मेरा मेहमान मजाज़
यादे याद रह जाती है और यही हमें कुछ वक्त के बाद सताती है, रुलाती है और चेहरे पर मुस्कराहट का कारण भी बन जाती है कुछ इसी तरह की यादे जाँनिसार अख्तर साहब इस लेख में बता रहे है अपने अज़ीज़ दोस्त मजाज़ लखनवी के बारे में...
ये सन 45 की बात है, मजाज़ उन दिनों हार्डिंग लाइब्रेरी में काम करता था और मै विक्टोरिया कालेज, ग्वालियर में लेक्चरर था | कालेज में हर साल दिसंबर के महीने में सालाना मुशायरा होता था| लेकिन अदब का फंड बहुत कम था, इसलिए बाहर के शायरों में से एक दो ही को बुलाया जा सकता था | उस साल बज्मे-अदब ने सिर्फ मजाज़ को बुलाने का फैसला किया और मजाज़ मेरे खत के बाद ग्वालियर आने के लिए मजबूर हो गया
मजाज़ पहली बार हम लोगो के घर आ रहा था | सफिया की खुशी की इंतिहा न थी | वो मजाज़ को लेने खुद स्टेशन गई | मुझे बुखार आ रहा था, इसलिए उसने मुझे जाने की इजाजत न दी | मजाज़ आये और घर की रौनक में दूना इजाफा हो गया | उसके आते ही हमारे घर लोगो का जमघट होने लगा | मुकामी अदीबो और शायरों के अलावा शहर की कितनी ही साहित्य प्रेमी, औरते भी उसे देखने और मिलने के लिए अनपेक्षित तौर पर हमारे यहाँ जमा हो गई | मजाज़ की शायरी में जो नर्म रूमानी तत्व है, उसने मजाज़ को औरतो के हलके में हमेशा हद से ज्यादा लोकप्रिय और हरदिल अज़ीज़ रखा है | वो खुद को अगर शायरे-महफ़िल व बज्मे-दिलबरा कहता था, तो उसका ये दावा गलत न था |
उसी शाम कालेज में मुशायरा था | मै उसमे भी न जा सका | मेरे अज़ीज़ दोस्त और हिंदी के मशहूर कवि शिवमंगल सिंह 'सुमन', जो उस वक्त कालेज में मेरे साथी प्रोफेसरों में थे, मजाज़ को अपने साथ कालेज ले गए | मुशायरा कामयाब रहा | दूसरे रोज कवि सम्मेलन था | वहा ऐसी महफ़िल जमी की तक़रीबन साढ़े दस बज गए | जब मजाज़ और सुमन कालेज पहुचे, लड़के बतौर प्रतिरोध कवि सम्मेलन के बायकाट पर उतर आए | सुमन ने हर मुमकिन समझाने की कोशिश की, लेकिन छात्र बेकाबू हो चुके थे | आखिरकार मजाज़ ने जाती तौर पर माफ़ी तलब की और देरी के इल्जाम को अपने सर ले लिया | उसने कहा, 'आप बेशक मुझे न सुनिएगा, जिसकी वजह से आपको यह तकलीफ उठानी पढ़ी, यह फंक्शन आपका है, आप खुद इसका बायकाट कैसे कर सकते है?'
मजाज़ के इस शिष्टाचार ने बिजली का सा असर किया और साथ ही 'आवारा, आवारा' के तकाजो से हाल गूंजने लगा | एक मिनट ना गुजरा था कि मजाज़ अपने तरन्नुम मगर टूटे हुए लहजे में अपने टूटे हुए दिल की बात कह रहा था,
ए गमे दिल क्या करू, ए वहशते-दिल क्या करू
ये सन 45 की बात है, मजाज़ उन दिनों हार्डिंग लाइब्रेरी में काम करता था और मै विक्टोरिया कालेज, ग्वालियर में लेक्चरर था | कालेज में हर साल दिसंबर के महीने में सालाना मुशायरा होता था| लेकिन अदब का फंड बहुत कम था, इसलिए बाहर के शायरों में से एक दो ही को बुलाया जा सकता था | उस साल बज्मे-अदब ने सिर्फ मजाज़ को बुलाने का फैसला किया और मजाज़ मेरे खत के बाद ग्वालियर आने के लिए मजबूर हो गया
मजाज़ पहली बार हम लोगो के घर आ रहा था | सफिया की खुशी की इंतिहा न थी | वो मजाज़ को लेने खुद स्टेशन गई | मुझे बुखार आ रहा था, इसलिए उसने मुझे जाने की इजाजत न दी | मजाज़ आये और घर की रौनक में दूना इजाफा हो गया | उसके आते ही हमारे घर लोगो का जमघट होने लगा | मुकामी अदीबो और शायरों के अलावा शहर की कितनी ही साहित्य प्रेमी, औरते भी उसे देखने और मिलने के लिए अनपेक्षित तौर पर हमारे यहाँ जमा हो गई | मजाज़ की शायरी में जो नर्म रूमानी तत्व है, उसने मजाज़ को औरतो के हलके में हमेशा हद से ज्यादा लोकप्रिय और हरदिल अज़ीज़ रखा है | वो खुद को अगर शायरे-महफ़िल व बज्मे-दिलबरा कहता था, तो उसका ये दावा गलत न था |
उसी शाम कालेज में मुशायरा था | मै उसमे भी न जा सका | मेरे अज़ीज़ दोस्त और हिंदी के मशहूर कवि शिवमंगल सिंह 'सुमन', जो उस वक्त कालेज में मेरे साथी प्रोफेसरों में थे, मजाज़ को अपने साथ कालेज ले गए | मुशायरा कामयाब रहा | दूसरे रोज कवि सम्मेलन था | वहा ऐसी महफ़िल जमी की तक़रीबन साढ़े दस बज गए | जब मजाज़ और सुमन कालेज पहुचे, लड़के बतौर प्रतिरोध कवि सम्मेलन के बायकाट पर उतर आए | सुमन ने हर मुमकिन समझाने की कोशिश की, लेकिन छात्र बेकाबू हो चुके थे | आखिरकार मजाज़ ने जाती तौर पर माफ़ी तलब की और देरी के इल्जाम को अपने सर ले लिया | उसने कहा, 'आप बेशक मुझे न सुनिएगा, जिसकी वजह से आपको यह तकलीफ उठानी पढ़ी, यह फंक्शन आपका है, आप खुद इसका बायकाट कैसे कर सकते है?'
मजाज़ के इस शिष्टाचार ने बिजली का सा असर किया और साथ ही 'आवारा, आवारा' के तकाजो से हाल गूंजने लगा | एक मिनट ना गुजरा था कि मजाज़ अपने तरन्नुम मगर टूटे हुए लहजे में अपने टूटे हुए दिल की बात कह रहा था,
ए गमे दिल क्या करू, ए वहशते-दिल क्या करू
आगे का हाल यहाँ....