हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं - मिर्ज़ा ग़ालिब

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं

हैराँ हूँ दिल को रोऊँ कि पीटूँ जिगर को मैं
मक़्दूर हो तो साथ रखूँ नौहागर को मैं

छोड़ा न रश्क ने कि तिरे घर का नाम लूँ
हर इक से पूछता हूँ कि जाऊँ किधर को मैं

जाना पड़ा रक़ीब के दर पर हज़ार बार
ऐ काश जानता न तिरे रह-गुज़र को मैं

है क्या जो कस के बाँधिए मेरी बला डरे
क्या जानता नहीं हूँ तुम्हारी कमर को मैं

लो वो भी कहते हैं कि ये बे-नंग-ओ-नाम है
ये जानता अगर तो लुटाता न घर को मैं

चलता हूँ थोड़ी दूर हर इक तेज़-रौ के साथ
पहचानता नहीं हूँ अभी राहबर को मैं

ख़्वाहिश को अहमक़ों ने परस्तिश दिया क़रार
क्या पूजता हूँ उस बुत-ए-बेदाद-गर को मैं

फिर बे-ख़ुदी में भूल गया राह-ए-कू-ए-यार
जाता वगर्ना एक दिन अपनी ख़बर को मैं

अपने पे कर रहा हूँ क़यास अहल-ए-दहर का
समझा हूँ दिल-पज़ीर मता-ए-हुनर को मैं

'ग़ालिब' ख़ुदा करे कि सवार-ए-समंद-नाज़
देखूँ अली बहादुर-ए-आली-गुहर को मैं - मिर्ज़ा ग़ालिब


hairan hun dil ko roun ki pitun jigar ko main

hairan hun dil ko roun ki pitun jigar ko main
maqdur ho to sath rakhun nauhagar ko main

chhoda na rashk ne ki tere ghar ka nam lun
har ek se puchhta hun ki jaun kidhar ko main

jaana pada raqib ke dar par hazar bar
ae kash jaanta na tere rah-guzar ko main

hai kya jo kas ke bandhiye meri bala dare
kya jaanta nahin hun tumhaari kamar ko main

lo wo bhi kahte hain ki ye be-nang-o-nam hai
ye jaanta agar to lutata na ghar ko main

chalta hun thodi dur har ek tez-rau ke sath
pahchanta nahin hun abhi rahbar ko main

khwahish ko ahmaqon ne parastish diya qarar
kya pujta hun us but-e-bedad-gar ko main

phir be-khudi mein bhul gaya rah-e-ku-e-yar
jata wagarna ek din apni khabar ko main

apne pe kar raha hun qayas ahl-e-dahr ka
samjha hun dil-pazir mata-e-hunar ko main

'Ghalib' khuda kare ki sawar-e-samand-e-naz
dekhun ali bahadur-e-ali-guhar ko main - Mirza Ghalib

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