कभी मोम बन के पिघल गया - अहमद फ़राज़

कभी मोम बन के पिघल गया

कभी मोम बन के पिघल गया
कभी गिरते गिरते संभल गया

वो बन के लम्हा गुरेज का
मेरे पास से निकल गया

उसे रोकता भी तो किस तरह
कि वो शख्स इतना अजीब था

कभी तड़प उठा मेरी आह से
कभी अश्क से न पिघल सका

सर-ए-राह मिला वो अगर कभी
तो नज़र चुरा के गुज़र गया

वो उतर गया मेरी आँख से
मेरे दिल से क्यों न उतर सका

वो चला गया जहां छोड़ के
मैं वहा से फिर न पलट सका

वो संभल गया था 'फ़राज़' मगर
मै बिखर के फिर न सिमट सका - अहमद फ़राज़


kabhi mom ban ke pighal gya

kabhi mom ban ke pighal gya
kabhi girate girte sambhal gya

wo ban ke lamha gurez ka
mere paas se nikal gya

use rokta bhi to kis tarah
ki wo shakhs itna ajeeb tha

kabhi tadap utha meri aah se
kabhi ashq se n pighal saka

sar-e-raah mila wo agar kabhi
to nazar chura ke gujar gya

wo uatar gya meri aankh se
mere dil se kyoN n utar saka

wo chala gaya jaha chhod ke
mai waha se phir n palat saka

wo sambhal gaya tha 'Faraz' magar
mai bikhar ke phir n simat saka - Ahmad Faraz

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