बस गया हो ज़हन में जैसे कोई डर आजकल - कृष्ण कुमार नाज़

बस गया हो ज़हन में जैसे कोई डर आजकल सब इकट्ठा कर रहे हैं छत पे पत्थर आजकल

बस गया हो ज़हन में जैसे कोई डर आजकल

बस गया हो ज़हन में जैसे कोई डर आजकल
सब इकट्ठा कर रहे हैं छत पे पत्थर आजकल

शहरभर की नालियाँ गिरती हैं जिस तालाब में
वो समझने लग गया खु़द को समंदर आजकल

फ़ाइलों का ढेर, वेतन में इज़ाफ़ा कुछ नहीं
हाँ, अगर बढ़ता है तो चश्मे का नंबर आजकल

कतरनें अख़बार की पढ़कर चले जाते हैं लोग
शायरी करने लगे मंचों पे हाकर आजकल

उग रही हैं सिर्फ़ नफ़रत की कटीली झाड़ियाँ
भाईचारे की ज़मीं कितनी है बंजर आजकल

‘नाज़’ मुझको हैं अँधेरे इसलिए बेहद अज़ीज़
अपनी परछाईं से लगता है बहुत डर आजकल - कृष्ण कुमार नाज़


Bas gaya ho zehan men jaise koi dar aajkal

Bas gaya ho zehan men jaise koi dar aajkal
sab ikatthaa kar rahe hain chhat pe patthar aajkal

shaharbhar ki naliyaN girati hain jis taalaab meiN
wo samajhane lag gayaa khud ko samandar aajkal

faailo ka dher, vetan men izafa kuchh nahiN
haan, agar badhta hai to chashme kaa numbar aajkal

kataraneN akhabaar ki padhkar chale jaate hain log
shayari karane lage manchoN pe haakar aajkal

ug rahee hain sirf nafarat ki katili jhaadiyaN
bhaichare ki zameen kitani hai banzar aajkal

‘Naaz’ mujhako haiN andhere isliye behad azeez
apani parachhaai se lagata hai bahut dar aajkal - Krishna Kumar Naaz

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