खुदा तो खैर मुस्लमा था

खुदा तो खैर मुस्लमा था

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खुदा तो खैर मुस्लमा था आज़ादी के समय के आसपास लिखे गये तीन शेरो के बारे में पढते है जिनके बारे में मशहूर शायर निदा फाज़ली लिख रहे है और विश्लेषण कर रहे

खुदा तो खैर मुस्लमा था

आज़ादी के समय के आसपास लिखे गये तीन शेरो के बारे में पढते है जिनके बारे में मशहूर शायर निदा फाज़ली लिख रहे है और विश्लेषण कर रहे है |

जगन्नाथ आज़ाद भारतीय साहित्य का जाना पहचाना नाम है| शायरी विरासत में मिली| उनके पिता डाक्टर इकबाल के समकालीन और अच्छे शायर थे- त्रिलोकचंद महरूम | मेरे कोर्स में उनकी एक कविता भी थी जिसकी दो पंक्तिया आज भी याद है-

रब का शुक्र अदा कर भाई
जिसने हमारी गाय बनाई - त्रिलोकचंद महरूम

पाकिस्तान बनने के बाद आज़ाद साहब भी, कहानीकार राजेन्द्र सिंह बेदी के साथ और शायर पंडित हरिचंद अख्तर की तरह पाकिस्तान के पंजाब से उखड के, हिन्दुस्तान के दिल्ली में आ बसे थे| आबादी के इधर से उधर और उधर से इधर होने का इतिहास उतना ही पुराना है, जितना यह जमाना है| आदमी द्वारा आदमी के शोषण की रोकथाम के लिए हर युग में विभिन्न धर्मो ने विभिन्न आदर्श बनाए, नर्क-स्वर्ग के नक़्शे दिखाए, मगर आदमी में छुपे जानवर फिर भी बाज न आए |

पाकिस्तान से हिन्दुस्तान आने वाले शायरों के तीन शेर उन दिनों हर जगह सुनाई देते थे | इन तीनो शायरों के नामो को भले ही वक्त की धुल ने धुधला दिया हो, मगर इनमे छुपा दर्द आज भी सर्द नहीं हो पाया है | काव्य में प्रभाव उस तनाव से जगता है, जिससे कलाकार गुजरता है| एहमद शाह अब्दाली और नादिर शाह के हमलों से कटी-फटी दिल्ली को अपनी आँखों से देखने वाले मीर तकी मीर ने अपनी गज़लों के बारे में एक जगह कहा था-

हम को शायर न कहो मीर की साहब हमने
दर्दो-गम कितने किए जमा, तो दीवान हुआ
( दीवान संकलन) - मीर तकी मीर

बड़ा कवि शायर, व्हीटमैन की तरह गाता तो अपने गम को है ( अ सिंग ऑफ मायसेल्फ/A Sing Of Myself), लेंकिन गाने का अंदाज ऐसा होता है की आपबीती, जगबीती बन जाती है| मीर का गम पूरी दिल्ली का बन गया था और तीन शेरो में भी, इन तीन शायरों के गम में हिंद-पाक विभाजन की पूरी हौलनाकी (भयानकता) झाकती नजर आती है | इंसानी खून से लाल होती रेलगाडिया, माओ से बिछुडी ओलादे, जलते-झुलसते इंसानी जिस्म, इश्वर खुदा के पाक नामो की भेट चढ़ते इंसान, बस्तियों में फैलते शमशान, रास्तो में घूमते कब्रिस्तान |

इस दर्दनाक अमानवीय नंगे नाच को सआदत हसन मंटो की ‘खोल दो’, राजेन्द्र सिंह बेदी की ‘छोकरी लुट’ , भीष्म साहनी की ‘अमृतसर आ गया, ख्वाजा अहमद अब्बास की 'सरदारजी’ आदि जैसी कहानियो में भी देखा जा सकता है, लेकिन कहानियो को पढ़ने में समय लगता है और शेर दो लाइनों में तीर की तरह दिलो-जिगर को छेद देता है| गज़ल का शेर ‘दोहे’ की तरह होता है| दो पंक्तियों में पुरे युग की अभिव्यक्ति होती है | कवि बिहारी के दोहों के बारे में इसलिए कहा गया है-

सतसईया के दोहरे, ज्यो नावाक के तीर
देखन में छोटे लगे, घाव करे गंभीर -
कवि बिहारी

इन तीनो शेर में एक पाकिस्तानी शायर का शेर है और दो भारतीय है | लेंकिन इनमे कहा गया दर्द शक्लो से भले ही अलग-अलग हो, इस दर्द की कसक, सरहदों के पार होकर एक जैसी ही है | पहला शेर पाकिस्तान के मशहूर शायर अब्दुल हमीद अदम का है बडे रंगीले शायर थे | पाकिस्तान बनने के बाद कई बार भारत के मुशायरों में आये लेकिन जब भी आए, जहा भी आए, होश घर में ही राख कर आए | उस बेहोशी में जब कभी होश आता था, जो ईद के चाँद की तरह ही कम ही जगमगाता था तब उनको पता लगता था कि वह किस शहर में थे या किस देश के कौन से शहर को जा रहे है| अपनी इस शराबनोशी या बलानोशी ( खूब पीना) के डिफेन्स में उन्होंने एक जगह एक शेर लिखा थे -

मै मयकदे की राह से होकर गुजर गया
वर्ना सफर हयात का काफी तवील था- अब्दुल हमीद अदम

शराब पीना सामाजिक दृष्टि से पाप जरुर है, लेकिन ‘अदम’ के सिलसिले में यह जरुर कहना चाहूँगा की शराब ने उन्हें कुछ ज्यादा ही अच्छा इंसान बना दिया था | अच्छे इंसान से मेरी मुराद उस इंसान से है, जो इंसानियत को हर धर्म से ऊँचा मानता है और इसी रौशनी में दूसरे इंसान को पहचानता है | विभाजन के हंगामो में अदम ने बहुत कुछ खोया था | कई दोस्तों की मुकुराहत खोई थी, शेरो-शायरी की महफिलो की जगमगाहट खोई थी, गंगा-जमनी तहजीब की सजावट खोई थी | इतना बहुत कुछ खोकर वह खुदा से नाराज हो गये थे | वह इंसान के कसूर को रहमान के सर थोपने लगे थे | इसी नाराजगी में एक दिन उन्हें एक जगह एक वीरान मस्जिद नजर आई | वह उसे देख कर ठहर गये और डायरी निकाल कर एक शेर यु लिखा ...उन दिनों दोनों तरफ कई मंदिर मस्जिद ऐसी ही नाराजगी का शिकार हुए-

दिल खुश हुआ है मस्जिदे-वीरां को देखकर
मेरी तरह खुदा का भी खाना खराब है - अब्दुल हमीद अदम

सियासत ने अदम से पंडित हरिचंद अख्तर की जाम टकराती सोह्बत छिनी थी और अख्तर से अदम के साथ ‘जिस लाहौर नइ वेख्या’ जैसे खूबसूरत शहर की मुहब्बत छिनी थी | अदम की तरह वह भी इस निजी लूटमार के लिए कुदरत को लानत-मलामत करने लगे | अदम पाकिस्तानी थे, वह सिर्फ खुदा से नाराज हो सकते थे | पंडित जी पाकिस्तानी छोड़ कर हिन्दुस्तान आ गए थे, इसलिए वह खुदा और परमात्मा दोनों से नाराज रहे | वह सोचते थे, उनका जो नुकसान हुआ है, उसमे खुदा के साथ भगवान भी बराबर का शरीक है-

खुदा तो खैर मुस्लमा था, उससे शिकवा क्या
मेरे लिए, मेरे परमात्मा ने कुछ न किया - पंडित हरिचंद अख्तर

इस सिलसिले का तीसरा शेर भी खुदा के बारे में है | इस शेर के शायर जगन्नाथ आज़ाद है | आजाद ने भी अदम और पंडित हरिचंद अख्तर की तरह इस सियासी तूफान में वह सब कुछ खोया, जिसे खो कर जीवन भर उसे तलाश करते रहे | वह जब पाकिस्तान के मुशायरों में जाते थे, तो गज़ल पढते थे- ‘चरागा ले के आया हू, गुलिस्ता ले के आया हुआ’| जब पाकिस्तान से लौटते थे, तो भारत के मुशायरों में सुनाते थे- ‘ चरागाँ दे के आया हू, बहारां दे के आया हू’|

फिराक साहब
ने उनकी यह गज़ले सुन कर कहा था, ‘ भाई अजीब शायर है यह, कभी दे के आता है, कभी ले के आता है|’ इस बात पर आज़ाद जिंदगी भर फिराक की महानता से इनकार करते रहे | आज़ाद की आँखों ने इंसानी खून का दरिया देखा था | अपने दोस्तों, नगर और डा. इकबाल के मजार (इकबाल की शायरी के वह आशिक थे) को छोड़ने का दुःख, उनके सम्पूर्ण लेखन का विषय था | आज़ाद के शेर में भी निशाना खुदा पर साधा गया है-

कहते है कि आता है मुसीबत में खुदा याद,
हम पर तो पड़ी वह कि खुदा भी न रहा याद -जगन्नाथ आज़ाद


यु तो तीनों शेर अच्छे है, लेकिन आज़ाद का शेर पिछले दिनों बार-बार याद आया | आज़ाद ने १९४७ के विभाजन कि पीड़ा को इसमें दोहराया था और मेरा दुःख इसमें ७ अक्टूम्बर को बेल्जियम के शहर ब्रुसेल्स कि एक चलती सड़क पर जगमगाया था | मै एनबीटी कि तरफ से जर्मन वर्ल्ड बुक फेयर का मेहमान था | वहा कई स्थानों पर कविताए सुनाने के बाद अंतिम काव्य पाठ के लिए मुझे फ्रेंकफर्ट से ब्रुसेल्स भेजा गया | मै कार में था, इतने में एक साहब ने बाहर से गेट खोला और मेरे पास रखा हुआ ब्रीफकेस लेकर नों-दो ग्यारह हो गए | उसमे मेरा वह सब कुछ था, जिसके खोने का दुःख आज़ाद के दुःख से कम नहीं था | इसमें एक नई कविताओ की डायरी, कई साल पहले पाकिस्तान में कब्र बनी मेरी माँ की एकलौती तस्वीर और वह तहरीर भी थी, जो एक प्रेमिका की आखिरी निशानी थी | - निदा फाज़ली
खुदा तो खैर मुस्लमा था, खुदा तो खैर मुस्लमा था, खुदा तो खैर मुस्लमा था, खुदा तो खैर मुस्लमा था, खुदा तो खैर मुस्लमा था

COMMENTS

BLOGGER: 1
  1. स्वतंत्रता दिवस की शुभकामनाएं

    लाजवाब शायरों को याद करती ,बेहतरीन पोस्ट...
    नीरज

    ReplyDelete
कृपया स्पेम न करे |

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जखीरा, साहित्य संग्रह: खुदा तो खैर मुस्लमा था
खुदा तो खैर मुस्लमा था
खुदा तो खैर मुस्लमा था आज़ादी के समय के आसपास लिखे गये तीन शेरो के बारे में पढते है जिनके बारे में मशहूर शायर निदा फाज़ली लिख रहे है और विश्लेषण कर रहे
जखीरा, साहित्य संग्रह
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