ननिहाल बब्बू का - डाक्टर संदीप नारद तीन भाईयो और चार बहनों में सबसे छोटी थी बब्बू की अम्मा, इतनी छोटी कि जब उसका जन्म हुआ तब तक उसकी बड़ी बहन के दो बच
ननिहाल बब्बू का
तीन भाईयो और चार बहनों में सबसे छोटी थी बब्बू की अम्मा, इतनी छोटी कि जब उसका जन्म हुआ तब तक उसकी बड़ी बहन के दो बच्चे हो चुके थे। मां बाप ने नाम भी रखा छोटी बाई।
पता नही , मां बाप की लाडली थी या नहीं लेकिन भाईयों से कभी प्यार न पा सकी। सभी भाई बहनों के बाद जमालपुर के एक आयकर निरीक्षक के साथ विवाह हुआ था उसका और पति ने प्यार से नाम रखा "रजनी"।
शादी के चार साल में दो बच्चों की मां बन गई रजनी, अब अपनी खुद की मां के प्यार से वंचित हो गई और मां के जाने के बाद क्या मायका, लेकिन मंझली भाभी के प्यार के कारण उसका मायका जाना बना रहा। दोनो बड़े भाईयों को अपनी कपड़ो की दुकान के अलावा कुछ नहीं सूझता था। सबसे छोटा लेकिन रजनी से बड़ा भाई नेमचंद अपनी सरकारी नौकरी और पत्नी व बच्चों के साथ मस्त था, व्यस्त था। वह और उसका परिवार सिर्फ गर्मियों की छुट्टी में घर आया करता था, अपनी खेती का पैसा लेने और साल भर का गेंहू लेने। सिर्फ इतना ही वास्ता था उसका अपने घर से।
इस भरे पूरे घर के मुखिया याने दादूदयाल ने भी अपने एक दामाद की असामायिक मृत्यु के बाद आंखे मूंद ली और घर के सारे सूत्र बड़े बेटे के हांथ में आ गए। सबसे पहले तो उसने चारों बहनों से कोरे कागजों पर उनके दस्तखत लिये और यहां से सिलसिला शुरू हुआ बहनों के बहिष्कार का, बहनों को बेइज्जत करने का।
भोली भाली चारों बहने, भतीजे भतीजियो की मोह-माया के चलते मायके का रूख किया करती थी। अचानक सबसे छोटी बहन का बीमारी के चलते देहांत हो गया। " रजनी " के चारो बच्चे एकाएक मातृहीन हो गए । तेरहवी पर रजनी के ससुराल पक्ष के साथ-साथ मायके से पिता तुल्य बड़े भाई सिर्फ मुंह दिखाने के लिए आये और तेरहवी के खाने की बैठक में सबसे पहले बैठे और बैठते ही खाना परोसने वाले से बोले कि भाई , पुडी गरम गरम ही लाना, तब रजनी के बच्चो को लगा कि उनके पापा ,जो मम्मी के जाने से एकदम अकेले हो गए हैं, अपनी ससुराल क्यों नही जाते थे।
काफी दिनो से बब्बू सोच रहा था कि उसके पिता बब्बू की ससुराल तो पचासो बार हो आये होंगे लेकिन मेरे ननिहाल यानी अपनी ससुराल तो गिनती से सात आठ बार ही गये होंगे। यह सवाल उसे बार बार तंग कर रहा था लेकिन वह इसके बारे में पूंछे तो किससे। मां का देहांत हुये काफी समय हो गया था।
ननिहाल में मामा मामी, मौसी मौसिया सभी स्वर्ग सिधार चुके थे लेकिन अनायास ही एक कार्यक्रम में पापा के मामा जी से मुलाकात हो गई जो बब्बू की ननिहाल से दो मकान पहले रहते थे और बब्बू के पापा की शादी में शामिल भी हुए थे , बब्बू उत्सुकतावश उनसे पूंछ ही बैठा कि हमारे पापा जी अपनी ससुराल कम क्यों जाते थे, तब उन्होने बताया कि बेटा, दूल्हा एक दिन का राजा होता है, तुम्हारे पापा की शादी में उनके ससुराल वालो ने दूल्हे के लिए काले रंग की घोड़ी मंगाई थी और उसकी बैठक में कोई चादर या बिछायत नही थी, खैर जैसे तैसे तुम्हारे पापा उसी काली घोड़ी पर बैठकर अपनी बारात लेकर अपनी ससुराल पहुंचे लेकिन जैसे ही द्वार पर पहुंचे एक दम से मूसलाधार बरसात शुरू हो गई और तुम्हारे नाना, मामा किसी ने इतनी सौजन्यता नही दिखाई कि वह होने वाले दामाद के सिर पर छतरी लगा दे, बस वह दिन और आज का दिन, तुम्हारे पापा का मन ससुराल से जो उचटा कि वह अपनी ससुराल कम ही गये। बब्बू की जिज्ञासा का समाधान हो गया।
अभी चार महिने ही नही बीते थे बब्बू की अम्मा को देहत्याग किये कि बब्बू की छोटी और इकलौती बहन गुड्डी की एक वाहन दुर्घटना में मृत्यु हो गई। मां की मौत से अभी उबर भी नही पाये थे और इस दर्दनाक हादसे ने पूरे परिवार की खुशिया छीन ली थी। इस महाशोक में न जाने क्यों बब्बू के बड़े और मंझले मामा नही आए लेकिन छोटे मामा मामी जरूर शामिल हुए। दोनो के निधन के बाद पहला दुख का त्योहार होली का आया और उम्मीद के विपरीत इस बार सिर्फ छोटी मामी ही आयी। सब चकित थे, छोटी मामी के आने से। त्योहार निपटा कर अधिकतर रिश्तेदार अपने अपने घर वापस चले गए थे लेकिन मामी जी आखिर तक रूकी रही।
घर पर थे भी तीनो भाई, पापा और बुजुर्ग दादी। सब एक दूसरे को हैरत भरी आंखो से एक दूसरे को देख ही रहे थे कि मामी जी बोल पडी " बब्बू, तुमसे एक बात कहना थी, बब्बू ने बोला, कहिये, मामी जी। मामी बड़े दुखी होकर बोली, बेटा , जब हम गुड्डी की तेरहवी में आये थे,तब हमारी चप्पल गुम गयी थी, मिली थी क्या। पापा ने तुरंत मामी को बब्ब् के साथ बाजार भेजा और कहा कि इन्हे चप्पल दिलाकर रेलवे-स्टेशन छोड़कर आ जाना। धीरे धीरे मामा जी के यहां सबका जाना बिल्कुल कम होता गया लेकिन तीनो मामा और दो मामियो के देहांत और उस के बाद के सभी कार्यक्रम में बब्बू के पापा गए जरूर।
पता नही , मां बाप की लाडली थी या नहीं लेकिन भाईयों से कभी प्यार न पा सकी। सभी भाई बहनों के बाद जमालपुर के एक आयकर निरीक्षक के साथ विवाह हुआ था उसका और पति ने प्यार से नाम रखा "रजनी"।
शादी के चार साल में दो बच्चों की मां बन गई रजनी, अब अपनी खुद की मां के प्यार से वंचित हो गई और मां के जाने के बाद क्या मायका, लेकिन मंझली भाभी के प्यार के कारण उसका मायका जाना बना रहा। दोनो बड़े भाईयों को अपनी कपड़ो की दुकान के अलावा कुछ नहीं सूझता था। सबसे छोटा लेकिन रजनी से बड़ा भाई नेमचंद अपनी सरकारी नौकरी और पत्नी व बच्चों के साथ मस्त था, व्यस्त था। वह और उसका परिवार सिर्फ गर्मियों की छुट्टी में घर आया करता था, अपनी खेती का पैसा लेने और साल भर का गेंहू लेने। सिर्फ इतना ही वास्ता था उसका अपने घर से।
इस भरे पूरे घर के मुखिया याने दादूदयाल ने भी अपने एक दामाद की असामायिक मृत्यु के बाद आंखे मूंद ली और घर के सारे सूत्र बड़े बेटे के हांथ में आ गए। सबसे पहले तो उसने चारों बहनों से कोरे कागजों पर उनके दस्तखत लिये और यहां से सिलसिला शुरू हुआ बहनों के बहिष्कार का, बहनों को बेइज्जत करने का।
भोली भाली चारों बहने, भतीजे भतीजियो की मोह-माया के चलते मायके का रूख किया करती थी। अचानक सबसे छोटी बहन का बीमारी के चलते देहांत हो गया। " रजनी " के चारो बच्चे एकाएक मातृहीन हो गए । तेरहवी पर रजनी के ससुराल पक्ष के साथ-साथ मायके से पिता तुल्य बड़े भाई सिर्फ मुंह दिखाने के लिए आये और तेरहवी के खाने की बैठक में सबसे पहले बैठे और बैठते ही खाना परोसने वाले से बोले कि भाई , पुडी गरम गरम ही लाना, तब रजनी के बच्चो को लगा कि उनके पापा ,जो मम्मी के जाने से एकदम अकेले हो गए हैं, अपनी ससुराल क्यों नही जाते थे।
काफी दिनो से बब्बू सोच रहा था कि उसके पिता बब्बू की ससुराल तो पचासो बार हो आये होंगे लेकिन मेरे ननिहाल यानी अपनी ससुराल तो गिनती से सात आठ बार ही गये होंगे। यह सवाल उसे बार बार तंग कर रहा था लेकिन वह इसके बारे में पूंछे तो किससे। मां का देहांत हुये काफी समय हो गया था।
ननिहाल में मामा मामी, मौसी मौसिया सभी स्वर्ग सिधार चुके थे लेकिन अनायास ही एक कार्यक्रम में पापा के मामा जी से मुलाकात हो गई जो बब्बू की ननिहाल से दो मकान पहले रहते थे और बब्बू के पापा की शादी में शामिल भी हुए थे , बब्बू उत्सुकतावश उनसे पूंछ ही बैठा कि हमारे पापा जी अपनी ससुराल कम क्यों जाते थे, तब उन्होने बताया कि बेटा, दूल्हा एक दिन का राजा होता है, तुम्हारे पापा की शादी में उनके ससुराल वालो ने दूल्हे के लिए काले रंग की घोड़ी मंगाई थी और उसकी बैठक में कोई चादर या बिछायत नही थी, खैर जैसे तैसे तुम्हारे पापा उसी काली घोड़ी पर बैठकर अपनी बारात लेकर अपनी ससुराल पहुंचे लेकिन जैसे ही द्वार पर पहुंचे एक दम से मूसलाधार बरसात शुरू हो गई और तुम्हारे नाना, मामा किसी ने इतनी सौजन्यता नही दिखाई कि वह होने वाले दामाद के सिर पर छतरी लगा दे, बस वह दिन और आज का दिन, तुम्हारे पापा का मन ससुराल से जो उचटा कि वह अपनी ससुराल कम ही गये। बब्बू की जिज्ञासा का समाधान हो गया।
अभी चार महिने ही नही बीते थे बब्बू की अम्मा को देहत्याग किये कि बब्बू की छोटी और इकलौती बहन गुड्डी की एक वाहन दुर्घटना में मृत्यु हो गई। मां की मौत से अभी उबर भी नही पाये थे और इस दर्दनाक हादसे ने पूरे परिवार की खुशिया छीन ली थी। इस महाशोक में न जाने क्यों बब्बू के बड़े और मंझले मामा नही आए लेकिन छोटे मामा मामी जरूर शामिल हुए। दोनो के निधन के बाद पहला दुख का त्योहार होली का आया और उम्मीद के विपरीत इस बार सिर्फ छोटी मामी ही आयी। सब चकित थे, छोटी मामी के आने से। त्योहार निपटा कर अधिकतर रिश्तेदार अपने अपने घर वापस चले गए थे लेकिन मामी जी आखिर तक रूकी रही।
घर पर थे भी तीनो भाई, पापा और बुजुर्ग दादी। सब एक दूसरे को हैरत भरी आंखो से एक दूसरे को देख ही रहे थे कि मामी जी बोल पडी " बब्बू, तुमसे एक बात कहना थी, बब्बू ने बोला, कहिये, मामी जी। मामी बड़े दुखी होकर बोली, बेटा , जब हम गुड्डी की तेरहवी में आये थे,तब हमारी चप्पल गुम गयी थी, मिली थी क्या। पापा ने तुरंत मामी को बब्ब् के साथ बाजार भेजा और कहा कि इन्हे चप्पल दिलाकर रेलवे-स्टेशन छोड़कर आ जाना। धीरे धीरे मामा जी के यहां सबका जाना बिल्कुल कम होता गया लेकिन तीनो मामा और दो मामियो के देहांत और उस के बाद के सभी कार्यक्रम में बब्बू के पापा गए जरूर।
डाक्टर संदीप नारद
260 AA, तुलसी नगर
इंदौर
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