पर पड़ कर सो गए और सफिया उसके सिरहाने उसके सर पर हाथ रखे रात भर बैठी रोती रही |
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