खुद को क्यूँ जिस्म का ज़िंदानी करें
खुद को क्यूँ जिस्म का ज़िंदानी करेंफिक्र को तख़्त-ए-सुलेमानी करें
देर तक बैठ के सोचें खुद को
आज फिर घर में बियाबानी करें
अपने कमरे में सजाएं आफाक़
जलसा-ए-बे-सर-ओ-सामानी करें
उमर भर शेर कहें खून थूकें
मुन्तखिब रास्ता-ए-नुक्सानी करें
खुद के लिए मोल लें इजहार का कर्ज़
दूसरों के लिए आसानी करें
शेर के लब पे खामोशी लिखें
हर्फ़-ए-ना-गुफ्ता को ला-सानी करें
कीमियाकारी है फ़न अपना साज़
आग को बैठे हुए पानी करें - अब्दुल अहद साज़
khud ko kyo jism ka zindani kare
khud ko kyo jism ka zindani karefikr ko takht-e-sulemani kare
der tak baith ke soche khud ko
aaj fir ghar me biyabani kare
apne kamre me sajaye aafaq
jalsa-e-be-sar-o-samani kare
umar bhar sher kahe khun thuke
muntkhib rasta-e-nuksani kare
khud ke liye mol le ijhar ka karj
dusro ke liye aasani kare
sher ke lab pe khamoshi likhe
harf-e-na-gufta ko la-sani kare
kimiyakari hai fan apna saaz
aag ko baithe hue paani kare- Abdul Ahad Saaz
खूबसूरत ग़ज़ल है ...
Khoobsoorat ghazal