अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाए
अज़ीज़ इतना ही रक्खो कि जी सँभल जाएअब इस क़दर भी न चाहो कि दम निकल जाए
मिले हैं यूँ तो बहुत आओ अब मिलें यूँ भी
कि रूह गर्मी-ए-अनफ़ास से पिघल जाए
मोहब्बतों में अजब है दिलों को धड़का सा
कि जाने कौन कहाँ रास्ता बदल जाए
ज़हे वो दिल जो तमन्ना-ए-ताज़ा-तर में रहे
ख़ोशा वो उम्र जो ख़्वाबों ही में बहल जाए
मैं वो चराग़ सर-ए-रहगुज़ार-ए-दुनिया हूँ
जो अपनी ज़ात की तन्हाइयों में जल जाए
हर एक लहज़ा यही आरज़ू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शेर में भी ढल जाए - उबैदुल्लाह अलीम
aziz itna hi rakkho ki ji sambhal jae
aziz itna hi rakkho ki ji sambhal jaeab is qadar bhi na chaho ki dam nikal jae
mile hain yun to bahut aao ab milen yun bhi
ki ruh garmi-e-anfas se pighal jae
mohabbaton mein ajab hai dilon ko dhadka sa
ki jaane kaun kahan rasta badal jae
zahe wo dil jo tamanna-e-taza-tar mein rahe
khosha wo umr jo khwabon hi mein bahal jae
main wo charagh sar-e-rahguzar-e-duniya hun
jo apni zat ki tanhaiyon mein jal jae
har ek lahza yahi aarzu yahi hasrat
jo aag dil mein hai wo sher mein bhi dhal jae - Obaidullah Aleem
आप ने लिखा.....
हमने पड़ा.....
इसे सभी पड़े......
इस लिये आप की रचना......
दिनांक 21/05/2023 को
पांच लिंकों का आनंद
पर लिंक की जा रही है.....
इस प्रस्तुति में.....
आप भी सादर आमंत्रित है......
वाह ! वाह !
हर एक लहज़ा यही आरज़ू यही हसरत
जो आग दिल में है वो शेर में भी ढल जाए
शेर जब ग़ज़ल पर छा जाए !