कितना सफर - लीलाधर मंडलोई

कितना सफर जाने किस वक्त की रहगुज़र पे तू ये शिकस्ता जिस्म और दस्त-ए-तन्हाई बैठा हूँ सांस रोके पीटने हेरता हूँ घायल चाँद को मै

कितना सफर

जाने किस वक्त की रहगुज़र पे तू
ये शिकस्ता जिस्म और दस्त-ए-तन्हाई
बैठा हूँ सांस रोके पीटने
हेरता हूँ घायल चाँद को मै

झरते है कुछ बेतासीर लफ्ज़ बस
कभी कोई आहट
कभी सरगोशी
और एक पर्ची जो चीख-चीख जाती है

रात के इस बेकिनार सेहरा में
नक्श धुंधले है रास्तो के सभी
जमीं महवर से हट रही जैसे
चिराग आँखों के इस कदर मद्धिम
कि हरेक लम्हा पकड़ से बाहर

कितना है फासला और कितना सफ़र
ये तेरा जिस्म तातवा है और मै हूँ
- लीलाधर मंडलोई


kitna safar

jane kis waqt ki rahguzar pe tu
ye shiksta zism aur dast-e-tanhaai
baitha hun saan roke peetne
herta hun ghayal chaand ko mai

jharte hai kuchh betasir lafz bas
kabhi koi aahat
kabhi sargoshi
aur ek parchi jo cheekh-cheekh jati hai

raat ke is bekinar sehra me
naqsh dhundhle hai rasto ke sabhi
zameen mahwar se hat rahi jaise
chiragh aankho ke is kadar maddhim
ki harek lamha pakad se bahar

kitna hai fasla aur kitna safar
ye tera zism tata hai aur mai hun
Leeladhar Mandloi

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