बहादुर शाह ज़फर जीवन परिचय
बहादुर शाह ज़फर का जन्म 24 अक्टूम्बर 1775 में हुआ था आपके पिता अकबर शाह द्वितीय और माँ लीलाबाई थी | आपके पिता की मृत्यु के बाद 18 सितंबर, 1837 में मुग़ल बादशाह बनाया गया | जीते जी अकबर द्वितीय ज़फर को अपनी सल्तनत नहीं देना चाहते थे क्योकि ज़फर दिल से शायर थे |
यह ज़फर की उदारता ही कहेंगे कि उनके दरबार में शेख इब्राहीम जौक और मिर्ज़ा ग़ालिब दोनों थे उन्होंने ग़ालिब, जौक, दाग़ और मोमिन जैसे बड़े शायरों को भी प्रोत्साहन दिया |
बहादुरशाह ज़फर स्वयं एक अच्छे शायर थे । उनके दो दरबारी शायरों मिर्जा गालिब और जौक में शायरी को लेकर तमाम असहमतियां थीं। जौक की शायरी का लहजा सरल था जबकि गालिब एक जटिल शायर थे।
जौक एक सामान्य पैदल सिपाही के पुत्र थे, जिन्हें ज़फर ने लाल किले के बगीचों का मानद इंचार्ज बना दिया था। जबकि गालिब एक आभिजात्य पृष्ठभूमि से थे। ज़फर ने उन्हें अपना उस्ताद मान लिया था। जौक एक सामान्य जीवन यापन करने वाले अहर्निशि शायरी को समर्पित व्यक्ति थे वहीं गालिब को अपनी कुछ चारित्रिक कमजोरियों पर विशेष गर्व था।
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जवां बख्त के विवाह (1852) से पांच वर्ष पहले गालिब को जुआं खेलने के अपराध में जेल में डाल दिया गया था, लेकिन इसे उन्होंने अपना अपमान नहीं माना था। एक बार जब किसी ने उनकी उपस्थिति में शेख साहबाई की शायरी की प्रशंसा की,
गालिब चीख उठे, ”साहबाई ने शराब चखी नहीं , न ही उसने जुआ खेला , प्रेमिकाओं द्वारा चप्पलों से वह पीटा नहीं गया, और न ही वह एक बार भी जेल गया ….. फिर वह शायर केैसे हो गया ?”
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ज़फर जौक की प्रतिभा के मुरीद थे। एक बार उन्होंने अपनी कुछ पंक्तियां जौक को दीं, जिनकी कमियों को जौक ने अविलंब संशोधित कर दिया। ज़फर इससे इतना प्रसन्न हुए कि उन्होंने उन्हें खिलअत भेंट की और उन्हें ‘महल के बगीचों का मानद सुपरिटेण्डेण्ट पद प्रदान किया।
ज़फर शौकिया शायर नहीं थे। उनका दिल शायरी में बसता था। उन्होंने ढेरों ग़ज़लें रची थीं। इन ग़ज़लों में मानव जीवन की कुछ गहरी सच्चाइयां और भावनाओं की दुनिया बसी थी। वे एक उम्दा शायर थे।
राजनीतिक स्तर पर भले ही दिल्ली का पतन हो रहा था, लेकिन साहित्यिक, सांस्कृतिक, आध्यात्मिक और शैक्षिक स्तर पर दिल्ली के स्तर का कोई शहर उस समय तक हिन्दुस्तान में नहीं था। दिल्ली वालों को अपने शहर और अपनी गली-कूचों पर गर्व था। जौक को आखिर कहना पड़ा था, ”कौन जाए जौक पर दिल्ली की गलियां छोड़कर।”
उर्दू का जन्म दिल्ली में हुआ जिसकी सुन्दरता और लालित्य मनमोहक थी। मौलवी अब्दुल हक का कहना था, "जो व्यक्ति दिल्ली में नहीं रहता वह उर्दू का गुणग्राहक नहीं हो सकता।"
जेम्स बेली फ्रेजर का कथन है, "दिल्ली जैसा कोई शहर नहीं था। दिल्ली के प्रत्येक घर में शायरी की चर्चा होती थी और बादशाह स्वयं एक अच्छे शायर थे।"
ज़फर सहित दिल्ली के लगभग सभी शायरों में शायरी के प्रति दीवानगी थी। बादशाह प्राय: महल में मुशायरों का आयोजन करते थे। शायरों, दरबारियों, महिलाओं और आमजन के बैठने के लिए विशेष व्यवस्था की जाती थी। सुबह चार बजे तक मुशायरा होता रहता था।
इतिहासकारों के अनुसार जिस समय सिविल लाइन्स क्षेत्र में अंग्रेज फौजी घुड़सवारी और परेड के लिए तैयार हो रहे होते उस समय किले में मुशायरे का दौर समाप्त कर अलसाए लोग अपने घरों को लौट रहे होते थे। ये सभी दिन के ग्यारह-बारह बजे तक घोड़े बेचकर सोते थे। यह स्थिति अंग्रेजों के लिए अनुकूल थी।
जब दिल्ली सोती वे जागकर दिल्ली पर अपना पूर्ण आधिपत्य स्थापित करने की योजना पर कार्य करते और अनुशासन का कट्टरता से पालन करते हुए वे रात दस बजे बिस्तरों पर चले जाते, जबकि यही समय दिल्ली के शायरों के बादशाह के महल में एकत्र होने का होता था।
जब सन 1857 में ब्रिटिशो ने लगभग सम्पूर्ण भारत पर कब्ज़ा कर लिया था तो ज़फर ने अंग्रेजो के खिलाफ लड़ाई का नेतृत्व किया और शुरुवाती परिणाम भी पक्ष में रहे पर अंग्रेजो के छल कपट के आगे यह लड़ाई उनके पक्ष में चली गई | और बादशाह ज़फर ने हुमायूँ के मकबरे में शरण ली लेकिन मेजर हडस ने चाल से उनके बेटे मिर्ज़ा मुग़ल और खिजर सुल्तान और पोते अबू बकर को पकड़ लिया |
अंग्रेजों ने जुल्म की सभी हदें पार कर दीं। जब बहादुर शाह जफर को भूख लगी तो अंग्रेज उनके सामने थाली में परोसकर उनके बेटों के सिर ले आए। उन्होंने अंग्रेजों को जवाब दिया कि हिंदुस्तान के बेटे देश के लिए सिर कुर्बान कर अपने बाप के पास इसी अंदाज में आया करते हैं। आजादी के लिए हुई बगावत को पूरी तरह खत्म करने के मकसद से अंग्रेजों ने अंतिम मुगल बादशाह को देश से निर्वासित कर रंगून भेज दिया।
देश के बाहर भी ज़फर की शायरी ने अपना रंग नहीं छोड़ा और उसमे वतन से मोहब्बत का रंग |
लगता नहीं है दिल मेरा उजड़े दयार में
किसकी बनी है आलम-ए-ना-पाएदार में
कह दो न इन हसरतो से कही और जा बसे
इतनी जगह कहा है दिन –ए-दागदार में
यहाँ ग़ज़ल इस बात का साबित करती नज़र आती है |
बहादुर शाह ज़फर की मौत 87 वर्ष की उम्र में 7 नवम्बर 1862 में बर्मा में रंगून (यंगून ) की जेल में हुई | ज़फर अपने अंतिम वक्त में चाहते थे कि उनकी मौत हिन्दुस्तान में हो | उसी दिन आपको जेल के पास दफना दिया गया |
बहादुर शाह ज़फर अपने अंतिम दिनों में
परन्तु इस तरह गुपचुप तरीके से दफ़नाने के कारण यह कब्र करीब 132 साल तक किसी की नज़र में नही आई पर 1991 में जब एक स्मारक कक्ष की आधारशिला रखने के लिए खुदाई की गयी तब एक भूमिगत कब्र ( 3.5 फुट की गहराई में ) का पता चला और उनकी निशानियो और अवशेषों की जाँच के बाद यह पुष्टि हुई कि यह कब्र बहादुर शाह ज़फर की ही है | आपकी कब्र के पास पत्नी जीनत महल और बेटी रौनक जमानी बेगम की कब्र है |
नोट: लेख के कुछ अंश वातायन ब्लॉग से लिए गए है |
Nice super interesting