दाऊद अख़्तर काबरी - किताबों में अटकी हुई हर सांस
उम्र लगभग पचासी साल | आँखें बिल्कुल धंसी हुई | पूरे हाथों में कंपकंपी | लोगों से मिलते हुए मुहब्बत का सैलाब | आंखों में मद्धिम सी रौशनी | हर एक सांस लेने में तकलीफ | आह और कराह, लेकिन दवाई से ज़्यादा किताबें चारों तरफ़ बिखरी हुई |
किताबों के प्रति ये दीवानगी लगभग गुमनाम हो चुके उर्दू के लेखक और आलोचक दाऊद अख्तर काबरी (Dawood Akhtar Kabri) की है | बुद्ध की धरती गया का एक पुराना मुहल्ला करीम गंज है | करीम गंज के पास एक कब्रिस्तान है जो कब्रिस्तान भी किसी पार्क से कम नहीं है, वहीं पर एक छोटा सा मकान है जिसमें मोटे हुरुफ़ में सरीर मंज़िल लिखा हुआ है, वहीं एक छोटे से कमरे में दाऊद अख़्तर काबरी रहते हैं | असल में सरीर मंज़िल अल्लामा सरीर काबरी का घर है, जो उनके पिता हैं | सरीर काबरी उर्दू अदब का वो नाम है जिनपर साहित्य अकादेमी दिल्ली, और उर्दू अकादेमी पटना ने भी अपनी आलोचनात्मक किताबें लिखी | सरीर काबरी पर उनके बेटे सय्यद दाऊद अख्तर काबरी की किताबें भी मौजूद है |
फिर जाने हम मिलें न मिलें इक ज़रा रुको
मैं दिल के आईने में ये मंज़र समेट लूँ - अजमल अजमली
जिया उर रहमान जाफरी
किताबों के प्रति ये दीवानगी लगभग गुमनाम हो चुके उर्दू के लेखक और आलोचक दाऊद अख्तर काबरी (Dawood Akhtar Kabri) की है | बुद्ध की धरती गया का एक पुराना मुहल्ला करीम गंज है | करीम गंज के पास एक कब्रिस्तान है जो कब्रिस्तान भी किसी पार्क से कम नहीं है, वहीं पर एक छोटा सा मकान है जिसमें मोटे हुरुफ़ में सरीर मंज़िल लिखा हुआ है, वहीं एक छोटे से कमरे में दाऊद अख़्तर काबरी रहते हैं | असल में सरीर मंज़िल अल्लामा सरीर काबरी का घर है, जो उनके पिता हैं | सरीर काबरी उर्दू अदब का वो नाम है जिनपर साहित्य अकादेमी दिल्ली, और उर्दू अकादेमी पटना ने भी अपनी आलोचनात्मक किताबें लिखी | सरीर काबरी पर उनके बेटे सय्यद दाऊद अख्तर काबरी की किताबें भी मौजूद है |
उम्र लगभग पचासी साल | आँखें बिल्कुल धंसी हुई | पूरे हाथों में कंपकंपी | लोगों से मिलते हुए मुहब्बत का सैलाब | आंखों में मद्धिम सी रौशनी | हर एक सांस लेने में तकलीफ | आह और कराह, लेकिन दवाई से ज़्यादा किताबें चारों तरफ़ बिखरी हुई |उम्र के इस पड़ाव पर भी दाऊद अख्तर काबरी चलते फिरते लाइब्रेरी की तरह हैं | कल क्या था और आज उर्दू में क्या लिखा जा रहा है उनसे बेहतर समीक्षा वो भी इस उम्र में और कोई नहीं कर सकता | आंखों से नींद गायब है | बच्चे कुछ देश कुछ विदेश में है लेकिन किताबों का बड़ा सहारा है | वो हर वक़्त पढ़ रहे हैं | आंखों से पानी आ जा रहा है, लेकिन ज़िद और जुनून है कि किताबें नहीं छुट रही | नमाज़ की भी ऐसी पावंदी कि हड्डी तोड़ देने वाले इस ठंडक में भी तहज्जुद नहीं छुट रहा | थोड़े वक़्त की मुलाक़ात में ही उनका अध्ययन समाज और देश के प्रति उनकी सोच और लफ़्ज़ -लफ़्ज़ से बेपनाह मुहब्बत किसी को भी आकर्षित कर सकता था | जब उनसे बिदा होने का वक़्त आया तो उन्होंने मुसाफ़े के लिए भींगे आंखों से हाथ तो बढ़ा दिया, लेकिन ज़ुबान शायद ये कह रही थीं...
फिर जाने हम मिलें न मिलें इक ज़रा रुको
मैं दिल के आईने में ये मंज़र समेट लूँ - अजमल अजमली
जिया उर रहमान जाफरी