हाय क्या चीज़ थी, क्या चीज़ थी जालिम की नज़र भी
हाय क्या चीज़ थी, क्या चीज़ थी जालिम की नज़र भीउफ़ करके वही बैठ गया दर्दे-जिगर भी
होती ही नहीं कम सबे-फुरकत की सियाही
रुखसत हुई क्या शाम के हमराह सहर भी
ये मुजरिमे-उल्फत है, वो मुजरिमे-दीदार
दिल ले के चले हो तो लिए जाओ नजर भी
क्या देखेंगे हम जलवा-ए-महबूब की हम से
देखी न गई देखने वालो की नजर भी
है फैसला-ए-इश्क ही मंजूर तो उठिए
अंगियार भी मौजूद है, हाजिर है जिगर भी- जिगर मुरादाबादी
मायने
शबे-फुर्कत=जुदाई की रात, सहर=सुबह, अंगियार=गैर, दुसरे लोग, प्रेम में प्रतिद्वंदी
Hay kya cheez thi, kya cheez thi zalim ki nazar bhi
Hay kya cheez thi, kya cheez thi zalim ki nazar bhiuf karke wahi baith gaya darde-jigar bhi
hoti hi nahi kam sabe-furqat ki syahi
rukhsat hui kya sham ke hamrah sahar bhi
ye mujrim-e-ulfat hai, wo mujrim-e-deewar
dil le ke chale ho to liye jao nazar bhio
kya dekhenge ham jalwa-e-mahbub ki ham se
dekh in gaui dekhne walo ki nazar bhi
hai faisla-e-ishq hi manzoor to uthiye
angiyar bhi moujud hai, hajir hai jigar bhi - Jigar Moradabadi
बेहतरीन पोस्ट लेखन के लिए बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है - पधारें - मेरे लिए उपहार - फिर से मिल जाये संयुक्त परिवार - ब्लॉग 4 वार्ता - शिवम् मिश्रा