जिनके ज़ुल्मों को हम सह गए
जिनके ज़ुल्मों को हम सह गएवो हमें बेवफ़ा कह गए।
ख़्वाब वो मिलके देखे हुए
आंसुओं में सभी बह गए।
तुम न आये नज़र दूर तक
राह हम देखते रह गए।
रो पड़ा गांव में जा के मैं
मेरे पुश्तैनी घर ढह गए।
जिंदगी के हर इक मोड़ पर
ज़ख़्म जलते हुए रह गए।
'मुंतज़िर' ढाल कर शेर में
अपनी बातों को क्यों कह गए। - ममोहित नेगी मुंतज़िर
jinke zulmo ko ham sah gaye
jinke zulmo ko ham sah gayewpo hame bewafa kaha gaye
khwab wo milke dekhe hue
aansuo me sabhi bah gaye
tum n aaye nazar door tak
raah ham dekhte rah gaye
ro pada gaanv me ja ke mai
mere pushteni ghar dhah gaye
zindgi ke har ek mod par
zakhm jalte hue rah gaye
'Muntzir' dhal kar sher me
apni baato ko kyo kah gaye - Mohit Negi 'Muntazir'