कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा है
कभी जमूद कभी सिर्फ़ इंतिशार सा हैजहाँ को अपनी तबाही का इंतज़ार सा है
मनु की मछली, न कश्ती-ए-नूह और ये फ़जा
कि क़तरे-क़तरे में तूफ़ान बेक़रार सा है
मैं किसको अपने गरेबाँ का चाक दिखलाऊँ
कि आज दामने-यज़्दाँ भी तार-तार सा है
सजा-सँवार के जिसको हज़ार नाज़ किए
उसी पे ख़ालिके-कोनैन शर्मसार सा है
तमाम जिस्म है बेदार, फ़िक्र ख़ाबीदा
दिमाग़ पिछले ज़माने की यादगार सा है
सब अपने पाँव पे रख-रखके पाँव चलते हैं
ख़ुद अपने दोश पे हर आदमी सवार सा है
जिसे पुकारिए मिलता है इक खंडहर-से जवाब
जिसे भी देखिए माज़ी का इश्तहार सा है
हुई तो कैसे बियाबाँ में आके शाम हुई
कि जो मज़ार यहाँ है मेरा मज़ार सा है
कोई तो सूद चुकाए, कोई तो ज़िम्मा ले
उस इंकलाब का, जो आज तक उधार सा है - कैफी आज़मी
मायने
जमूद = गतिरोध/ रोड़ा, इंतिशार= अस्त-व्यस्त, कश्ती-ए-नूह = नोआ की नाव, दामने-यज़्दाँ = खुदा का दामन, ख़ालिके-कोनैन = दुनिया का निर्माण करने वाला, बेदार= जगा हुआ, खाबिदा = सोई हुई, दोश = कंधा, माज़ी = बीता हुआ कल, बियाबाँ = सघन वन/ जंगल
kabhi jamud kabhi sirf intshar sa hai
kabhi jamud kabhi sirf intshar sa haijahaan ko apni tabaahi ka intzar sa hai
manu ki machhli, n kashti-e-nooh aur faza
ki qatre-qatre me toofaan beqarar sa hai
mai kisko apne garebaan ka chaak dikhlau
ki aaj daaman-e-yazda bhi taar-taar sa hai
saja-sawaar ke jisko hajaar naaz kiye
usi pe khaliq-e-kounen sharmsaar sa hai
tamam zism hai bedaar, fiqra khabida
dimaag pichhle zamane ki yaadgaar sa hai
sab apne paanv pe rakh-rakhke paanv chalte hai
khud apne dosh pe har aadmi sawaar sa hai
jise pukariye milta hai ek khandhar se jawab
jise bhi dekhye maazi ka ishthaar sa hai
hui to kaise biyaabaan me aake shaam hui
ki jo mazaar yaha jai mera mazaar sa hai
koi to sud chukaye, koi to jimma le
us inqlaab ka, jo aaj tak udhaar sa hai - Kaifi Azmi
nice article
हमेशा की तरह बहुत ही अच्छी Kavita. Share करने के लिए धन्यवाद। :)