चारुचंद्र की चंचल किरणें
भगवान श्रीराम, पत्नी सीता व भाई लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष के वनवास पर जा चुके हैं। वहां वह पंचवटी में पत्तों की कुटिया बनाकर रहने लगते हैं। एक रात्रि श्रीराम व सीता जी विश्राम कर रहे हैं और लक्ष्मण बाहर कुटी का पहरा दे रहे हैं। इस दृश्य को कवि मैथिली शरण गुप्त अपने काव्य-ग्रंथ 'पंचवटी' में यूं लिखते हैं
चारुचंद्र की चंचल किरणें, खेल रहीं हैं जल थल में,
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!
मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामी-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।
सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥
तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!
और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!
- मैथिलीशरण गुप्त
अर्थ
झीम = झपकी लेना
savchchh chandani bichhi hui hai avani aur ambartal me
pulak prakat karti hai dharati, harit trino ki noko se
mano jheem rahe hai taru bhi, mand pawan ke jhonko se
panchvati ki chhaya me hai, sundar parn-kuteer bana,
jiske ammukh svchchh shila par, dheer-veer nirbhikmna,
jaag raha hai yah kaun dhunardhar, jab ki bhuvan bhar sota hai?
bhogi kusumayudh yogi-sa, bana drishtigat hota hai
kis vrat me hai vrti veer yah, nindra ka yo tyag kiye
rajbhogya ke yogya vipin me, baitha aaj virag liye
bana hua hai prahari jika, us kuteer me kya dhan hai
jiski raksha me rat iska, tan hai, man hai, jeevan hai!
martylok-malinya metne, swami-sang jo aai hai
teen lok ki laxmi ne yah, kuti aaj apnaai hai
veer-vansh ki laaj yahi hai, phir kyo veer n ho prahri
vijan desh hai nisha shesh hai, nishachari maya thahri
koi paas n rahne par bhi, jan-man maun nahi rahta
aap aapki sunta hai wah, aap aapse hai kahta
beech-beech me idhar-udhar nij drishti dalkar modmayi
man hi man baate karta hai, dheer dhanurdhar nai-nai
kya hi savchchh chandani hai yah, hai kya hi nistabdh nisha;
hai svchhand-sumand gandh wah, niranad hai kaun disha?
band nahi, ab bhi chalte hai, niyati nati ke kary-kalaap
par kitne ekant bhav se, kitne shant aur chupchap!
hai bikher deti vasundhara, moti, sabke sone par
ravi bator leta hai unko, sada sawera hone par
aur viramdayini apni, sandhya ko de jata hai
shunya shayam-tanu jisse uska, nya roop jhalkata hai
saral taral jin tuhin kano se, haansti harshit hoti hai
ati aatmiya prakriti hamare, sath unhi se tori hai
anjani bhulo par bhi wah, aday dand to deti hai
par budho ko bhi bachcho-sa, saday bhav se seti hai
terah varsh vyteet ho chukem par hai mano kal ki baat
van ko aate dekh hame ab, aart achet hue the taat
ab wah samay nikat hi hai jab, avadhi purn hogi van ki
kintu prapti hogi is jan ko, isse badhkar kis dhan ki
aur aary ko, rajy-bhar to, we prajarth hi dharenge
vyst rahenge, ham sab ko bhi, mano vivash visarenge
kar vichar lokopkar ka, hame n isse hoga shok
par apna heet aap nahi kya, kar sakta hai yah narlok!
- Maithilisharan Gupt
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है अवनि और अम्बरतल में।
पुलक प्रकट करती है धरती, हरित तृणों की नोकों से,
मानों झीम रहे हैं तरु भी, मन्द पवन के झोंकों से॥
पंचवटी की छाया में है, सुन्दर पर्ण-कुटीर बना,
जिसके सम्मुख स्वच्छ शिला पर, धीर-वीर निर्भीकमना,
जाग रहा यह कौन धनुर्धर, जब कि भुवन भर सोता है?
भोगी कुसुमायुध योगी-सा, बना दृष्टिगत होता है॥
किस व्रत में है व्रती वीर यह, निद्रा का यों त्याग किये,
राजभोग्य के योग्य विपिन में, बैठा आज विराग लिये।
बना हुआ है प्रहरी जिसका, उस कुटीर में क्या धन है,
जिसकी रक्षा में रत इसका, तन है, मन है, जीवन है!
मर्त्यलोक-मालिन्य मेटने, स्वामी-संग जो आई है,
तीन लोक की लक्ष्मी ने यह, कुटी आज अपनाई है।
वीर-वंश की लाज यही है, फिर क्यों वीर न हो प्रहरी,
विजन देश है निशा शेष है, निशाचरी माया ठहरी॥
कोई पास न रहने पर भी, जन-मन मौन नहीं रहता;
आप आपकी सुनता है वह, आप आपसे है कहता।
बीच-बीच मे इधर-उधर निज दृष्टि डालकर मोदमयी,
मन ही मन बातें करता है, धीर धनुर्धर नई नई-
क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह, है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छन्द-सुमंद गंध वह, निरानंद है कौन दिशा?
बंद नहीं, अब भी चलते हैं, नियति-नटी के कार्य-कलाप,
पर कितने एकान्त भाव से, कितने शांत और चुपचाप!
है बिखेर देती वसुंधरा, मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता है उनको, सदा सवेरा होने पर।
और विरामदायिनी अपनी, संध्या को दे जाता है,
शून्य श्याम-तनु जिससे उसका, नया रूप झलकाता है।
सरल तरल जिन तुहिन कणों से, हँसती हर्षित होती है,
अति आत्मीया प्रकृति हमारे, साथ उन्हींसे रोती है!
अनजानी भूलों पर भी वह, अदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा, सदय भाव से सेती है॥
तेरह वर्ष व्यतीत हो चुके, पर है मानो कल की बात,
वन को आते देख हमें जब, आर्त्त अचेत हुए थे तात।
अब वह समय निकट ही है जब, अवधि पूर्ण होगी वन की।
किन्तु प्राप्ति होगी इस जन को, इससे बढ़कर किस धन की!
और आर्य को, राज्य-भार तो, वे प्रजार्थ ही धारेंगे,
व्यस्त रहेंगे, हम सब को भी, मानो विवश विसारेंगे।
कर विचार लोकोपकार का, हमें न इससे होगा शोक;
पर अपना हित आप नहीं क्या, कर सकता है यह नरलोक!
- मैथिलीशरण गुप्त
अर्थ
झीम = झपकी लेना
charu chandra ki chanchal kirne
charu chandra ki chanchal kirne, khel rahi hai jal thal mesavchchh chandani bichhi hui hai avani aur ambartal me
pulak prakat karti hai dharati, harit trino ki noko se
mano jheem rahe hai taru bhi, mand pawan ke jhonko se
panchvati ki chhaya me hai, sundar parn-kuteer bana,
jiske ammukh svchchh shila par, dheer-veer nirbhikmna,
jaag raha hai yah kaun dhunardhar, jab ki bhuvan bhar sota hai?
bhogi kusumayudh yogi-sa, bana drishtigat hota hai
kis vrat me hai vrti veer yah, nindra ka yo tyag kiye
rajbhogya ke yogya vipin me, baitha aaj virag liye
bana hua hai prahari jika, us kuteer me kya dhan hai
jiski raksha me rat iska, tan hai, man hai, jeevan hai!
martylok-malinya metne, swami-sang jo aai hai
teen lok ki laxmi ne yah, kuti aaj apnaai hai
veer-vansh ki laaj yahi hai, phir kyo veer n ho prahri
vijan desh hai nisha shesh hai, nishachari maya thahri
koi paas n rahne par bhi, jan-man maun nahi rahta
aap aapki sunta hai wah, aap aapse hai kahta
beech-beech me idhar-udhar nij drishti dalkar modmayi
man hi man baate karta hai, dheer dhanurdhar nai-nai
kya hi savchchh chandani hai yah, hai kya hi nistabdh nisha;
hai svchhand-sumand gandh wah, niranad hai kaun disha?
band nahi, ab bhi chalte hai, niyati nati ke kary-kalaap
par kitne ekant bhav se, kitne shant aur chupchap!
hai bikher deti vasundhara, moti, sabke sone par
ravi bator leta hai unko, sada sawera hone par
aur viramdayini apni, sandhya ko de jata hai
shunya shayam-tanu jisse uska, nya roop jhalkata hai
saral taral jin tuhin kano se, haansti harshit hoti hai
ati aatmiya prakriti hamare, sath unhi se tori hai
anjani bhulo par bhi wah, aday dand to deti hai
par budho ko bhi bachcho-sa, saday bhav se seti hai
terah varsh vyteet ho chukem par hai mano kal ki baat
van ko aate dekh hame ab, aart achet hue the taat
ab wah samay nikat hi hai jab, avadhi purn hogi van ki
kintu prapti hogi is jan ko, isse badhkar kis dhan ki
aur aary ko, rajy-bhar to, we prajarth hi dharenge
vyst rahenge, ham sab ko bhi, mano vivash visarenge
kar vichar lokopkar ka, hame n isse hoga shok
par apna heet aap nahi kya, kar sakta hai yah narlok!
- Maithilisharan Gupt