ऐ रौशनियों के शहर
सब्ज़ा सब्ज़ा सूख रही है, फीकी ज़र्द दोपहरदीवारों को चाट रहा है, तन्हाई का ज़हर
दूर उफ़क़ तक घटती बढ़ती, उठती गिरती रहती है
कुहर की सूरत बे-रौनक़, दर्दों की गदल लहर
बस्ता है इस कुहर के पीछे, रौशनियों का शहर
ऐ रौशनियों के शहर, ऐ रौशनियों के शहर
कौन कहे किस सम्त है तेरी, रौशनियों की राह
हर जानिब बे-नूर खड़ी है, हिज्र की शहर-पनाह
थक कर हर सू बैठ रही है, शौक़ की मांद सिपाह
आज मिरा दिल फ़िक्र में है, ऐ रौशनियों के शहर
शब-ख़ूँ से मुँह फेर न जाए, अरमानों की रौ
ख़ैर हो तेरी लैलाओं की, इन सब से कह दो
आज की शब जब दिए जलाएँ, ऊँची रक्खें लौ - फैज़ अहमद फैज़
मायने
सूरत = तरह, हिज्र = बिछोह, सम्त = तरफ, जानिब = हर तरफ, शहर-पनाह = फ़सील /नगरकोट, शब-ख़ूँ = रात जी हमला करना, सब्ज़ा = हरी घास, ज़र्द = पीली
मोंटगोमेरी जेल में लिखी गयी ( 28 मार्च से 14 अप्रेल 1954 )
ae roushniyon ke shahar
sabza sabza sukh rahi hai, fiki zard doupahardeewaro ko chaat raha hai, tanhai ka zahar
door ufaq tak ghatti badhti, uthti girti rahti hai
kuhar ki surat be-rounak, dardo ki gadal lahar
basta hai is kuhar ke pichhe, roushniyon ka shahar
ae roushniyon ke shahar
koun kahe kis samt hai teri, roushniyoN ki raah
har zanib be-noor khadi hai, hizr ki shahar-panah
thak kar har su baith rahi hai, shauk ki maand sipaah
aaj mira dil fiqr me hai, ae roushniyon ke shahar
shab-khuN se muhn pher n jaye, armano ki rou
khair ho teri lailao ki, in sab se kah do
aaj ki shab jab diye jalaye, uchi rakkhe lau - Faiz Ahmad Faiz