बीते हुए लम्हात का मंज़र नहीं मिलता - विलास पंडित मुसाफिर

बीते हुए लम्हात का मंज़र नहीं मिलता

बीते हुए लम्हात का मंज़र नहीं मिलता
जिस घर की तमन्ना थी वही घर नहीं मिलता

बाज़ार में दुनिया के हरेक शय तो है लेकिन
अश्कों से तराशा हुआ पत्थर नहीं मिलता

ये कैसी अदावत है मुहब्बत में बता दे
मिलने की तरह तू मुझे क्यूँकर नहीं मिलता

जिस चीज़ को चाहां था वही हो गई हासिल
इक तेरा पता ही मुझे अक्सर नहीं मिलता

जब देखो उसे बदगुमां होकर ही मिला है
वो यार है लेकिन कभी खुलकर नहीं मिलता

रहज़न तो हमें राह में मिलते रहे लेकिन
रहबर जिसे कहते हैं वो रहबर नहीं मिलता

इंसान तो मिलते हैं "मुसाफिर" को जहां में
एहसास में जज्बों का समंदर नहीं मिलता - विलास पंडित मुसाफिर


beete hue lamhat ka manzar nahi milta

beete hue lamhat ka manzar nahi milta
jis ghar ki tamnna thi wahi ghar nahi milta

bazar me duniya ke harek shay to hai lekin
ashqo se tarasha hua patthar nahi milta

ye kaisi adawat hai muhbbat me bata de
milne ki tarah tu mujhe kyukar nahi milta

jis cheez ko chaha tha waho ho gai hasil
ik tera pata hi mujhe aksar nahi milta

jab dekho use badguma hokar hi mila hai
wo yar hai laikin kabhi khulkar nahi milta

rahzan to hame raah me milte rahe lekin
rahbar jise kahte hai wo rahbar nahi milta

insan to milte hai "musafir" ko jahaan me
ehsas me jajbo ka samndar nahi milta- Vilas Pandit Musafir

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