बज़्म में साक़ी का फैज़-ए-आम है - रसा सरहदी

बज़्म में साक़ी का फैज़-ए-आम है

बज़्म में साक़ी का फैज़-ए-आम है
और मिरे हाथों में खाली जाम है

तल्खियां, महरूमियाँ,नाकामियाँ,
ज़िन्दगानी क्या इसी का नाम है

ज़िन्दगी चल हट तू अपनी राह ले,
हमको तो बस अब अजल से काम है

खुद्नुमाई हुस्न की फ़ितरत में है,
इश्क़ की ज़ौक-ए-नज़र बदनाम है

याद उनकी दिल की हर धड़कन में है
साँस गोया उनका ही पैग़ाम है

हर सहर महशर बादामाँ है रसा
दर्द में डूबी हुई हर शाम है - रसा सरहदी
मायने
फैज़-ए-आम = परोपकार सबको मालुम है, अज़ल = मौत, ज़ौक-ए-नज़र = नजरो को प्राप्त होने वाला आनंद, महशर = न्याय का दिन, सहर = सुबह, बादामाँ = एक प्रकार का रेशमी कपडा


bazm me saki ka faiz-e-aam hai

bazm me saki ka faiz-e-aam hai
aur mire haatho me khali jaam hai

talkhiya, mahrumiya, naakamiya,
jindgaani kya isi ka naam hai

jindgi chal hat tu apni raah le
hamko to bas azal se kaam hai

khudumai husn ki fitrat me hai
ishq ki zouk-e-nazar badnaam hai

yaad unki dil ki har dhadkan me hai
saans goya unka hi paigaam hai

har sahar mahshar baadamaa hai rasaa
dard me dubu hui har shaam hai- Rasaa Sarhadi

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