मुज़फ़्फ़र हनफ़ी इख़्तियार की तराश - डॉ. राहत इंदौरी

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी इख़्तियार की तराश - डॉ. राहत इंदौरी डुबो कर ख़ून में लफ़्ज़ों को अँगारे बनाता हूँ फिर अँगारों को दहका कर ग़ज़ल पारे बनाता हूँ

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी इख़्तियार की तराश - डॉ. राहत इंदौरी

यह लेख हमें मुज़फ़्फ़र हनफ़ी के पुत्र परवेज़ मुज़फ्फ़र के हवाले से प्राप्त हुआ है |

डुबो कर ख़ून में लफ़्ज़ों को अँगारे बनाता हूँ
फिर अँगारों को दहका कर ग़ज़ल पारे बनाता हूँ

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी का ये शैर मुझे अक्सर अहमद नदीम क़ासिमी का ये क़ौल याद दिलाता है कि “तख़्लीक़ी अमल फ़नकार के लिए अपने अंदर एक मुस्तक़िल अलाव जलाए रखने जैसा है” मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने ख़ून-ए-दिल में उँगलियाँ डुबो कर शायरी की है, इनके अशआर की हिद्दत और तासीर इस अम्र की गवाह हैं।

ज़िंदगी के सर्द-ओ-गर्म से गुज़र कर शख़्सी तौर पर मुज़फ़्फ़र हनफ़ी तप कर कुन्दन हो गये हैं, हमारी मिट्टी का वस्फ़ है कि खुरदरापन ख़ून की तरह रग-ओ-पै में दौड़ता फिरता है “इक ज़रा आपको ज़हमत होगी” क़सम का तकल्लुफ़ मुनाफ़क़त मालूम होता है, अमीक़ हनफ़ी हों या मुज़फ़्फ़र हनफ़ी, मिज़ाज की टेढ़ और लहजे का तिरछापन उन की मजबूरी भी है और यही इनकी शख़्सियत की शनाख़्त भी! हमारे अतराफ़ फैली अय्यारी और ख़ुद-इश्तिहारियत का मकरूह चेहरा इन्हें मुस्तक़िल कबीदा ख़ातिर रखता है ।

आज से सदी पहले का क़िस्सा है मजरूह सुल्तानपुरी पाकिस्तान गये और मशाहीर की तरह कुछ इस तरह की बातें कहीं जो बीमार ज़ेहनियत का वाज़ेह सुबूत होने के साथ-साथ गुमराह कुन भी थीं, मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने मजरूह के बहाने जगन नाथ आज़ाद, ज़ुबैर रिज़वी, रशीद हसन ख़ाँ, मज़हर इमाम, राम लाल सबको ख़ूब आड़े हाथों लिया, इन ज़ो'मा के बड़बोले-पन को बे-नक़ाब किया। हक़-गोई का सवाल हो तो मस्लहत फ़ुज़ूल सी चीज़ लगती है।

अफ़सोस कि ये देवी आदमी को ख़ूब कुँवें झँकवाती है, पिंदार का जिसे ज़रा भी पास है वो हर गिज़ दर-दर दस्तकें नहीं देता, हमारे मुआशरे में ये मर्ज़ आम है, अदब और समाज में क़ाबिल लिहाज़ हैसियतों के मालिक झूटी नामवरी की ख़ातिर जब किसी भी हद तक जाने पर आमादा हों तो समझिये मुआशरा सख़्त इब्तिला' का शिकार है। मुज़फ़्फ़र हनफ़ी को जब भी मौक़ा मिला इन्होंने इस मकरूह मंज़र नामे की निक़ाब-कुशाई की है और बहुत से पर्दा-नशीनों को ख़फ़ीफ़ किया है फिर चाहे इनमें से अक्सर से ख़ुद इन की रस्म-ओ-राह हो, इस बरहना-गोई के तुफ़ैल अक्सर ये हुआ कि इनके हाशिया-बरदार ही इनके दर पे आज़ार हो गये। लेकिन मुज़फ़्फ़र हनफ़ी ने तख़्रीब-कार गिरोह को कभी दर्खुर-ए-ए'तिना नहीं समझा। यही मेरे नज़दीक मुज़फ़्फ़र हनफ़ी की ताक़त है। प्रोफ़ेसर ख़ुर्शीद-उल-इस्लाम मरहूम ने शिबली के बारे में लिखा था

“इनकी ज़िंदगी में एक हद तक सुब्ह की सपेदी और शाम का सलोना-पन दोनों दिखाई देते हैं।” मुझे ये जुमला मुज़फ़्फ़र हनफ़ी की ज़िंदगी पर भी हर्फ़-ब-हर्फ़ मुनासिब मालूम होता है, ज़िंदगी का मो'तद-ब-हिस्सा कलकत्ता और दिल्ली जैसे बड़े शहरों में गुज़ारने के बावजूद मौसूफ़ के मिज़ाज की क़सबाती बे-रियाई और सादगी नहीं गयी। यही सादगी इनसे वो कुछ कहलवा लेती है, आफ़ियत के तक़ाज़े जिसकी इजाज़त नहीं देते इनके मिज़ाज की शगुफ़्तगी इन्हें छोटी-छोटी बातों से हज़ हासिल करने की सलाहियत मुहय्या करती है किसी बद-मज़ाक़ी के बग़ैर ख़ुद हँसना और दूसरों को हँसाना आला ज़र्फ़ी है ऐसे इन्सान को ज़िंदगी के कठिन मरहलों से गुज़रने के लिए ख़ास एहतिमाम की हाजत नहीं होती।

मुज़फ़्फ़र हनफ़ी को मैं एहतिराम और मुहब्बत से Sir कहता हूँ । मुल्क और बैरून-ए-मुल्क अन-गिनत अस्फ़ार मैंने इनके साथ किये हैं इनसे एक क़ुरबत का एहसास हमा-वक़्त रहता है, एक अपना-पन, घर की बात, बुज़ुर्ग का हाथ, रहबर का साथ, एक इत्मीनानी कफ़ालत की बे-फ़िक्री। कभी सोचता हूँ इस रिश्ते का कोई नाम तो होना चाहिए, कोशिशों के बावजूद कोई नाम नहीं सूझता। ये मुख़्तसर सी तहरीर इनके एक हक़ीर मद्दाह का इज़हार-ए-अक़ीदत है। वो सलामत रहें हज़ार बरस।
~ डॉ. राहत इंदौरी

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