निर्मला (उपन्यास) (भाग 22) - मुंशी प्रेमचंद

निर्मला (उपन्यास) (भाग -22) - मुंशी प्रेमचंद

निर्मला (उपन्यास) - मुंशी प्रेमचंद

भाग 22

अनुक्रम
पिछला भाग
निर्मला सारी रात रोती रही। इतना बड़ा कलंक! उसने जियाराम को गहने ले जाते देखने पर भी मुँह खोलने का साहस नही किया। क्यों? इसीलिए तो कि लोग समझेंगे कि वह मिथ्या दोषारोपण करके लड़के से बैर साध रही है। आज उसके मौन रहने पर उसे अपराधिनी ठहराया जा रहा है। यदि वह जियाराम को उसी क्षण रोक देती; और जियाराम लज्जावश कहीं भाग जाता, तो क्या उसके सिर अपराध न मढ़ा जाता?

सियाराम ही के साथ उसने कौन सा दुर्व्यवहार किया था। वह कुछ बचत करने ही के विचार से तो सियाराम से सौदा मँगवाया करती थी। क्या वह बचत करके अपने लिए गहने गढ़वाना चाहती थी? जब आमदनी का यह हाल हो रहा था, तो पैसे-पैसे पर निगाह रखने के सिवाय कुछ जमा करने का उसके पास और साधन ही क्या था ? जवानों की जिन्दगी का तो कोई भरोसा ही नहीं, बूढ़ों की जिन्दगी का क्या ठिकाना ? बच्ची के विवाह के लिए वह किसके सामने हाथ फैलाती ? बच्ची का भार कुछ उसी पर तो नहा था। वह केवल पति की सुविधा ही के लिए कुछ बटोरने का प्रयत्न कर रही थी। पति हो की क्यों ? सियाराम ही तो पिता के बाद घर का स्वामी होता । बहिन के विवाह करने का भार क्या उसके सिर न पड़ता ? निर्मला सारी कतर-व्यात पति और पुत्र का सङ्कट मोचन करने ही के लिए कर रही थी। बच्ची का विवाह इस परिस्थिति में सङ्कट के सिवाय और क्या था ? पर इसके लिए भी उसके भाग्य में अपयश ही बदा था।

दोपहर हो गया था ; पर आज भी चूल्हा नहीं जला । खाना भी जीवन का काम है-इसकी किसी को सुध ही न थी। मुन्शी जी बाहर बेजान-से पड़े थे, और निर्मला भीतर । बच्ची कभी भीतर जाती, कभी बाहर । कोई उससे बोलने वाला न था। बार-बार सियाराम के कमरे के द्वार पर जाकर खड़ी होती; और 'बैया-वैया' पुकारती ; पर 'वैया' कोई जवाब न देता था!

सन्ध्या समय मुन्शी जी आकर निर्मला से बोले तुम्हारे पास कुछ रुपए हैं ?

निर्मला ने चौंक कर पूछा-क्या कीजिएगा ?

मुन्शी जी-मैं जो पूछता हूँ उसका जवाब दो।

निर्मला -- क्या आपको नहीं मालूम है? देने वाले तो आप ही हैं।

मुन्शी -- तुम्हारे पास कुछ रुपए हैं या नहीं? अगर हों तो मुझे दे दो, न हों तो साफ़ जवाब दो।

निर्मला ने अब भी साफ़ जबाव न दिया। बोली -- होंगे तो घर ही में न होंगे। मैं ने कहीं और तो नहीं भेज दिए।

मुन्शी जी बाहर चले गए। वह जानते थे कि -- निर्मला के पास रुपए हैं। वास्तव में थे भी। निर्मला ने यह भी नहीं कहा कि नहीं हैं, या मैं न दूँगी; पर उसकी बातों से प्रकट हो गया कि वह देना नहीं चाहती।

नौ बजे रात को मुन्शी जी ने आकर रुक्मिणी से कहा -- बहिन, मैं ज़रा बाहर जा रहा हूॅ। मेरा विस्तरा भुङ्गी से बँधवा देना; और ट्रक में कुछ कपड़े रखवा कर बन्द कर देना।

रुक्मिणी भोजन बना रही थी; बोली -- बहू तो कमरे में है, कह क्यों नहीं देते? कहाँ जाने का इरादा है?

मुन्शी जी -- मैं तुमसे कहता हूँ; बहू से कहना होता,तो तुमसे क्यों कहता? आज तुम क्यों खाना पका रही हो?

रुक्मिणी -- कौन पकावे? बहू के सिर में दर्द हो रहा है। आखिर इस वक्त़ कहाँ जा रहे हो? सबेरे न चले जाना।

मुन्शी जी -- इसी तरह टालते-टालते तो आज तीन दिन हो गए। इधर-उधर घूम-धाम कर देखूँ, शायद कहीं सियाराम का पता मिल जाय। कुछ लोग कहते हैं कि एक साधू के साथ बातें कर रहा था। शायद वही कहीं बहका ले गया हो।

रुक्मिणी -- तो लौटोगे कब तक?

मुन्शी जी -- कह नहीं सकता। हफ्त़ा भर लग जाय, महीना भर लग जाय; क्या ठिकाना है?

रुक्मिणी -- आज कौन दिन है? किसी पण्डित से पूछ लिया है, यात्रा है कि नहीं?

मुन्शी जी भोजन करने बैठे। निर्मला को इस वक्त़ उन पर बड़ी दया आई। उसका सारा क्रोध शान्त हो गया। ख़ुद तो न बोली, बच्ची को जगा कर चुमकारती हुई बोली -- देख,तेरे बाबू जी कहाँ जा रहे हैं? पूछ तो।

बच्ची ने द्वार से झाँक कर पूछा -- बाबू दी,तहाँ दाते हो?

मुन्शी जी -- बड़ी दूर जाता हूँ,बेटी। तुम्हारे बैया को खोजने जाता हूँ।

बच्ची ने वहीं से खड़े-खड़े कहा -- अम बी तलेंगे।

मुन्शी जी -- बड़ीं दूर जाते हैं बच्ची। तुम्हारे वास्ते चीज़ें लावेंगे! यहाँ क्यों नहीं आती?

बच्ची मुस्करा कर छिप गई; और एक क्षण में फिर किवाड़ से सिर निकाल कर बोली -- अम बी तलेंगे।

मुन्शी जी ने उसी स्वर में कहा -- तुम को नंई ले तलेंगे।

बच्ची -- अम को क्यों नईं ले तलोगे?

मुन्शी जी -- तुम तो हमारे पाछ आती नहीं हो। लड़की ठुमकती हुई आकर पिता की गोद में बैठ गई। थोड़ी देर के लिए मुन्शी जी उसकी बाल-क्रीड़ा में अपनी अन्तर्वेदना भूल गए।

भोजन करके मुन्शी जी बाहर चले गए। निर्मला खड़ी ताकती रही। कहना चाहती थी-व्यर्थ जा रहे हो;पर कह न सकती थी। कुछ रुपए निकाल कर देने का विचार करती थी;पर दे न सकती थी।

अन्त को न रहा गया। रुक्मिणी से बोली-दीदी जी,जरा समझा दीजिए,कहाँ जा रहे हैं। मेरी तो जबान पकड़ी जायगी;पर बिना बोले रहा नहीं जाता। बिना ठिकाने कहाँ खोजेंगे? व्यर्थ की हैरानी होगी।

रूक्मिणी ने करुण-सूचक नेत्रों से देखा;और अपने कमरे में चली गई।

निर्मला बच्ची को गोद में लिए सोच रही थी कि शायद जाने के पहले बच्ची को देखने या मुझसे मिलने के लिए आवें; पर उसकी आशा विफल हो गई। मुन्शी जी ने विस्तर उठाया और ताँगे पर जा बैठे।

उसी वक्त निर्मला का कलेजा मसोसने लगा। उसे ऐसा जान पड़ा कि अब इनसे भेंट न होगी। वह अधीर होकर द्वार पर आई कि मुन्शी जी को रोक ले; पर ताँगा चल दिया था!

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