कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ से
कभी नेकी भी उस के जी में गर आ जाए है मुझ सेजफ़ाएँ कर के अपनी याद शरमा जाए है मुझ से
ख़ुदाया जज़्बा-ए-दिल की मगर तासीर उल्टी है
कि जितना खींचता हूँ और खिंचता जाए है मुझ से
वो बद-ख़ू और मेरी दास्तान-ए-इश्क़ तूलानी
इबारत मुख़्तसर क़ासिद भी घबरा जाए है मुझ से
उधर वो बद-गुमानी है इधर ये ना-तवानी है
न पूछा जाए है उस से न बोला जाए है मुझ से
सँभलने दे मुझे ऐ ना-उम्मीदी क्या क़यामत है
कि दामान-ए-ख़याल-ए-यार छूटा जाए है मुझ से
तकल्लुफ़ बरतरफ़ नज़्ज़ारगी में भी सही लेकिन
वो देखा जाए कब ये ज़ुल्म देखा जाए है मुझ से
हुए हैं पाँव ही पहले नबर्द-ए-इश्क़ में ज़ख़्मी
न भागा जाए है मुझ से न ठहरा जाए है मुझ से
क़यामत है कि होवे मुद्दई का हम-सफ़र 'ग़ालिब'
वो काफ़िर जो ख़ुदा को भी न सौंपा जाए है मुझ से - मिर्ज़ा ग़ालिब
मायने
बद-खू = बुरी आदत वाला, तुलानी = लंबी, नातवानी = कमजोरी, बरतरफ = छोडना, नर्बदे-इश्क = प्रेम का संघर्ष
kabhi neki bhi us ke ji mein gar aa jae hai mujh se
kabhi neki bhi us ke ji mein gar aa jae hai mujh sejafaen kar ke apni yaad sharma jae hai mujh se
KHudaya jazba-e-dil ki magar tasir ulTi hai
ki jitna khinchta hun aur khinchta jae hai mujh se
wo bad-KHu aur meri dastan-e-ishq tulani
ibarat muKHtasar qasid bhi ghabra jae hai mujh se
udhar wo bad-gumani hai idhar ye na-tawani hai
na puchha jae hai us se na bola jae hai mujh se
sambhalne de mujhe ai na-ummidi kya qayamat hai
ki daman-e-KHayal-e-yar chhuTa jae hai mujh se
takalluf bartaraf nazzargi mein bhi sahi lekin
wo dekha jae kab ye zulm dekha jae hai mujh se
hue hain panw hi pahle nabard-e-ishq mein zaKHmi
na bhaga jae hai mujh se na Thahra jae hai mujh se
qayamat hai ki howe muddai ka ham-safar 'Ghalib'
wo kafir jo KHuda ko bhi na saunpa jae hai mujh se - Mirza Ghalib
क्या खूब ! होली की शुभकामनायें !