मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी के उद्धरण | Mustaq Ahmad Yusufi Quotes अंग्रेज़ी फिल्मों में लोग यूँ प्यार करते हैं जैसे तुख़्मी आम चूस रहे हैं। अंग्रेज़ों के...
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मुश्ताक़ अहमद यूसुफ़ी के उद्धरण | Mustaq Ahmad Yusufi Quotes in Hindi
अंग्रेज़ी फिल्मों में लोग यूँ प्यार करते हैं जैसे तुख़्मी आम चूस रहे हैं।
अंग्रेज़ों के मुतअ'ल्लिक़ ये मशहूर है कि वो तबअ'न कम-गो वाक़े' हुए हैं। मेरा ख़याल है कि वो फ़क़त खाने और दाँत उखड़वाने के लिए मुँह खोलते हैं।
अच्छा उस्ताद होने के लिए आलिम होने की शर्त नहीं।
अच्छे उस्ताद के अंदर एक बच्चा बैठा होता है जो हाथ उठा-उठा कर और सर हिला-हिला कर बताता जाता कि बात समझ में आई कि नहीं।
अच्छे तंज़निगार तने हुए रस्से पर इतरा-इतरा कर करतब नहीं दिखाते, बल्कि ‘रक़्स ये लोग किया करते हैं तलवारों पर’
अपनी शादी तो इस तरह हुई, जैसे लोगों की मौत होती है। अचानक, बग़ैर मर्ज़ी के।
आज़ाद शायरी की मिसाल ऐसी है जैसे बग़ैर नेट टेनिस खेलना।
आदमी अगर क़ब्ल-अज़-वक़्त न मर सके तो बीमे का मक़सद ही फ़ौत हो जाता है।
आदमी एक दफ़ा प्रोफ़ेसर हो जाए, तो उ'म्र भर प्रोफ़ेसर ही कहलाता है, चाहे बाद में वह समझदारी की बातें ही क्यों न करने लगे!
आदमी को ख़ाना अपनी बीवी के हाथ का पचता है और पान पराई के हाथ का रचता है।
आदमी बुल-हवसी में कमज़ोरी या काहिली दिखाये तो निरी आशिक़ी रह जाती है।
आप राशी, ज़ानी और शराबी को हमेशा ख़ुश-अख़्लाक़, मिलनसार और मीठा पाएँगे। इस वास्ते कि वह नख़्वत, सख़्त गिरी और बद-मिज़ाजी अफोर्ड ही नहीं कर सकते।
आपने शायद देखा होगा कि चीनियों का चेहरा उ'म्र से बे-नियाज़ होता है और अंग्रेज़ों का जज़्बात से आरी। बल्कि बा'ज़-औक़ात तो चेहरे से भी आरी होता है।
आसमान की चील, चौखट की कील और कोर्ट के वकील से ख़ुदा बचाए, नंगा करके छोड़ते हैं।
इख़्तिसार ज़राफ़त और ज़नाना लिबास की जान है।
इन्सान का कोई काम बिगड़ जाए तो नाकामी से इतनी कोफ़्त नहीं होती जितनी उन बिन मांगे मश्वरों और नसीहतों से होती है जिनसे हर वो शख़्स नवाज़ता है जिसने कभी उस काम को हाथ तक नहीं लगाया।
इन्सान वो वाहिद हैवान है जो अपना ज़हर दिल में रखता है।
इस ज़माने में सौ फ़ी सद सच्च बोल कर ज़िंदगी करना ऐसा ही है जैसे बज्री मिलाए बग़ैर सिर्फ सिमेंट से मकान बनाना।
इससे ज़ियादा बद-नसीबी और क्या होगी कि आदमी एक ग़लत पेशा अपनाए और उसमें कामयाब होता चला जाए।
इस्लाम के लिए सबसे ज़्यादा क़ुर्बानी बकरों ने दी है।
इस्लामिक वर्ल्ड में आज तक कोई बकरा नेचुरल डेथ नहीं मरा।
ईजाद और औलाद के लच्छन पहले ही से मालूम हो जाया करते तो दुनिया में न कोई बच्चा होने देता और न ईजाद।
उम्र-ए-तबीई तक तो सिर्फ़ कव्वे, कछुवे, गधे और वो जानवर पहुंचते हैं जिनका खाना शर्अ़न हराम है।
एक उम्र ऐसी आती है कि आदमी को तोहमत से भी ख़ुशी होती है।
एक फ़्रेंच अदीबा क्या ख़ूब कह गयी हैं कि मैं आदमियों को जितने क़रीब से देखती हूँ, उतने ही कुत्ते अच्छे लगते हैं।
औरत की एड़ी हटाओ तो उसके नीचे से किसी न किसी मर्द की नाक ज़रूर निकलेगी।
औरतें पैदाइशी मेहनती होती हैं। इसका अंदाज़ा इससे लगा लें कि सिर्फ़ 12 फ़ीसद ख़्वातीन ख़ूबसूरत पैदा होती हैं, बाक़ी अपनी मेहनत से यह मुक़ाम हासिल करती हैं।
किसी अच्छे भले काम को ऐ'ब समझ कर किया जाए तो उसमें लज़्ज़त पैदा हो जाती है। यूरोप इस गुर को अभी तक नहीं समझ पाया। वहाँ शराब-नोशी ऐ'ब नहीं। इसीलिए उसमें वो लुत्फ़ नहीं आता।
किसी ख़ूबसूरत औरत के मुतअ'ल्लिक़ ये सुनता हूँ कि वो पारसा भी है तो न जाने क्यों दिल बैठ सा जाता है।
कुछ लोग इतने मज़हबी होते हैं कि जूता पसन्द करने के लिए भी मस्जिद का रुख़ करते हैं।
कुत्ते की उर्दू में ले दे के दो क़िस्में हैं। दूसरी को बिरादर-ए-ख़ुर्द कहते हैं।
ख़ाली बोरी और शराबी को कौन खड़ा कर सकता है।
ख़ून, मुश्क़, इशक़ और ना-जायज़ दौलत की तरह उम्र भी छुपाए नहीं छुपती।
गाने वाली सूरत अच्छी हो तो मोहमल शेअर का मतलब भी समझ में आ जाता है।
ग़ालिब दुनिया में वो अकेला शायर है जो समझ में ना आया तो दुगना मज़ा देता है।
गाली, गिन्ती, सर्गोशी और गंदा लतीफ़ा तो सिर्फ़ अपनी मादरी ज़बान में ही मज़ा देता है।
गुंजान कारोबारी शहर में मछली और मेहमान पहले ही दिन बदबू देने लगते हैं।
ग़ुस्सा जितना कम होगा उस की जगह उदासी लेती जाएगी।
घोड़े और औरत की ज़ात का अंदाज़ा उसकी लात और बात से किया जाता है।
छोटे मुल्कों के मौसम भी तो अपने नहीं होते। हवाएँ और तूफ़ान भी दूसरे मुल्कों से आते हैं। ज़लज़लों का मर्कज़ भी सरहद पार होता है।
जब आदमी को यह न मालूम हो कि उसकी नाल कहाँ गड़ी है और पुरखों की हड्डियां कहाँ दफ़्न हैं तो मनी प्लांट की तरह हो जाता है। जो मिट्टी के बग़ैर सिर्फ़ बोतलों में फलता-फूलता है।
जब शेर और बकरी एक ही घाट पर पानी पीने लगें तो समझ लो कि शेर की नीयत और बकरी की अक़्ल में फ़ितूर है।
जवान लड़की की एड़ी में भी आँखें होती हैं। वह चलती है तो उसे पता होता है कि पीछे कौन, कैसी नज़रों से देख रहा है।
जवानी दीवानी का दफ़ बीवी से मारा जाता है। बीवी का दफ़ औलाद से मारते हैं।
जाड़े और बुढ़ापे को जितना महसूस करोगे उतना ही लगता चला जाएगा।
ज़िक्-ए-गुनाह अमल-ए-गुनाह से कहीं ज़्यादा लज़ीज़ होता है।
जितना वक़्त और रुपया बच्चों को “मुस्लमानों के साईंस पर एहसानात” रटाने में सर्फ़ किया जाता है, दसवाँ हिस्सा भी बच्चों को साईंस पढ़ाने में सर्फ़ किया जाए तो मुसलमानों पर बड़ा एहसान होगा।
जिस आसमान पर कबूतर, शफ़क़, पतंग और सितारे न हों ऐसे आसमान की तरफ़ नज़र उठा कर देखने को जी नहीं चाहता।
जिस दिन बच्चे की जेब से फ़ुज़ूल चीज़ों के बजाये पैसे बरामद हों तो समझ लेना चाहिए कि उसे बेफ़िक्री की नींद कभी नसीब नहीं होगी।
जो अपने माज़ी को याद ही नहीं करना चाहता, वो यक़ीनन लोफ़र रहा होगा।
जो देश जितना ग़रीब होगा, उसमें उतना ही आलू और मज़हब का चलन ज़्यादा होगा।
जो शख़्स कुत्ते से भी न डरे उसकी वलदियत में शुब्हा है।
ताअन-ओ-तशनीअ से अगर दूसरों की इस्लाह हो जाती तो बारूद ईजाद करने की ज़रूरत पेश न आती।
ताश के जितने भी खेल हैं वो मर्दों ने एक दूसरे को चुप रखने के लिए ईजाद किए हैं।
थाने, हवालात या जेल में आदमी चार घंटे भी गुज़ार ले तो ज़िंदगी और हज़रत-ए-इन्सान के बारे में इतना कुछ सीख लेगा कि यूनिवर्सिटी में चालीस बरस रह कर भी नहीं सीख सकता।
दाग़ तो दो ही चीज़ों पर सजता है, दिल और जवानी।
दिलों के क़ुफ़्ल (ताला) की कलीद (चाबी) लफ़्ज़ में नहीं लहजे में होती है।
दुनिया में ग़ीबत से ज़्यादा जल्दी हज़म होने वाली कोई चीज़ नहीं।
दुनिया में जहां कहीं, जो कुछ हो रहा है, वो हमारी इजाज़त के बग़ैर हो रहा है।
दुश्मनी के लिहाज़ से दुश्मनों के तीन दर्जे होते है—दुश्मन, जानी दुश्मन और रिश्तेदार।
देगची से तहज़ीब-याफ़्ता इंसान वो काम लेता है जो क़दीम ज़माने में मे'दे से लिया जाता था। या'नी ग़िज़ा को गलाना।
दौलत, सियासत, औरत और इबादत पूरी यकसूई, सर-ता-पा सुपुर्दगी चाहती हैं। ज़रा ध्यान भटका और मंज़िल खोटी हुई।
नज़र-ए-इंसाफ़ से देखा जाए तो मौसम की बुराई तहज़ीब-ए-अख़लाक़ का एक मुअस्सिर ज़रिया है। इसलिए कि अगर मौसम को बुरा-भला कह कर दिल का ग़ुबार निकालना शहरी आदाब में दाख़िल न होता तो लोग मजबूरन एक दूसरे को गालियाँ देने लगते।
नशा और आत्मकथा में जो ना खुले उससे डरना चाहिए।
नाई की ज़रूरत सारी दुनिया को रहेगी जब तक कि सारी दुनिया सिक्ख धर्म ना अपना ले और सिक्ख ऐसा कभी होने नहीं देंगे।
पहाड़ और अधेड़ औरत दर अस्ल ऑयल पेंटिंग की तरह होते हैं, उन्हें ज़रा फ़ासले से देखना चाहिए।
पाकिस्तानी अफ़वाहों की सबसे बड़ी ख़राबी यह है कि सच्च निकलती हैं।
पाकिस्तानी बिज़नेस मैन, ब्यूरोक्रेट और बैंकर की डिक्शनरी में 'इंटेलेक्चुअल’ से ज़्यादा सड़ी गाली कोई नहीं।
प्राइवेट अस्पताल और क्लीनिक में मरने का सबसे बड़ा फ़ायदा यह है कि मरहूम की जायदाद, जमा-जत्था और बैंक बैलेंस के बंटवारे पर पसमानदगान में ख़ून-ख़राबा नहीं होता, क्योंकि सब डॉक्टरों के हिस्से में आ जाता हैं।
फूल जो कुछ ज़मीं से लेते हैं, उससे कहीं ज़्यादा लौटा देते हैं।
बंदर में हमें इसके इलावा और कोई ऐब नज़र नहीं आता कि वो इन्सान का जद्द-ए-आला है।
बढ़िया सिगरेट पीते ही हर शख़्स को माफ़ कर देने का जी चाहता है, चाहे वो रिश्तेदार ही क्यों न हो!
बाज़-औक़ात ग़रीब को मूंछ इसलिए रखनी पड़ती है कि वक़्त-ए-ज़रूरत नीची कर के जान की अमान पाए।
बात ये है कि घरेलू बजट के जिन मसाइल पर मैं सिगरेट पी पी कर ग़ौर किया करता था, वो दर-अस्ल पैदा ही कसरत-ए-सिगरेट-नोशी से हुए थे।
बादशाहों और मुतलक़-उल-अनान हुकमुरानों की मुस्तक़िल और दिल-पसंद सवारी दर-हक़ीक़त रिआया होती है।
बीती हुई घड़ियों की आरज़ू करना ऐसा ही है जैसे टूथपेस्ट को वापिस ट्यूब में घुसाना।
बुढ़ापे की शादी और बैंक की चौकीदारी में ज़रा फ़र्क़ नहीं। सोते में भी आँख खुली रखनी पड़ती है।
बे-सबब दुश्मनी और बदसूरत औरत से इश्क़ हक़ीक़त में दुश्मनी और इश्क़ की सबसे न-खालिस क़िस्म है। यह शुरू ही वहां से हुई हैं जहाँ अक़्ल ख़त्म हो जावे है।
भुट्टे, मुर्ग़ी की टाँग, प्याज़ और गन्ने पर जब तक दाँत न लगे, रस पैदा नहीं होता।
मज़ाह निगार के लिए नसीहत, फ़ज़ीहत, और फ़हमाइश हराम हैं।
मज़ाह लिखना अपने लहू में तप कर निखरने का नाम है।
मर्ज़ का नाम मालूम हो जाए तो तकलीफ़ तो दूर नहीं होती, उलझन दूर हो जाती है।
मर्द इश्क़-ओ-आशिक़ी सिर्फ़ एक मर्तबा करता है, दूसरी मर्तबा अय्याशी और उसके बाद निरी अय्याशी।
मर्द की आँख और औरत की ज़बान का दम सबसे आख़िर में निकलता है।
मर्द की पसंद वो पुल-सिरात है जिस पर कोई मोटी औरत नहीं चल सकती।
माज़ी हर शैय के गिर्द एक रूमानी हाला खींच देता है, गुज़रा हुआ दर्द भी सुहाना लगता है।
मिडिल क्लास ग़रीबी की सबसे क़ाबिल-ए-रहम और ला-इलाज क़िस्म वो है जिसमें आदमी के पास कुछ न हो लेकिन उसे किसी चीज़ की कमी महसूस न हो।
मीठा पान, ठुमरी और नॉवेल, ये सब नाबालिगों के शुग़्ल हैं।
मुझे इस पर क़तई ताज्जुब नहीं होता कि हमारे मुल्क में पढ़े-लिखे लोग ख़ूनी पेचिश का इलाज तावीज़-गण्डों से करते हैं। ग़ुस्सा इस बात पर आता है कि वो वाक़ई अच्छे हो जाते हैं।
मुझे रौशन ख़्याल बीवी बहुत पसंद है... ब-शर्त कि वो किसी दूसरे की हो।
मुर्ग़ की आवाज़ उसकी जसामत से कम-अज़-कम सौ गुना ज़्यादा होती है। मेरा ख़्याल है कि अगर घोड़े की आवाज़ इसी मुनासिबत से होती तो तारीख़ी जंगों में तोप चलाने की ज़रूरत पेश न आती।
मुसलमान लड़के हिसाब में फ़ेल होने को अपने मुसलमान होने की आसमानी दलील समझते हैं।
मुसलमान हमेशा एक अमली क़ौम रहे हैं। वो किसी ऐसे जानवर को मुहब्बत से नहीं पालते जिसे ज़िब्ह कर के खा ना सकें।
मुहावरे ज़बान के बढ़े हुए नाख़ून होते हैं।
मूँगफली और आवारगी में ख़राबी यह है कि आदमी एक दफ़ा शुरू कर दे तो समझ में नहीं आता कि ख़त्म कैसे करे।
मेज़ाह की मीठी मार भी शोख़ आँख, पुरकार औरत और दिलेर के वार की तरह कभी खाली नहीं जाती।
मेज़ाह, मज़हब और अल्कोह्ल हर चीज़ में ब-आसानी मिल जाते हैं।
मेरा अक़ीदा है कि जो क़ौम अपने आप पर जी खोल कर हँस सकती है वो कभी ग़ुलाम नहीं हो सकती।
मेरा ताल्लुक़ उस भोली-भाली नस्ल से है जो ये समझती है कि बच्चे बुज़ुर्गों की दुआओं से पैदा होते हैं।
मैंने कभी पुख़्ताकार मौलवी या मेज़ाह निगार को महज़ तक़रीर-ओ-तहरीर की पादाश में जेल जाते नहीं देखा।
मौसम, माशूक़ और हुकूमत का गिला हमेशा से हमारा क़ौमी तफ़रीह मशग़ला रहा है।
याद रखो, हर वो जानवर जिसे मुसलमान खा सकते हैं, पाक है।
यूँ तो दुनिया में ग़ीबत से ज़्यादा ज़ूद-हज़्म कोई चीज़ नहीं लेकिन ये कबाब भी हलक़ से उतरते ही जुज़्व-ए-बदन हो जाते हैं।
लफ़्ज़ों की जंग में फ़तह किसी भी फ़रीक़ की हो, शहीद हमेशा सच्चाई होती है।
लाहौर की चंद गलियाँ इतनी तंग हैं कि अगर एक तरफ़ से मर्द और दूसरी तरफ़ से औरत गुज़र रही हो तो दरमियाँ में सिर्फ़ निकाह की गुंजाइश रह जाती है।
लाहौर की बाअ्ज़ गलियाँ इतनी तंग हैं कि अगर एक तरफ़ से औरत आ रही हो और दूसरी तरफ़ से मर्द तो दरमियान में सिर्फ़ निकाह की गुंजाइश बचती है।
शराब को ड्रिंक्स कहा जाये तो कम हराम मालूम होती है।
शरीफ़ घरानों में आई हुई दुल्हन और जानवर तो मर कर ही निकलते हैं।
शेर कितना ही फुजूल और कमज़ोर क्यों ना हो उसे ख़ुद काटना और हज़्फ़ करना इतना ही मुश्किल है जितना अपनी औलाद को बदसूरत कहना या ज़ंबूर से अपना हिलता हुआ दाँत ख़ुद उखाड़ना।
शेर, हवाई जहाज़, गोली, ट्रक और पठान रिवर्स गियर में चल ही नहीं सकते।
सच तो ये है कि हुकूमतों के अ'लावा कोई भी अपनी मौजूदा तरक़्क़ी से मुत्मइन नहीं होता।
सच्च बोल कर ज़लील-ओ-ख़्वार होने की जगह झूठ बोल कर ज़लील-ओ-ख़्वार होना बेहतर है। आदमी को कम-अज़-कम सब्र तो आ जाता है कि किस बात की सज़ा मिली है।
समझदार आदमी नज़र हमेशा नीची और नियत ख़राब रखता है।
सिर्फ 99 प्रतिशत पुलिस वालों की वजह से बाक़ी 1 प्रतिशत भी बदनाम हैं।
सुबह उस वक़्त नहीं होती जब सूरज निकलता है। सुबह उस वक़्त होती है जब आदमी जाग उठे।
सूद और सर्तान को बढ़ने से कोई नहीं रोक सकता।
सूद, शराब, अपने अफ़सरों की तारीख़-ए-पैदाई और जुए की हार-जीत का हिसाब रखने के लिए सूअर के चमड़े की डायरी से बेहतर और कोई चीज़ नहीं हो सकती।
हमारा अक़ीदा है कि जिसे माज़ी याद नहीं रहता उसकी ज़िंदगी में शायद कभी कुछ हुआ ही नहीं, लेकिन जो अपने माज़ी को याद ही नहीं करना चाहता वो यक़ीनन लोफ़र रहा होगा।
हमारी गायकी की बुनियाद तब्ले पर है, गुफ़्तगू की बुनियाद गाली पर।
हमारे ज़माने में तरबूज़ इस तरह ख़रीदा जाता था जैसे आज कल शादी होती है… सिर्फ़ सूरत देखकर।
हमारे मुल्क की अफ़वाहों की सबसे बड़ी ख़राबी ये है कि वो सच निकलती हैं।
हर दुख, हर अज़ाब के बाद ज़िंदगी आदमी पर अपना एक राज़ खोल देती है।
हिस्स-ए-मेज़ाह ही दर अस्ल इन्सान की छटी हिस है। यह हो तो इन्सान हर मुक़ाम से ब-आसानी गुज़र जाता है।
हुकूमतों के अलावा कोई भी अपनी मौजूदा तरक़्क़ी से ख़ुश नहीं होता।
होम्योपैथी का बुनियादी उसूल ये है कि छोटा मरज़ दूर करने के लिए कोई बड़ा मरज़ खड़ा कर दो। चुनाँचे मरीज़ नज़ले की शिकायत करे तो दवा से निमोनिया के असबाब पैदा कर दो। फिर मरीज़ नज़ले की शिकायत नहीं करेगा। होम्योपैथी की करेगा।
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