हर कदम नित नए सांचे में ढल जाते है लोग
हर कदम नित नए सांचे में ढल जाते है लोगदेखते ही देखते, कितने बदल जाते है लोग
किसलिए कीजे किसी गुमगश्ता जन्नत की तलाश
जबकि मिटटी के खिलोने से बहल जाते है लोग
कितने सादादिल है सुनके अब भी आवाजे-ज़रस
पशोपेस से बेखबर, घर से निकल जाते है लोग
अपने साए-साए सर न्योढाए, आहिस्ता-खुराम
जाने किस मंजिल की जानिब आजकल जाते है लोग
शमा की मानिंद अहले-अंजुमन से बेनियाज़
अक्सर अपनी आग में चुपचाप जल जाते है लोग
शायर उनकी दोस्ती का अब भी दम भरते है आप
ठोकरे खाकर तो सुनते है संभल जाते है लोग - हिमायत अली शायर
har kadam nit naye saanche me dhal jate hai log
har kadam nit naye saanche me dhal jate hai logdekhte hi dekhte, kitne badal jate hai log
kisliye kije kisi gumgasta jannat ki talash
jabki mitti ke khilone se bahal jate hai log
kitne sadadil hai sunke ab bhi aawaje-zaras
pashopes se bekhabar, ghar se nikal jate hai log
apne saye-saye sar nyodhaye, ahista-khuram
jane kis manjil ki janib aajkal jate hai log
shama ki manind ahle-anjuman se beniyaz
aksar apni aag me chupchap jal jate hai log
shayar apni dosti ka ab bhi dam bharte hai aap
thokre khakar to sunte hai sambhal jate hai log- Himayat Ali Shayar
सुंदर प्रस्तुति...
दिनांक 6/10/2014 की नयी पुरानी हलचल पर आप की रचना भी लिंक की गयी है...
हलचल में आप भी सादर आमंत्रित है...
हलचल में शामिल की गयी सभी रचनाओं पर अपनी प्रतिकृयाएं दें...
सादर...
कुलदीप ठाकुर
बहुत ख़ूबसूरत ग़ज़ल...