फैज़ अहमद फैज़ परिचय फैज़ अहमद फैज़ के बारे में क्या बताया जाये और क्या ना बताया जाए यह तय कर पाना काफी मुश्किल है | फिर भी यह शुरुवात की जाए | 13 फ़रवरी,
फैज़ अहमद फैज़ परिचय
फैज़ अहमद फैज़ के बारे में क्या बताया जाये और क्या ना बताया जाए यह तय कर पाना काफी मुश्किल है | फिर भी यह शुरुवात की जाए |
13 फ़रवरी, 1911 को गाव काला कादर, सियालकोट (पंजाब, अब पाकिस्तान में) में जन्मे फैज़ को अदबी रुझान विरासत में ही मिला | आपके वालिद चौधरी सुलतान मोहम्मद खान की साहित्य में गहरी दिलचस्पी थी और उन्होंने अफगानिस्तान के अमीर अब्दुल रहमान की जीवनी लिखकर प्रकाशित भी करवाई थी | उर्दू के ख्यातनाम शायर अल्लामा इकबाल और अदीब सर अब्दुल कदीर के साथ उनके नजदीकी संबध थे | परिवार के इस अदबी माहौल का फैज़ पर असर पड़ना लाजिमी था | उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में ही लिखना शुरू कर दिया था और सन 1928 में 17 वर्ष की आयु में ही पहली ग़ज़ल लिखी उसके पश्चात 1929 में पहली नज्म लिखी |
आपने 1933 में अंग्रेजी में और 1934 में अरबी में M.A. पास करने के बाद एम ओ यु कालेज अमृतसर में लेक्चरशिप से अपने करियर की शुरुवात की | 1936 में लखनऊ में होने वाली प्रगतिशील लेखक संघ की पहली मीटिंग में उन्होंने इस संस्था के संस्थापक-सदस्य के रूप में हिस्सा लिया |
आप ना तो ज्यादा लिखे थे और न ही ज्यादा बोलते थे उनके ही शब्दों में "अपने बारे में बाते करने में मुझे सख्त कोफ़्त होती है इसलिए की सब बोर लोगो का मरगूब शगल (प्रिय व्यसन) यही है "
फैज़ साहब के नीचे सुर में बोलने का तो यह आलम था कि किसी महफ़िल में वे अपना कलाम सुनाते, तो शुरू के कुछ मिसरे यो निकल जाते जैसे वे कुछ सुना नहीं रहे बल्कि पास बैठे किसी व्यक्ति से बतिया रहे है | थोड़ी देर बाद ही श्रोताओ को पता चलता था कि फैज़ साहब कुछ सुना रहे है | उनके इस तरीके की कई लोग खराब अदायगी कहकर आलोचना करते है |
फैज़ के पिता चौधरी सुलतान मोहम्मद खान भी अफगानिस्तान में एक महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहे थे की एक छोटी सी बात पर वहा के शासक से मतभेद हो गया और आवेश में नौकरी को लात मरकर वे इंग्लैंड चले गये, जहा उन्होंने कैम्ब्रिज तथा लिंकन इन में रहकर उच्चतर शिक्षा प्राप्त की | फैज़ में अपने पिता का यही विद्रोही तेवर काम कर रहा था | आपने अपने बचपन में ही रूस की क्रांति देखी थी जिसका असर भी आप पर हुआ | जिसका असर भी आपकी शायरी पर दिखता है |
आपके इसी उग्र रूप के कारण आपको अपना बहुत सा समय जेल में गुजरना पड़ा और जहा आपने ज़िंदानामा लिखा | जेल में इतना वक्त गुजरने के बाद भी आप बहुत जिंदादिल थे | इसका एक सबुत जेल से 26 मई, 1952 को अपनी पत्नी एलिस को लिखा गया यह खत बताता है: "तुम्हे शायद यह किस्सा मैंने सुनाया था कि गुजिश्ता एक बार जब मेरा सियालकोट जाना हुआ तो पुराने स्कुल के एक हमजमात से मुलाकात हुई, मैंने उससे कहा जरा अपने मोहल्ले का चक्कर कर आये वो कहने लगा, तो फिर बहुत से खिलोने अपने साथ ले चलो | पूछा वो किस लिए, कहने लगे अब वो सब नानिया, दादीया हो गयी है |"
आप ना केवल एक देश के शायर थे बल्कि पुरे विश्व के शायर थे आपने कई नज्मे दूसरे देशो की घटनाओ और उनके सन्दर्भ में लिखी जैसे आपकी एक नज्म "फिलीस्तीनी बच्चे के लिए लोरी' आपके उदारतापूर्ण पक्ष को उजागर करती है इसके अतिरिक्त आपने अपने समकालीनो पर भी और उनकी रचनाओ से प्रेरित होकर भी लिख जिनमे मखदूम की याद में 'आपकी याद आती रही' ग़ज़ल मुख्य स्थान रखती है |
फैज़ एक बार पाकिस्तान से वतन-बदर हुए तो फिर सारी दुनिया के हो गये | सारी दुनिया का हर मुल्क उनका अपना वतन बन गया | भारत की तो खैर बात ही दूसरी थी - पाकिस्तान और भारत उनके लिए एक ही जिस्म के दो हिस्से थे | आपने कई राष्ट्रों की यात्राए की जिनमे सेनफ्रांसिस्को, जिनेवा, चीन, लन्दन, मास्को, हंगरी, क्यूबा, लेबनान, अल्जीरिया, मिस्त्र, फिलीपाइन और इंडोनेशिया शामिल है |
आपकी रचनाओ को कई गायकों ने गाया जब आपका पहला संकलन नक्श-फरियादी १९४१ में छपा तो नूरजहां जो उस वक्त की मशहूर गायिका थी ने आपसे 'मुझसे पहली सी मोहब्बत न मांग' को गाने की इजाजत मांगी | कहा जाता है की वो इसे सबसे पहले गाना चाहती थी | फैज़ की रचनाओ के गायकों में बेगम अख्तर, मेहँदी हसन और नए गाने वालो की पीढ़ी में इक़बाल बानो, फरीदा खानम, टीना सानी, नायर नूर शामिल है |
बेगम अख्तर ने बहुत खूबसूरत ढंग से 'शाम-ए-फ़िराक अब न पूछ' गाई और मेहँदी हसन ने 'गुलो में रंग भरे' को इस तरह गाया की एक बार फैज़ साहब से दिल्ली में उनसे इस ग़ज़ल की फरमाइश करने पर उन्होंने कहा की यह तो हमने मेहँदी हसन को दे दी आप उन्ही से सुन लीजियेगा | फैज़ की शायरी जो सियासती तासीर रखती थी उसे कुछ ही गायकों ने आवाम तक पहुचाया जिनमे इकबाल बानो का नाम सबसे ऊपर आता है उनकी वह नज्म 'हम देखेंगे' को बहुत अच्छे तरीके से गाया है |
अब तक आपके सात ग़ज़ल संग्रह नक्श-ए-फरियादी [amazon Link] (1941), दस्त-ए-सबा [Amazon Link] (1952), ज़िंदानामा (1956), दस्त-ए-तह-ए-संग (1964), सर-ए-वादी-ए-सीना (1971), शाम-ए-शहर-ए-यारां (1978), मेरे दिल मेरे मुसाफिर (1980) प्रकाशित हो चुके है | इसके अतिरिक्त गद्य में मीजान (लेख संग्रह - 1963), सलीबे मेरे दरीचे में ( पत्नी एलिस को जेल से लिखे गये पत्रों का संग्रह - 1971), मताए-लौह-ओ-कलम (भाषण, लेख, इंटरव्यू और नाटक आदी का संग्रह - 1973 ) भी प्रकाशित हो चुके है | 1962 में फैज़ को 'लेनिन शांति पुरस्कार' से सम्मानित किया गया |
लाहौर में 20 नवम्बर, 1984 को दिल का दौरा पड़ा और वो अजीम शायर इस दुनिया को छोड़ गया |
फैज़ अहमद फैज़ की किताबे ख़रीदे13 फ़रवरी, 1911 को गाव काला कादर, सियालकोट (पंजाब, अब पाकिस्तान में) में जन्मे फैज़ को अदबी रुझान विरासत में ही मिला | आपके वालिद चौधरी सुलतान मोहम्मद खान की साहित्य में गहरी दिलचस्पी थी और उन्होंने अफगानिस्तान के अमीर अब्दुल रहमान की जीवनी लिखकर प्रकाशित भी करवाई थी | उर्दू के ख्यातनाम शायर अल्लामा इकबाल और अदीब सर अब्दुल कदीर के साथ उनके नजदीकी संबध थे | परिवार के इस अदबी माहौल का फैज़ पर असर पड़ना लाजिमी था | उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन में ही लिखना शुरू कर दिया था और सन 1928 में 17 वर्ष की आयु में ही पहली ग़ज़ल लिखी उसके पश्चात 1929 में पहली नज्म लिखी |
आपने 1933 में अंग्रेजी में और 1934 में अरबी में M.A. पास करने के बाद एम ओ यु कालेज अमृतसर में लेक्चरशिप से अपने करियर की शुरुवात की | 1936 में लखनऊ में होने वाली प्रगतिशील लेखक संघ की पहली मीटिंग में उन्होंने इस संस्था के संस्थापक-सदस्य के रूप में हिस्सा लिया |
आप ना तो ज्यादा लिखे थे और न ही ज्यादा बोलते थे उनके ही शब्दों में "अपने बारे में बाते करने में मुझे सख्त कोफ़्त होती है इसलिए की सब बोर लोगो का मरगूब शगल (प्रिय व्यसन) यही है "
फैज़ साहब के नीचे सुर में बोलने का तो यह आलम था कि किसी महफ़िल में वे अपना कलाम सुनाते, तो शुरू के कुछ मिसरे यो निकल जाते जैसे वे कुछ सुना नहीं रहे बल्कि पास बैठे किसी व्यक्ति से बतिया रहे है | थोड़ी देर बाद ही श्रोताओ को पता चलता था कि फैज़ साहब कुछ सुना रहे है | उनके इस तरीके की कई लोग खराब अदायगी कहकर आलोचना करते है |
आपके पहले संग्रह नक़्श-ए-फरियादी की भूमिका में आपकी शायरी पर टिप्पणी करते हुए नून मीम राशीद ने लिखा था: 'फैज़ किसी मरकज़ी नजरिये (केन्द्रीय विचारधारा) का शायर नहीं, सिर्फ अहसासात का शायर है |'तीसरे दशक के अंत में विश्व युद्ध शुरू हो गया और फैज़ ने लेक्चरशिप छोड़कर 1942 में फौज की नौकरी कर ली | फिर देश के बटवारे के बाद पाकिस्तान टाइम्स तथा इमरोज़ का संपादन हाथ में लिया | लेकिन फैज़ जिन सम्पादकीय नीतियों और विचारधारा को लेकर काम कर रहे थे वे हुकूमत के लिए काबिले-बर्दाश्त नहीं थी| लिहाज़ा 1951 में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया, और 1955 में जेल से रिहाई के बाद उनका ज्यादातर वक्त विदेशो में व्यतीत हुआ | पाकिस्तान सरकार द्वारा आपको 1951 और 1958 में जेल भेजा गया |
फैज़ अहमद फैज़ के बारे में जोश मलीहाबादी ने कभी 1965 में लिखा था 'मेरा साहिल अब सामने आ चुका है मेरी कश्ती में अब बादबान लपेटे जा रहे है लेकिन डूब जाने से पेश्तर यह कह देना चाहता हू कि मै इत्मीनान से मरूंगा और महज़ इस बिना पर कि उर्दू अदब को एक मल्लाह को पीछे छोड़े जा रहा हू और इस मल्लाह का नाम है फैज़ |'
फैज़ के पिता चौधरी सुलतान मोहम्मद खान भी अफगानिस्तान में एक महत्वपूर्ण पद पर काम कर रहे थे की एक छोटी सी बात पर वहा के शासक से मतभेद हो गया और आवेश में नौकरी को लात मरकर वे इंग्लैंड चले गये, जहा उन्होंने कैम्ब्रिज तथा लिंकन इन में रहकर उच्चतर शिक्षा प्राप्त की | फैज़ में अपने पिता का यही विद्रोही तेवर काम कर रहा था | आपने अपने बचपन में ही रूस की क्रांति देखी थी जिसका असर भी आप पर हुआ | जिसका असर भी आपकी शायरी पर दिखता है |
आपके इसी उग्र रूप के कारण आपको अपना बहुत सा समय जेल में गुजरना पड़ा और जहा आपने ज़िंदानामा लिखा | जेल में इतना वक्त गुजरने के बाद भी आप बहुत जिंदादिल थे | इसका एक सबुत जेल से 26 मई, 1952 को अपनी पत्नी एलिस को लिखा गया यह खत बताता है: "तुम्हे शायद यह किस्सा मैंने सुनाया था कि गुजिश्ता एक बार जब मेरा सियालकोट जाना हुआ तो पुराने स्कुल के एक हमजमात से मुलाकात हुई, मैंने उससे कहा जरा अपने मोहल्ले का चक्कर कर आये वो कहने लगा, तो फिर बहुत से खिलोने अपने साथ ले चलो | पूछा वो किस लिए, कहने लगे अब वो सब नानिया, दादीया हो गयी है |"
आप ना केवल एक देश के शायर थे बल्कि पुरे विश्व के शायर थे आपने कई नज्मे दूसरे देशो की घटनाओ और उनके सन्दर्भ में लिखी जैसे आपकी एक नज्म "फिलीस्तीनी बच्चे के लिए लोरी' आपके उदारतापूर्ण पक्ष को उजागर करती है इसके अतिरिक्त आपने अपने समकालीनो पर भी और उनकी रचनाओ से प्रेरित होकर भी लिख जिनमे मखदूम की याद में 'आपकी याद आती रही' ग़ज़ल मुख्य स्थान रखती है |
फैज़ एक बार पाकिस्तान से वतन-बदर हुए तो फिर सारी दुनिया के हो गये | सारी दुनिया का हर मुल्क उनका अपना वतन बन गया | भारत की तो खैर बात ही दूसरी थी - पाकिस्तान और भारत उनके लिए एक ही जिस्म के दो हिस्से थे | आपने कई राष्ट्रों की यात्राए की जिनमे सेनफ्रांसिस्को, जिनेवा, चीन, लन्दन, मास्को, हंगरी, क्यूबा, लेबनान, अल्जीरिया, मिस्त्र, फिलीपाइन और इंडोनेशिया शामिल है |
आपकी रचनाओ को कई गायकों ने गाया जब आपका पहला संकलन नक्श-फरियादी १९४१ में छपा तो नूरजहां जो उस वक्त की मशहूर गायिका थी ने आपसे 'मुझसे पहली सी मोहब्बत न मांग' को गाने की इजाजत मांगी | कहा जाता है की वो इसे सबसे पहले गाना चाहती थी | फैज़ की रचनाओ के गायकों में बेगम अख्तर, मेहँदी हसन और नए गाने वालो की पीढ़ी में इक़बाल बानो, फरीदा खानम, टीना सानी, नायर नूर शामिल है |
बेगम अख्तर ने बहुत खूबसूरत ढंग से 'शाम-ए-फ़िराक अब न पूछ' गाई और मेहँदी हसन ने 'गुलो में रंग भरे' को इस तरह गाया की एक बार फैज़ साहब से दिल्ली में उनसे इस ग़ज़ल की फरमाइश करने पर उन्होंने कहा की यह तो हमने मेहँदी हसन को दे दी आप उन्ही से सुन लीजियेगा | फैज़ की शायरी जो सियासती तासीर रखती थी उसे कुछ ही गायकों ने आवाम तक पहुचाया जिनमे इकबाल बानो का नाम सबसे ऊपर आता है उनकी वह नज्म 'हम देखेंगे' को बहुत अच्छे तरीके से गाया है |
अब तक आपके सात ग़ज़ल संग्रह नक्श-ए-फरियादी [amazon Link] (1941), दस्त-ए-सबा [Amazon Link] (1952), ज़िंदानामा (1956), दस्त-ए-तह-ए-संग (1964), सर-ए-वादी-ए-सीना (1971), शाम-ए-शहर-ए-यारां (1978), मेरे दिल मेरे मुसाफिर (1980) प्रकाशित हो चुके है | इसके अतिरिक्त गद्य में मीजान (लेख संग्रह - 1963), सलीबे मेरे दरीचे में ( पत्नी एलिस को जेल से लिखे गये पत्रों का संग्रह - 1971), मताए-लौह-ओ-कलम (भाषण, लेख, इंटरव्यू और नाटक आदी का संग्रह - 1973 ) भी प्रकाशित हो चुके है | 1962 में फैज़ को 'लेनिन शांति पुरस्कार' से सम्मानित किया गया |
लाहौर में 20 नवम्बर, 1984 को दिल का दौरा पड़ा और वो अजीम शायर इस दुनिया को छोड़ गया |
अविभाजित भारत के महान शायर फैज अहमद फैज का यह जन्म शताब्दी वर्ष 2011 है। वह अधूरी आजादी के दर्द और आम आदमी के हक के अनोखे शायर थे। उनकी गजलें पढ़ते-सुनते हुए होश संभाला और अब भी इनका असर जादू की तरह काम करके बागी बनने को उकसाता है।
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