गुप्तकथा - गोपालराम गहमरी

गुप्तकथा - गोपालराम गहमरी

SHARE:

गुप्तकथा - गोपाल राम गहमरी पहली झाँकी जासूसी जान पहचान भी एक निराले ही ढंग की होती है। हैदर चिराग अली नाम के एक धनी मुसलमान सौदागर का बेटा था। उससे..

गुप्तकथा - गोपाल राम गहमरी

पहली झाँकी

जासूसी जान पहचान भी एक निराले ही ढंग की होती है। हैदर चिराग अली नाम के एक धनी मुसलमान सौदागर का बेटा था। उससे जासूस की गहरी मिताई थी। उमर में जासूस से हैदर चार पाँच बरस कम ही होगा, लेकिन शरीर से दोनों एक ही उमर के दीखते थे। मुसलमान होने पर भी हैदर जैसे और मुसलमान हिंदुओं से छिटके फिरते हैं, वैसे नहीं रहता था। काम पड़ने पर हैदर जासूस के साथ अठवाड़ों दिन रात रह जाता और जासूस भी कभी-कभी हैदर के घर जाकर उसके बाप चिराग से मिलता, उसके पास बैठकर बात करता था। चिराग अली भी इस ढंग से रहता था कि उसको जासूस अपने बड़ों की तरह मानता जानता था।

उन दिनों चिराग अली सत्तर से टप गया था। उज्ज्वल गौर बदन पर सफेद दाढ़ी मूँछ, सब शरीर भरा हुआ कांतरूप देखकर चिराग अली में सबकी भक्ति हो सकती है। इस बूढ़ेपन में भी देखने से जान पड़ता है कि चिराग अली चढ़ती जवानी में एक सुंदर रूपवान रहा होगा।

चिराग अली को कभी किसी ने किसी से टूट कर बोलते भी नहीं देखा। कोई उसका कुछ अपमान भी करे तो चिराग उसको सह लेता और उससे हँसकर बोलता था। कोई भीख माँगने वाला चिराग के द्वार से खाली हाथ नहीं गया।

सुनते हैं चिराग अली ने पहले बोट का काम शुरू किया और उसी काम से वह होते-होते एक मशहूर धनी हो गया। अपने बाहुबल से चिराग ने धन कमाकर राजमहल सा निवास भवन बनवाया और बहुत सा रुपया खजाने में जमा किया।

चिराग अली के महल में सदा आदमियों की भीड़ रहती थी। अपने परिवार में तो चिराग को अपनी बीवी, बेटे, बेटे की बीवी और कुछ छोटे-छोटे बच्चों के सिवाय और कोई नहीं थे किंतु धन होने पर जगत में मीत भी खूब बढ़ जाते हैं, इसी कारण चिराग के घर में खचाखच आदमी भर गए थे। उनमें बाप बेटे के नौकर चाकर स्त्रियों की दासी और बहुत से ऐसे नर नारी का समागम था जो धनहीन होने के कारण चिराग अली के साये में आ गए थे। चिराग अली अपने घर ही आए हुए गरीबों को नहीं पालते थे बल्कि बाहर भी बनेक दुखी दरिद्र लोगों का पेट भरते थे। इन सब बातों को कहने के बदले इतना ही ठीक होगा कि चिराग अली जैसे गंभीर मिलनसार और सबसे मीठे बोलने वाले थे वैसे ही दानी भी खूब थे। दया से उनका हृदय भरा पूरा था।

हैदर बाप के समान मीठा बोलने वाला और दानी नहीं था तो भी बुरे स्वभाव का आदमी नहीं था। हैदर का चाल चलन और दीन दुखियों पर उसकी समता देखने वाले मन में कहते थे कि वह भी बाप की तरह एक दयालु और दीनबंधु हो जाएगा।

बाप बेटे के चाल चलन के बारे में जो कुछ यहाँ हमने कहा है, उससे अब और कहने का काम नहीं है। हम इतना ही कहकर उनके गुणवर्णन का अध्याय पूरा करते हैं कि चिराग अली मानों अपने नगर का चिराग ही था। और सब लोगों में उसकी जैसी मान महिमा थी अपनी बिरादरी में भी वैसी ही बड़ाई थी। जहाँ कहीं जातीय सभा समाज भरती, वहीं चिराग अली को सभापति संपादक होना पड़ता। जहाँ कहीं किसी तरह का पंचायती मामला आता वहाँ चिराग अली के राय बिना उसका निबटारा नहीं होता था। मतलब यह कि हर तरह के काम में चिराग अली ही अगुआ था।

दूसरी झाँकी

दो तीन महीने बाद जब जासूस बाहर का काम करके कलकत्ते पहुँचा, उसके दूसरे दिन सवेरे पौ फटते ही हैदर उसके पास आया। पहले जैसे वह जासूस मिलता था आज उसका मिलना वैसा नहीं था। हैदर का चेहरा ही देखकर जासूस ने ताड़ लिया कि, हो न हो आज कुछ दाल में काला है। हैदर मुँह से बात करता है लेकिन भीतर धुकधुकी लगी है। आँखों से देखता है लेकिन उनमें पहले सी ज्योति नहीं हैं।

उसको देखकर जासूस ने पूछा - 'क्यों हैदर! आज तुम्हारा चेहरा ऐसा क्यों है? घर में सब कुशल तो है? पिताजी तो अच्छे हैं न?'

हैदर ने कहा - 'आपका समझना ठीक है। मैं सचमुच बहुत दुखी हूँ। और उस दुख को कहने ही के लिए आपके आया हूँ मेरे बाप मरने की दशा को पहुँचे हैं। अब जान निकले कि तब, बस यही बात हो रही है डाक्टर वैद्य दवा करते हैं सेवा के लिए भी नौकर चाकर उनको हाथों हाथ लिए हुए हैं, लेकिन किसी तरह उनकी बीमारी में बीच नहीं पड़ता। उनसे कोई हाल पूछे तो कुछ बतलाते नहीं। इतना ही कहते हैं कि, अबकी बचना नहीं है चाहे कितनी ही दवा दारू करो। अब मेरा मरने का ही दिन आ गया है। अब कहिए क्या किया जाए? मेरी तो अकल काम नहीं करती। अभी मैंने सुना कि, आप कल बाहर से आए हैं। इसी से दौड़ा आया हूँ कि उनका हाल सुनकर आप कुछ तदबीर बतलावेंगे।'

जासूस ने पूछा - 'अच्छा! उनको क्या हुआ है सो कहो तो मैं अपनी राय पीछे कहूँगा।'

'अच्छा आप सुनिए मैं उनका सब हाल कहता हूँ।' कहकर हैदर कहने लगा -

'तीन महीने हुए। एक दिन मैं संध्या को पिता के पास बरामदे में बैठा था। इतने में एक बूढ़े मुसलमान मेरे पिता से मिलने आए, ज्योंही आकर हम लोगों के पास की पड़ी कई कुरसियों में से एक पर बैठे त्योंही उन्होंने पिताजी से कहा - 'क्यों? आप मुझे पहचानते नहीं हैं?'

पिता ने कहा - 'आपका चेहरा हमें याद तो आता है लेकिन यह नहीं याद आता कि आपसे कहाँ मिले थे।'

जवाब में बूढ़े ने कहा - 'मै एक बात बतला देता हूँ उसी से आपको याद आ जावेगा। मैं आपसे बंबई प्रदेश के एक गाँव में मिला था। आपको वहाँ के अली भाई का नाम याद होगा, मैं भी वहीं रहता हूँ मेरा नाम इब्राहिम भाई है।'

इतना सुनते ही पिता जी का चेहरा बदल गया। उन्होंने मुझे कहा - 'बेटा! तुम थोड़ी देर को यहाँ से हट जाव मैं इनसे बात करूँगा।'

पिता की बात सुनकर मैं वहाँ से चला गया। फिर उन लोगों में क्या-क्या बात हुई सो मैं नहीं जानता। उनकी उमर पिता से ऊँची थी। सदा वह पिता जी के पास रहते थे इसी से मैं उनका कुछ पता भी नहीं जान सका वह तभी से मेरे घर रहने लगे। उनको रहने को पिता जी ने एक कोठरी ठीक कर दी उनके आराम को दो नौकर भी दे दिए गए।

पिता को कोई और आकर उसका पता पूछता तो वह इतना ही कहते थे कि, वह लड़कपन के साथी हैं।

पहले ही दिन की बात सुनकर मैंने इतना समझा था कि उनका नाम इब्राहिम भाई है और बंबई की ओर किसी एक गाँव के रहने वाले हैं। इसके सिवाय उनका और कुछ भी हाल मैं आज तक नहीं जानता।

पहले पहल तो वह बहुत सीधे सादे से मालूम हुए लेकिन जब वह पुराने हो चले तब उन्होंने अपना बड़ा रोब जमाया। हम लोगों को दबाने लगे। नौकर चाकरों पर बेकाम का हुक्म जारी करने लगे। जो उनका हुक्म नहीं माने व मानने में देर करे उसको पिता के सामने ऊँच नीच कहने के सिवाय मारपीट भी करने लगे। पिताजी उनका वह व्यवहार देखकर कुछ भी नहीं बोलते थे। इस कारण नौकर लोग सब सहने लगे। जिनसे नहीं सहा गया वह नौकरी छोड़कर चले जाने लगे। यहाँ तक कि, बहुत से पुराने नौकर नौकरी छोड़कर चले गए। हम लोगों को उनके चले जाने से बड़ा दुख हुआ। पिताजी उस बूढ़े पर क्यों इस तरह दया करते थे इसका कारण कुछ भी हम लोगों को मालूम नहीं हुआ।

व्यापार का सब काम जिस नौकर के हाथ में था उसको भी एक दिन बूढ़े ने बहुत ऊँच नीच कहा और बिना कसूर उसको इतना सताया कि, उससे सहा नहीं गया। उसने अपना सब दुख पिताजी से कह सुनाया। उस समय बूढ़ा भी पिताजी के पास बैठा था। पिताजी के सामने भी बूढ़े ने उसको बहुत सी बातों का बाण मारा। जब वहाँ भी पिता ने कुछ नहीं कहा तब वह पुराना विश्वासी नौकरी छोड़कर उसी दम यह कहता चला गया कि, अब इस दरबार में नौकरी करने का दिन नहीं रहा। भले आदमियों की इज्जत अब यहाँ नहीं बचती।

उसके चले जाने के बाद उसका सब काम मेरे सिर पड़ा। मुझसे जैसे बना मैं सब करता ही था। एक दिन उस बूढ़े ने मेरे पास आकर कि, 'हैदर! एक चिलम तंबाकू तो भर ला।'

उसकी बात सुनकर मैंने एक नौकर से कहा कि, उनको एक चिलम तंबाकू भरकर ला दे।

इतना सुनते ही बूढ़ा आग हो गया। उसने कड़क कर कहा - 'क्यों हैदर! तेरा इतना कलेजा! मेरा हुक्म नहीं मानता? मैंने जो काम करने का हुक्म दिया उसे न करके दूसरे नौकर को करने का हुक्म दिया? तेरे बाप ने जो काम काम आज तक नहीं किया वह काम तूने मेरे सामने कर दिखाया?'

उस इब्राहिम भाई पर हम लोगों को पहले ही से बहुत रंज था, लेकिन, पिताजी के सबब से हम लोग उससे कुछ नहीं कह सकते थे। लेकिन, उस दिन तो मुझसे उसकी बात नहीं सही गई और मैं एक जूता लेकर यह कहता हुआ उठा कि, अच्छा मैं अपने हाथ से ही तेरा कहना किए देता हूँ। और पास जाकर उसके सिर पर कई जमा दिए।

बूढ़ा जलते तेल का बैगन होकर उठा और मुझे बहुत अंडबंड बकता हुआ चला गया। मैंने उसकी ओर फिर आँख उठाकर भी नहीं देखा।

इस तरह उसको मेरे हाथ से पीटे जाते देखकर और सब लोग मन में कितने खुश हुए सो मैं नहीं कह सकता।

इस घटना के कुछ समय पीछे पिताजी ने मुझे बुला भेजा। मैं जब उनके सामने गया तब देखा वह बूढ़ा भी वहीं उनके पास बैठा था। उसको दिखाकर पिता ने कहा -

'क्यों बेटा! तुमने इनको जूते से मारा है?'

मैंने कहा - 'हाँ पिताजी! अपमान से जब क्रोध के मारे नहीं रहा गया तब मुझे ऐसा करना पड़ा।' इतना कहकर उसने मुझे जो तंबाकू भर लाने को कहा था वह सब बात कह डाली और उसने और नौकरों के साथ जो व्यवहार किया था वह भी जहाँ तक याद आया पिताजी से कह सुनाया। मेरी बात सुनकर पिताजी थोड़ी देर तक चुप रहे फिर कहने लगे -

'ओफ! तुमने बहुत खराब काम किया है। देखो तुम्हारे एक चिलम तंबाकू भर देने से ही यह खुश थे तो उसको कर देने से ही सब बखेड़ा मिट जाता। तुमने वैसा न करके बड़ा खराब काम किया है।'

पिता की बात सुनकर क्रोध के मारे मेरा शरीर काँपने लगा। मैंने बाप के सामने जैसी बात कभी नहीं कही थी वैसी बात कह डाली। मैंने उनकी बात से बिगड़कर कहा -

'पिताजी! आपने कभी मुझे तंबाकू भरना तो सिखलाया नहीं, न तंबाकू भरने का हुक्म दिया कि मैं उस काम को सीखता। फिर जो काम ऐसा नीच है जिसको मैंने कभी नहीं किया, वैसा काम करने के लिए मुझे वह आदमी कहे जो पराया अन्न खाकर पेट पालता है। आप चाहें खुश हों या न हों मैं उसके कहने से ऐसा काम नहीं कर सकता।' इतना सुनकर पिताजी ने कहा -

'अरे बेसहूर तूने ऐसा खराब काम किया है जैसा कोई नहीं करेगा। जिनको मैं इतना आदर करता हूँ उनको तुमने जूते से मारा उस पर अपने खराब काम और कसूर की माफी तो क्या माँगेगा उलटे लंबा-लंबा जवाब दे रहा है। तुमको समझना चाहिए कि तुमने जो जूते मारे वह उनके सिर नहीं पड़े मेरे सिर पर पड़े हैं। तुमने उनको नहीं मारा मुझको मारा है। अब तुमको चाहिए कि किसी तरह हाथ पाँव पड़कर इनसे माफी माँगो नहीं तो तुम्हारे हक में अच्छा नहीं है।' मैंने उनकी बात सुन कर कहा -

'मेरे हक में अच्छा हो या न हो लेकिन इस बात में मैं आपका कहना नहीं कर सकता। आप हमें बिलकुल अनुचित हुक्म दे रहे हैं। इसकी मार से आप क्यों दुखी हुए हैं, वह मेरी समझ में नहीं आता। यह बड़ा नीच आदमी है, साधारण पाहुने की तरह घर में आकर अब यह अपने को घर मालिक समझता है और हम सब लोगों को नौकर चाकर गिनता है। इसको अपनी पहली हालत याद नहीं है। अभी इसको मैंने इसकी करनी का पूरा फल नहीं दिया है। मैं आपके सामने कह देता हूँ, अगर यह फिर हमारे साथ इस तरह करेगा तो मैं आपके आगे ही इसे मारे जूतों के रँग दूँगा। और उसी दम कान पकड़कर बाहर करूँगा।' मेरी बात सुनकर पिताजी बोले -

'देखो हैदर! मैंने समझा था कि तुम हमारी लायक औलाद हो। दया माया सब बातों में लोग तुमको मेरी ही तरह आदर से देखेंगे। लेकिन अब मैं देखता हूँ तो तुमको बिलकुल उलटा पाता हूँ। जो बेटा बाप की बात टाल दे उसका मुँह देखना भी पाप है। तू अभी मेरे सामने से दूर हो जा। बड़े लोग कहते आए हैं कि पिता की बात न मानने वाला बेटा बेटा नहीं है।' अब मैंने पिता की बात सुनकर कहा -

'पिताजी आप मुझ पर नाहक क्रोध करते हैं। दंड दीजिए तो दोनों को दीजिए। और नहीं तो आप हमारे जन्मदाता पिता हैं आपका हुक्म मुझे सरासर आँखों से मानना है। इसी से आपकी बात मानकर मैं यहाँ से जाता हूँ लेकिन जाती बार इस बूढ़े को सिखलाए जाता हूँ।'

इतना कहकर मैंने अपने पाँव से जूता निकालकर उस इब्राहिम भाई को खूब बाजार भाव दिया। पिताजी ने बहुतेरा उनको बचाना चाहा लेकिन बूढ़ेपन से शरीर कमजोर के सबब 'अरेरे, हैं! अरे पाजी! दूर हो दूर!' इतना कहने के सिवाय और कुछ नहीं कह सके। पिता ने चिल्लाकर नौकरों को बुलाया लेकिन वहाँ कोई नहीं आया, तब मैं मनमाना उनकी जूतन दास से पूजा करके इतना कहता हुआ चला गया कि अब फिर भी तुम यहाँ रहे तो जानिए कि हमारे ही हाथ तुम्हारा काल है।'

मुझ पर पिताजी इतना गुस्सा हुए थे कि उनके मुँह से फिर बात नहीं निकली वह वहीं बैठे काँपते रह गए।

वहाँ से तो हट गया लेकिन घर छोड़कर कहीं नहीं गया। पास के एक कमरे में छिपकर सुनने लगा कि अब वहाँ क्या होता है। मैंने एक दरार से देखा कि बूढ़ा वहाँ से उठा और पिताजी से बोला -

'देखो अली साहब! मैं जाता हूँ लेकिन इसका बदला ले लूँ तब मेरा नाम इब्राहिम भाई नहीं तो नहीं।' वह बूढ़ा वहाँ से चला गया। पिता ने उसको बहुत रोका लेकिन उसने कुछ न माना। वह घमंड के मारे उनकी बात न मानकर वहाँ से चला गया।

तीसरी झाँकी

जिस दिन वह बूढ़ा मेरे घर से चला गया उसी दिन से पिताजी का रंग बदला। उनके चेहरे पर कालिमासी पड़ गई। सदा वह किसी चिंता में चुपचाप रहने लगे। चिंता के साथ ही साथ उनका आहार भी घट गया, पहले जो उनका आहार था उसका अब दसवाँ भाग भी वह भोजन नहीं कर सकते थे।

जिस दिन पिता के सामने उस बूढ़े को जूते लगाकर वहाँ से चला आया उसी दिन से फिर मैं पिता के सामने नहीं गया, लेकिन छिपकर सदा देखता रहा कि पिताजी क्या करते हैं, कैसे रहते हैं, उनका दिन कैसे बीतता है उसका सब हाल मैं नौकरों से लिया करता था। पिताजी की यह दशा देखकर मैं भी डर गया कि क्या होगा? इब्राहिम भाई के अपमान से पिताजी ने भी सचमुच अपना अपमान समझा है या क्या? मुझे इस बात की बड़ी चिंता हुई कि पिताजी किस कारण इतना दुखी हुए हैं और क्यों उनकी ऐसी दशा हो रही है। मैं दिनोंदिन इस बात की खोज करने लगा परंतु कुछ भी पता नहीं लगा कि क्या बात है? एक दिन सवेरे पिताजी अपनी बैठक में बैठे थे, देखने से मालूम पड़ता था कि वह किसी गहरी चिंता में चित्त दिए हुए कुछ मन ही मन विचार कर रहे हैं। इतने में डाकपियन ने आकर उनके हाथ में एक चिट्ठी दी। उसको बैठक में आकर अपने हाथ पिता को चिट्ठी देते हुए मैं बहुत अकचकाया, क्योंकि अब तक वह सदा द्वारपाल या और नौकरों को चिट्ठी दे जाता था। कभी भीतर बैठक में आकर अपने हाथ से पिताजी को चिट्ठी देते हुए मैंने उसके पहले किसी डाकपियन को नहीं देखा था।

लेकिन जब पीछे वह चिट्ठी मेरे हाथ आई तब देखा कि उस पर लिखा था, जिसके नाम चिट्ठी है उसके सिवाय किसी और के हाथ में नहीं देना।

डाकपियन के चले जाने पर पिताजी ने उस चिट्ठी को खोलकर पढ़ा। एक बार नहीं दो बार नहीं बीसों बार उसको बड़े उत्साह से पढ़ने के बाद चिट्ठी को अपनी जेब में रख लिया।

चिट्ठी पढ़ने के पीछे पिताजी का चेहरा बदल गया। उनके कालिमामय बदन पर हँसी की उज्जवल रेखा दीख पड़ी। बहुत दिनों की प्रसन्नता जो उनके बदन से एक तरह से दूर हो गई थी, उस दिन फिर मेरे देखने में आई।

चिट्ठी के पढ़ने के पीछे पिताजी को खुश होते देख मुझे भी बडा आनंद हुआ। मैंने समझा कि पिताजी ने चिट्ठी में कुछ ऐसा शुभ समाचार पाया है जिससे उनकी चिंता दूर हो गई है। किंतु पीछे जब देखा कि उनका खुश होना बहुत थोड़ी देर के लिए था तब मन में बहुत डरा। मुझे मालूम हुआ कि बुझता हुआ चिराग जैसे अंत में एक बार चमक उठता है। मरते समय मनुष्य जैसे एक बार थोड़ी देर को सब रोगों से छुटकारा पा जाता है, पिताजी का खुश होना भी ठीक वैसा ही था।

पिताजी उस चिट्ठी को पढ़ते ही प्रसन्न होकर उठे और एक नौकर को बुलाकर हुक्म दिया कि देखो बीमारी से कई अठवाड़े बीते मेरा नहाना खाना ठीक नहीं होता, आज स्नान भोजन का ठीक-ठीक प्रबंध करना। मेरा शरीर आज भला चंगा है। हुक्म पाकर नौकर ने ऐसा ही किया। उस दिन खुशी मन से पिताजी ने आहार भी अच्छी तरह किया। आहार करने के पीछे कुछ समय लेट जाने का उनको अभ्यास था लेकिन उस दिन उसका उल्टा देखकर मुझे बड़ी चिंता हुई।

पिताजी ने आहार के पीछे ही बैठक में आकर चिट्ठी लिखना शुरू किया। इस बात से मुझे और चिंता हुई। पिताजी सदा चिट्ठी लिखने का काम नौकरों को देते थे। उस दिन पिताजी को अपने हाथ से चिट्ठी लिखते मैंने पहले पहल देखा। चिट्ठी लिखना पिताजी ने भोजन करने के बाद ही शुरू किया था किंतु अंत कब किया सो मुझे मालूम नहीं। रात के दो बजे तक जब मैंने देखा कि उनका चिट्ठी लिखना खतम नहीं हुआ तब मैं सो गया फिर कब उनकी चिट्ठी पूरी हुई सो मुझे मालूम नहीं हुआ।

दूसरे दिन जब मैं पलंग से उठा तो देखा कि पिताजी सो रहे हैं। सदा सवेरे जब वह पलंग से उठते थे उससे दो तीन घंटे बाद भी नहीं उठे तब एक नौकर ने उनको जगाना चाहा। पिताजी ने उसको कहा कि -

'मेरा शरीर अच्छा नहीं है। न मुझ सेज से उठने की ताकत है।'

'नौकर के मुँह से ऐसी बात सुनकर मुझसे अब रहा नहीं गया। जिस दिन इब्राहिम भाई को मैंने जूते लगाए थे उसी दिन से मैं पिताजी के सामने नहीं जाता था, लेकिन जब पिताजी की वैसी बीमारी सुनी तो नहीं रहा गया। उसी दम उनके कमरे में जाकर सेज पर एक कोने में बैठा। उनके बदन पर हाथ फेरकर देखा तो सारा शरीर आग हो रहा था। मैंने पिताजी से पूछा कि आपको क्या हुआ है? शरीर कैसा है?

'मेरी बात सुनकर पिताजी बोले - 'बेटा! मुझे क्या हुआ है सो मैं खुद नहीं जान सकता तुम्हें क्या बतलाऊँगा। लेकिन इतना मालूम पड़ता है कि मुझे बड़े जोर का ज्वर हुआ है और इस ज्वर से मैं अब बच नहीं सकूँगा। इसी के हाथ मेरा काल है।' उनकी बात सुनकर मैंने कहा -

'पिताजी! ज्वर तो बहुत लोगों को हुआ करता है। आप इससे इतना क्यों डरते हैं? फिर कलकत्ते में डाक्टर वैद्यों की भी कमी नहीं है। उनकी दवा से आप ठीक हो जाएँगे।' मेरी बात सुनकर पिताजी बोले -

'जब मैं खूब जानता हूँ कि इस बार मेरा आराम होना नहीं लिखा है तब बेकाम रुपया फेंकने से क्या लाभ होगा?' मैंने उनके जवाब में कहा - 'रुपया है किसके वास्ते। यह सब अपार धन किसका है। जिंदगी भर कमाई करके आपने यह धन जमा किया फिर आप ही के लिए यह धन नहीं खर्च किया जाए तो इस धन से क्या होगा? किस काम में लगाया जाएगा। आप चाहे मानें या न मानें मैं इसमें अब देर नहीं करूँगा। आपका शरीर सुधारने और आपको भला करने के लिए जितना रुपया लगेगा लगाऊँगा। इसमें आपके मना करने से मैं नहीं मानूँगा। मैं अभी जाकर उसका उपाय करता हूँ।' इतना कहकर वहाँ से चला गया। और उनकी सेवा सहाय के लिए जितने दास दासी थे उनसे और अधिक नौकर नौकरानी लगा दिए। अपने पुराने और विश्वासी कर्मचारीगणों से सलाह लेकर कलकत्ते के चतुर अनुभवी नामी डाक्टर वैद्यों को बुलाकर पिताजी के इलाज में लगाए। लेकिन सब कुछ होने पर भी दिनोंदिन पिताजी की बीमारी बढ़ने लगी। वैद्य और डाक्टरों ने जितना ही सावधानी से दवा की उतना ही रोग बढ़ता गया। किसी दवा से लाभ नहीं हुआ। सबने उल्टा फल दिखलाया। इस शहर में अब ऐसे कोई नामी डाक्टर नहीं रहे जिन्होंने पिताजी को एक बार नहीं देखा हो। इस समय उनकी दशा बहुत खराब है। अब उनके जीने का कुछ भी भरोसा नहीं है। उनको आप भी मरती बार चलकर देख लें तो अच्छा हो। आप अभी मेरे साथ चलें तो बेहतर है।

चौथी झाँकी

हैदर की सब कथा कान देकर जासूस ने सुन ली। जासूस चिराग अली को बहुत मानता था, हैदर की बात सुनते ही उसी दम वहाँ से उठा और हैदर की गाड़ी में बैठकर उसके बाप से मिलने को चला। लेकिन रास्ते में जासूस को तरह-तरह की चिंता होने लगी। चिराग अली के घर में इब्राहिम भाई का पाहुना होकर आना, चिराग अली का उसको देवता की तरह मानना, हैदर का उसको जूते लगाना, क्रोध में आकर इब्राहिम का वहाँ से चला जाना, इन सब बातों के साथ चिराग अली की बीमारी का कुछ संबंध है या नहीं, यही विचार जासूस के चित्त में आया। चिराग अली ने वह चिट्ठी कहाँ पाई, उसमें क्या लिखा था? उस चिट्ठी को पढ़ने के पीछे उसका रंग क्यों बदला था? फिर चिराग अली ने दो बजे रात से भी अधिक समय तक बैठकर अपने हाथ से लिखा था, वह क्या था? उन्होंने जो चिट्ठी पाई थी, उसी का उत्तर था या क्या? अगर उसी का उत्तर था तो उसे उन्होंने कैसे उसके पास भेजा? मन ही मन जासूस ने विचार कर हैदर से पूछा - 'तुम्हारे पिता को जो चिट्ठी मिली थी; वह किसने भेजी थी, उसमें क्या लिखा था, इसका तुमको कुछ हाल मिला है?'

हैदर - 'उस पत्र में क्या लिखा था, कहाँ से आया था, किसने उसको भेजा था इस बात को जानने के लिए मेरी भी इच्छा हुई थी। यहाँ तक कि वह चिट्ठी मेरे पास आ गई। अब भी वह हमारे पास है, लेकिन उसमें क्या लिखा है सो अब तक मेरी समझ में नहीं आया। उसपर लिखने वाले की सही भी नहीं है। आप देखिए शायद समझ सकें।'

इतना कहकर हैदर ने एक चिट्ठी जासूस को दी। जासूस ने उस चिट्ठी को कई बार पढ़ा, लेकिन कुछ भी उसका मतलब नहीं मालूम हुआ। चिट्ठी में जो लिखा था।

'अली! सब ठीक हो चुका है। अब कुछ देर नहीं है। तैयार हो जाव।

शहर बंबई।'

जासूस ने उसे पढ़कर हैदर के हवाले किया और कहा - 'लो रखो। इस चिट्ठी से तो कुछ भी इसका मतलब नहीं मालूम हो सकता। इतना जाना जाता है कि इस चिट्ठी के लिखनेवाले ने तुम्हारे पिता से कोई काम करने के लिए कहा था। उसने उस काम को पूरा करके तुम्हारे पिता को लिखा है, लेकिन तुम्हारे पिता ने किसको किस काम के लिए कहा था, इसको वह जब तक आप नहीं बतलावेंगे तब तक जानने का कुछ उपाय नहीं है। इस चिट्ठी को पाकर जो तुम्हारे पिता खुश हुए थे, इसका कारण यही है कि उन्होंने अपने काम में सफलता सुनकर ही प्रसन्नता दिखाई थी। इस चिट्ठी की लिखी बात से उनकी बीमारी का कुछ भी लगाव नहीं मालूम पड़ता। उन्होंने जो लंबी चिट्ठी लिखी थी उसके विषय में कुछ जानते हो?'

हैदर - 'जानने का उपाय तो बहुत किया, लेकिन कुछ भी जान नहीं सका।'

जासूस - 'अच्छा आपने यह भी कुछ मालूम किया कि जिसके लिए वह चिट्ठी लिखी गई उसको वह भेजी गई या नहीं?'

हैदर - 'मैं जहाँ तक जानता हूँ जिस रात को वह पूरी हुई, उस रात को तो रवाना नहीं हुई, क्योंकि दो बजे रात तक मैं खुद जागता रहा और बाद का हाल नौकरों से पूछा तो उन्होंने भी ऐसी कोई बात नहीं कही, जिससे उसका रवाना होना मालूम होता।'

जासूस - 'तो मैं समझता हूँ उन्होंने जो कुछ लिखा था वह चिट्ठी नहीं थी। उन्होंने अपनी बीमारी से मरने का अनुमान करके अपने मरे पीछे अपनी संपत्ति का प्रबंध करने के लिए वसीयत लिखी होगी और उसे कहीं बाहर भेजा भी नहीं, उनके घर में ही कहीं पड़ी होगी।

हैदर - 'मैंने खूब ढूँढ़ा लेकिन घर में उसका कहीं पता नहीं चला।' दोनों में ऐसी ही बातें हो रही थीं कि हैदर के मकान के सामने आ पहुँची।

पाँचवी झाँकी

हैदर और जासूस दोनों ही गाड़ी से उतर कर भीतर जाते हैं कि जनानखाने से रुलाई सुनाई दी। जाना गया कि हम लोगों के वहाँ पहुँचने से पहले ही चिराग अली का शरीर छूट गया।

चिराग अली को मरा जानकर जासूस लौट जाना चाहता था, लेकिन इस दशा में हैदर को छोड़कर जासूस से लौटते नहीं बना। आँसू सँभालता हुआ जासूस हैदर के साथ कुहरामपुरी में गया लेकिन वहाँ जाने पर मालूम हुआ कि चिराग अली के कमरे में जाने का कोई ढंग नहीं है। भीतर के महल से जिन स्त्रियों ने बाहर कभी पाँव नहीं रखा था, उन्होंने भी चिराग अली की बैठक में आकर चिल्ला चिल्लाकर आकाश फाड़ना शुरू किया है। नौकर चाकर सब अलग खड़े अपने आँसू पोंछ रहे हैं। महल में रहने वालों में कोई ऐसा नहीं जिसकी आँखों से आँसू न बहता हो।

जासूस के साथ हैदर भीतर गया, लेकिन वहाँ की दशा देखने पर उससे अब रहा नहीं गया, अधीर होकर लड़के की तरह रोने लगा। अब हैदर को चुप कराना कोई सहज काम नहीं है, ऐसा समझकर जासूस ने दो चार पुराने विश्वासी नौकरों को अलग बुलाकर समझाया और कहा कि स्त्रियों को कह दो जनाने में चली जाएँ। चिराग अली के मरने की खबर सुनकर थोड़ी देर में यहाँ शहर के इतने आदमी आ जावेंगे कि तिल रखने को भी जगह नहीं बचेगी। बेहतर हो कि वह अब तुरंत भीतर चली जावें और उनका सब काम जैसा आपके यहाँ होता है किया जाए।

उन नौकरों ने वैसा ही किया। सब स्त्रियों को भीतर भिजवा दिया। जब बैठक स्त्रियों से खाली हो गयी, चिराग अली का शरीर बाहर लाया गया। उसको मुसलमानी धर्म के अनुसार पलंग पर रखकर अनेक लोग दफन करने को ले गए। साथ में हैदर भी गया।

बैठक में अब अकेला जासूस ही रह गया। मृत शरीर बिदा होने पीछे चिराग अली के अनेक हितमित्र वहाँ आए लेकिन सब चले गए। दो ही तीन आदमी उनमें से जासूस के साथ वहाँ बैठे रहे।

अब घर सूना पाकर जासूस अपना काम करने लगा। पहले धीरे से उसी घर में पहुँचा जिसमें चिराग अली बीमार होकर पड़े थे। देखा तो वहाँ जिस पलंग पर हैदर के पिता पड़े थे वहाँ दो चार टेबल, कुर्सी, तिपाई के सिवाय उस घर में कुछ नहीं था। उस घर में जासूस को जाते देखकर चिराग अली का एक नौकर वहाँ पहुँचा। उसको जासूस ने कई बार चिराग अली के पास देखा था। उन्होंने उसे चिराग अली का पुराना और विश्वासी नौकर समझा था। उसको देखते ही जासूस ने उससे पूछा - 'क्यों जी! यही चिराग अली के सोने का कमरा है?'

नौकर - 'हाँ साहब कुछ दिन तो इसी में सोते थे। उनके सिवाय और किसी को यहाँ सोने का हुक्म नहीं था।'

जासूस - 'कितने दिनों से वह इस घर में सोते थे?'

नौकर - 'हम तो पाँच सात बरस से उनको इसी घर में सोते देखते थे?'

जासूस - 'उनका संदूक वगैर किस घर में रहता है?'

नौकर - 'उनको मैंने किसी चीज को कभी अपने हाथ से कहीं रखते नहीं देखा। जब उनको जो चीज की दरकार होती उसको वह हैदर अली साहब से माँग लेते थे या किसी नौकर से माँगते थे।'

जासूस - 'वह अपने जरूरी कागज पत्र कहाँ रखते थे?'

नौकर - 'हमने तो उनको कोई भी कागज पत्र अपने हाथ से रखते नहीं देखा।'

जासूस - 'और रुपए पैसे?'

नौकर - 'रुपए पैसे भी हमने कभी उनको अपने हाथ से छूते नहीं देखा। जब जरूरत होती नौकरों को हुक्म देकर पूरा करते थे।'

जासूस - 'चिराग अली ने मरने से पहले अपने हाथ एक बड़ा कागज लिखा था तुमने देखा था?'

नौकर - 'हाँ देखा था। एक दिन दिन-रात बैठकर उन्होंने बहुत सा लिखा था।'

जासूस - 'तुमको मालूम है, उन्होंने उसको कहाँ रखा था?'

नौकर - 'मैं नहीं जानता कि उन्होंने उसको क्या किया?'

जासूस - 'उसे वह किसी को दे तो नहीं गए?'

नौकर - 'किसी को देते भी नहीं देखा। जान पड़ता है उन्होंने किसी को दिया भी नहीं। दिया होता तो हम लोग जरूर जान जाते।'

जासूस - 'तो फिर उसको किया क्या?'

नौकर - 'मैं तो समझता हूँ कहीं रख गए हैं।'

जासूस - 'रख गए हों तो कहाँ रख सकते हैं तुम जान सकते हो?'

नौकर - 'रखने की तो कोई जगह मुझे नहीं मालूम होती। अगर रखा होगा तो जरूर इसी घर में कहीं न कहीं होगा। इससे बाहर तो नहीं रख सकते थे।'

जासूस - 'अच्छा आओ हम तुम मिलकर खोजें देखें इस घर में से कागज को बाहर कर सकते हैं या नहीं?'

अब दोनों उस घर में वही चिराग अली का लिखा लंबा कागज ढूँढ़ने लगे। उस घर में कुछ बहुत सामान भरा तो नहीं था। पलंग के सिवाय घर में ढूँढ़ डालने में पूरे पाँच मिनट भी नहीं लगे।

इसके पीछे पलंग ढूँढ़ने लगे। ऊपर जो पाँच छह तकिए रखे थे उनको खूब देखने पर भी दोनों को कहीं कागज का पता नहीं लगा। फिर दो चादर बिछी थी, उनको भी उठा कर फेंक दिया। नीचे दो तोसक थे। वह भी उठाया गया, लेकिन कहीं कागज का पता नहीं लगा। तोसक के नीचे तीन गद्दियाँ बिछी थीं। ऊपर की गद्दी निकाल डाली तो भी कुछ हाथ नहीं आया।

जब जासूस ने झटकारकर दूसरी गद्दी फेंकी तब देखता क्या है कि दूसरी और तीसरी गद्दी के बीच में एक बड़ा लिफाफा पड़ा है। उसको जासूस ने उठाकर देखा तो उसपर लिखा था - 'मेरे जीते जी कोई इस लिफाफे को पावे तो बिना खोले हुए मेरे पास लौटा दे।' बस इसके नीचे चिराग अली की सही। उसको पढ़ते ही जासूस ने समझ लिया कि चिराग अली ने मरने से पहले दिन-रात जागरण करके जो कागज लिखा था वह इसी लिफाफे के भीतर है, जासूस के मन में उस लिफाफे को खोलकर पढ़ने की उत्कंठा हुई लेकिन फिर मन में कुछ सोचकर यही ठीक किया कि, जब तक हैदर अली कब्रिस्तान से न लौट आवे तब तक खोलना या पढ़ना उचित नहीं है।

छठी झाँकी

हैदर अपने बाप को दफन करके सब लोगों के साथ जब घर लौट आया तब जासूस ने उसके हाथ में वही गद्दी के नीचे पाया हुआ बड़ा लिफाफा दिया और जैसे उसको पाया था सो सब कह सुनाया।

हैदर उसको लेकर पहले ऊपर का लिखा पढ़ा, फिर तुरंत लिफाफे को फाड़कर भीतर से लंबी चिट्ठी निकाली वह चिट्ठी के ही ढंग पर लिखी थी लेकिन लंबी बहुत थी। उसकी लिखावट देखते ही हैदर ने कहा - 'यह कागज हमारे बाबा के हाथ ही का लिखा हुआ है।'

इतना कहकर हैदर ने वह लंबी चिट्ठी जासूस के हाथ मे दिया और कहा - 'मैं बहुत थका हुआ हूँ आप ही पढ़ डालिए देखे क्या लिखा हैं?'

जासूस हैदर से चिट्ठी लेकर पढ़ने लगा। उसमें यह लिखा था :

'बेटा हैदर! तुम्हीं एक मेरे लड़के हो। तुमको भी मालिक ने लड़का दिया है। इससे तुम खूब समझ सकते हो कि तुम हमारे कैसे प्यार हो। जिस दिन तुम्हारे ऊपर नाखुश होकर मैंने तुमको सामने से दूर कर दिया था उस दिन की बात मुझे याद है? एक साधारण बेजान पहचान के आदमी को मारा था। मैंने उसके लिए तुम्हारा अपमान किया लेकिन वह इब्राहिम भाई कौन था सो मैंने तुमको नहीं बतलाया। उसको मैं इतना क्यों मानता था, उसके अनेक बड़े बड़े कसूर मैं क्यों माफ कर डालता था, उसके समान आदमी का इतना आदर मैंने क्यों किया था, इसके बतलाने का उस दिन अवसर नहीं था, आज उन सब बातों के बतलाने का मौका आया है।

'मैं जानता हूँ कि वह तुम्हारे ऊपर बहुत जुल्म करते थे, हमारे बहुत पुराने और विश्वासी नौकरों को भी सताते थे, कई बार मैंने उनको दास दासियों पर बेकसूर मारपीट करते देखा है, बहुत से लायक आदमी उन्हीं के जुल्म से हमारा घर छोड़कर चले गए। उन नौकरों के चले जाने से तुम लोगों को बहुत दुख हुआ तो भी मैं उन दिनों उनका हाल तुमसे नहीं कह सका वह सब कहने का मौका अब आया है।

'वह कौन थे और मैं उनके इतने अपराध क्यों सहता हूँ यह सब तुम उन दिनों जान सकते तो उनके अपराधों की ओर तुम भी कुछ ध्यान नहीं देते, वह जो कुछ करते सब तुम भी चुपचाप देखते रहते। लेकिन ऐसा न करने से तुम इसमें कुछ भी कसूरवार नहीं हो। तुम्हारा इसमें रत्ती भर भी दोष नहीं है। मैं अब उनका सब हाल कहने के पहले अपनी ही कथा कहता हूँ उसी से तुम सब समझ जावोगे।

'देखो बेटा! मेरा असल नाम चिराग अली नहीं है न मैं इस कलकत्ते में पैदा हुआ हूँ। मेरा असल नाम अली भाई है। बंबई हाते का मदनपुर गाँव मेरा जन्मस्थान है। इब्राहिम भाई जहाँ रहते हैं वहीं का मैं भी पैदा हुआ हूँ। मेरे बाबा कुछ बहुत मशहूर नहीं तो कोई साधारण आदमी भी नहीं थे। मैं किसी बहुत बड़े धनी के घर में पैदा न होने पर भी जैसे धनी और कुमार्गी लोगों लड़कपन में संग होने से चाल चलन बिगड़ जाता है वैसे ही मेरी भी गति हुई। बेटा! मैं अपना यह सब हाल तुमसे कहते हुए शरमाता हूँ और मैं समझता हूँ तुम इस बात को समझते होगे। लेकिन क्या करूँ मैं इन सब गुप्त बातों को तुमसे न कह जाऊँ तो तुम जिंदगी भर संदेह में पड़े रहोगे। इसी से पिता को जो बात पुत्र से कहना लोकाचार से बाहर है, उसी को मैं आज कहता हूँ।

'जिस गाँव में मैं रहता था वहाँ एक धनी जमीदार था। वह मेरे ही बराबर का एक लड़का छोड़कर मर गया। उन दिनों मैं सोलह या सत्तरह बरस का होऊँगा। मुझसे उस धनी पुत्र की मिताई थी। बहुधा धनी के लड़कों चाल चलन जैसा होता है, उसका भी ठीक वैसा ही था। फिर उसके सदा साथ रहने से मेरा चाल चलन वैसा ही बिगड़ जाएगा, इसमें क्या संदेह था। अपने बाप के मरने पर बहुत बड़े धन का मालिक होकर उसने अपना चाल चलन और बिगाड़ दिया। उसके साथ मेरे सिवाय और भी जो दो चार कुमार्गी थे, सबने मिलकर उसके धन से बड़ी मौज मारी और इतना कुकर्म करने लगे कि उस गाँव में भले आदमियों को स्त्री पुत्र के साथ रहना कठिन हो गया। हम लोगों की आँख जिस गृहस्थ की बेटी बहन पर पड़ती थी उसको छल से हो चाहे बल से हो चाहे धन से हो किसी तरह बिना बिगाड़े नहीं रहते थे। हम लोगों के दूत ऐसे लट्ठ थे कि जिस कसम को कहो उसको तुरंत का तुरंत पूरा कर देते थे, इसी तरह कुकर्म करते हम लोगों को कुछ दिन बीत गए किसी तरह हम लोगों का पापाचार नहीं घटा।

'जिस गाँव में मैं रहता था, उसके पास ही एक दूसरे गाँव में हमारी ही जाति का एक बहुत बड़ा धनी आदमी था। उसके एक सुंदरी जवान लड़की थी। उस सुंदरी पर हमारे उसी धनी मित्र की आँख पड़ी। उसको हाथ में लाने के लिए हम लोगों ने बहुत सी तदबीर की, जब किसी तरह मतलब नहीं निकला तो तब हम लोगों ने डाकूपना करना शुरू किया। एक दिन उस सुंदरी का बाप कहीं किसी काम को बाहर गया, उसके साथ उसके घर के और कई नौकर गए थे। हम लोगों ने जासूस लगा रखे थे। जिस दिन यह खबर मिली उसी रात को हम लोगों नें अपना मतलब पूरा करने की तैयारी की। और ठीक आधी रात को हम लोग अपने साथियों सहित उसके घर में घुस गए और उस सुंदरी लड़की को लेकर आ गए। इस काम के कर डालने के बाद बड़ा गोलमाल हुआ। उसका बाप खबर पाकर बाहर से लौट आया। घर आते ही उसने थाने में इत्तिला की। पुलिस वाले कमर कसकर उस लड़की को खोज में निकले। उन्होंने खूब ढूँढ़ खोज करने पीछे थककर रिपोर्ट की कि डकैती की इत्तिला जो गई है वह झूठी बात है उस धनी के घर पर डकैती नहीं हुई क्योंकि एक तिनका भी उसके घर का नहीं गया। जान पड़ता है कि उस धनी की विधवा सुंदरी बाहर निकल गई है। उसको उस तरह में इत्तिला करने में अपनी बेइज्जती उसने डकैती का बहाना करके इत्तिला की है। उसका मतलब यह है कि पुलिस डाकुओं की खोज करेगी और उसी में उस लड़की का पता लग जाएगा तो उसका काम निकल जाएगा।

इधर हमारे धनी मीत ने कुछ दिन तो उस जवान विधवा के साथ काटे। इतने में उनको एक और सुंदरी लड़की की बात किसी ने आ कही, तब उन्होंने अपना मन उस ओर दिया। और बहुत धन खर्च करके तो उस सुंदरी को हाथ में किया। जब यह दूसरी सुंदरी आई तब उस पहली विधवा सुंदरी पर से उनकी चाह हट गई। किंतु मैं उनको वहाँ से अलग ले जाकर अपनी स्त्री की तरह पालने लगा। मेरा उन दिनों ब्याह नहीं हुआ था इस कारण उसी पर मेरा प्रेम दिनोंदिन बढ़ता गया। होते होते मैं उसको अपनी ब्याही घरनी के समान ही जानने लगा और उसके कामों से भी ऐसा ही जान पड़ता था कि वह मुझे अपने स्वामी के समान मानती है। इसी तरह हम दोनों का एक बरस बीत गया तो भी उसके बाप ने अपनी लड़की का कुछ पता नहीं पाया। वह लड़की भी बाप को अपना पता नहीं देना चाहती थी।

'इसी तरह कुछ दिन और बीतने पर मुझे उसके चाल चलन में कुछ खटका हुआ। धीरे-धीरे ऐसे काम देखने में आए जिनसे मैंने समझ लिया कि मेरा संदेह बेजड़ पैर का नहीं है। जहाँ मैंने उसको रखा था वहाँ इसी इब्राहिम भाई का छोटा भाई यासीन रहता था। मुझे मालूम हो गया कि वह यासीन उस पापिन से मिला है। अब मैं मन ही मन उस अभागिनी पर बहुत बिगड़ा और दोनों को कब पाऊँगा, इसी से चिंता में दिन बिताने लगा। एक दिन मैं उस पापिनी से यह कहकर बाहर गया कि अपने मित्र के साथ दूसरे गाँव को जाता हूँ तीन चार दिन पीछे आऊँगा। बस घर से चलकर मैं उसी अपने मित्र के घर रात भर रहा। दूसरे दिन भी वहीं ठहरा। जब रात हुई खाना खाकर जब मेरा मित्र सो गया था, मैं एक बड़ी भुजाली लेकर वहाँ से चला। जहाँ उस पापिनी को रखा गया था, लेकिन भीतर न जाकर दरवाजे पर चोरी की तरह छिपा खड़ा रहा।

'जब रात बहुत गई, गाँव के लोग सो गए, सर्वत्र सन्नाटा छा गया तब वह सुंदरी साँपिन घर से बाहर निकली और दरवाजे पर आकर खड़ी हुई। उसके थोड़ी ही देर बाद यासीन भी अपने घर से आया। तब दोनों एक साथ घर में घुस गए। दरवाजा बंद कर लिया। मैं पीछे की दीवार टपकर भीतर गया। आँगन से दालान में पहुँचता हूँ कि सामने ही यासीन मिला। अपने हाथ की भुजाली से मैंने उसको इतने जोर से मारा कि वह वहीं गिर गया। यासीन को गिरते देखकर पापिन चिल्ला उठी। मैंने उसी दम उसको भी काटकर उसका काम तमाम किया। और दोनों की लाश पास ही पास रखकर बाहर आया तो देखता हूँ कि मुहल्ले के बहुत से आदमी दरवाजे पर खड़े है। जब मैं बाहर निकला तब वह सब लोग मुझे पकड़ने दौड़े लेकिन हाथ में छुरी देखकर कोई पास नहीं आया। मैं अपनी जान बचाकर जल्दी से भागा लेकिन पीछे से किसी ने आकर मेरे हाथ पर ऐसी लाठी मारी कि भुजाली धरती पर गिर गई। तब मुझे खाली हाथ पाकर कई और दौड़ने वालों ने पकड़ लिया। होते होते पुलिस को खबर मिली। और मुझे हथकड़ी डालकर उसने हवालात में बंद किया।

'मैंने तो अपनी समझ में उन दोनों को जान से मारकर छोड़ा था लेकिन जब मैं हवालात में गया तब सुनने लगा कि यासीन और वह पापिनी दोनों जीते हैं। थोड़ी देर बाद किसी ने आकर कहा कि अब दोनों ही मर गए।

'दो खून करने के कारण मेरे ऊपर मुकदमा हुआ। इन्हीं दिनों उस कुकर्मिनी के बाप को भी खबर मिली उसने भी सरकार में नालिश की। अब मेरे ऊपर यह अपराध लगा कि मैंने ही उसके घर में डाका डालकर उस लड़की को चुराया था और अब मैंने ही उसका खून किया है। बस उसका बाप कचहरी में खड़ा होकर मेरे ऊपर मुकदमा साबित करने की तन मन धन से तदबीर करने लगा। उधर यासीन का खून करने के कारण उसका भाई यही इब्राहिम अपने भाई का बदला लेने के लिए पैरवी करने लगा। मैं हवालत में पड़ा सड़ने लगा।

'पेशी पर पेशी बढ़ते बढ़ाते बहुत दिनों पीछे मुकदमा चला। मेरे बाप ने खूब धन खर्च करके मुझे बचाने के लिए बड़े नामी वकील बैरिस्टर खड़े किए मेरे उस धनी मीत ने भी खर्च के लिए हाथ नहीं खींचा। उसने भी मुझे बचाने के लिए बड़ी मदद की लेकिन किसी का किया कुछ नहीं हुआ। कसूर साबित होने से जज ने मुझे फाँसी पर लटकाने का हुक्म दिया। मेरा विचार जिले में नहीं हुआ जज साहब दौरे में थे। मेरा विचार भी एक गाँव में ही हुआ। जब विचार हो जाने पर मैं जिले में लाया जाने लगा तब रास्ते में रात हो जाने के कारण एक थाने में मैं रखा गया। थाने के गारद पर दो सिपाहियों को पहरा था। जब रात बहुत गई। ठंडी हवा चली नसीब की बात कौन जानता था दोनों पहरेदार वहीं सो गए। जब मैंने गारद के भीतर से ही उनको नींद में देखा घट जोर से हथकड़ी अलग कर ली। इसमें मेरे हाथ का चमड़ा बहुत कट गया था। हथकड़ी उसी गारद में छोड़कर बाहर आने की चिंता करने लगा, लेकिन खूब अच्छी तरह देखने पर मालूम हुआ कि गारद से बाहर होने का कहीं रास्ता नहीं है जो है वह बंद है। उसमें फाटक नहीं लोहे के छड़ लगे है और उसी के बाहर दोनों पहरेदार नींद में पड़े है।

'मैंने उन छड़ों में से एक को पकड़कर हिलाया तो हिलने लगा। मालूम हुआ कि जिस चौखट में वह जड़े हैं वह सड़ गया है मैंने जोर से एक छड़ को खींचा तो वह सटाक से काठ से अलग हो गया। एक ही छड़ के निकल जाने पर मेरे निकल भागने की जगह हो गई। मैं गारद से बाहर होकर भागा।

'बाहर तो भागा लेकिन पहरे वाले सिपाहियों में से एक की नींद खुल गई। 'असामी भागा' चिल्लाते हुए दोनों मेरे पीछे दौड़े। मैं भी जितना जोर से बना जी छोड़कर भागा। काँटे कुश कैसे क्या पाँव के नीचे पड़ते हैं कुछ भी मुझे ध्यान नहीं रहा। जिसको फाँसी पर चढ़ने की तैयारी हो चुकी है उसको जान का क्या लोभ? मैं उस अँधेरी रात में ऐसा भागा कि पीछा करने वालों को मेरा पता नहीं मिला। मैं भागता हुआ एक जंगल में घुसा फिर थोड़ी देर दौड़ने पर वह जंगल भी समाप्त हो गया। मैं फिर मैदान पाकर उसी तरह दौड़ता गया और बराबर रात भर दौड़ता रहा।

'दौड़ते दौड़ते जब सवेरा हुआ तब मुझे एक सघन जंगल मिला मैं उसी में घुस गया। मुझे यह नहीं मालूम हुआ कि रात भर में कितना चला हूँ। जब दिन निकल आया उसी जंगल में दिन भर पड़ा रहा। जब सूरज डूब गया फिर मैं बाहर हुआ। और पहली रात के समान बराबर रात भर चला गया। दो रात बराबर चलने पर जी में अब भरोसा हुआ कि मैं बहुत दूर चला आया हूँ, जब सवेरा हुआ तब फिर मैं जंगल में नहीं गया। दिन निकलने पर मुझे एक बस्ती मिली। मैं एक गृहस्थ के द्वार पर गया उसने मुझे पाहुन की भाँति आदर दिया। कई दिनों बाद उस गृहस्थ का अन्न खाकर मैंने विश्राम किया। पूछने पर मालूम हुआ कि मैं अपने यहाँ से चालीस कोस दूर आ गया हूँ। दिन भर विश्राम करके फिर वहाँ से चला और जब सवेरा हुआ, ठहर गया।

'अब मैंने अपना फकीरी वेष कर लिया। हाथ में दरयाई नारियल लेकर भीख माँगता राह काटने लगा। जहाँ कहीं सदावर्त्त या धर्मशाला मिलता वहीं पेट भर कर खाता और रात काटकर सवेरे चल देता। इस तरह छ्ह महीने चलने के बाद मैं कलकत्ते आ पहुँचा। जब मैं कलकत्ते में आया जब भीख से मेरे पास पच्चीस रुपए बच रहे थे।

'कलकत्ता उन दिनों मेरे लिए बिलकुल बेजान पहचान का शहर था। मैं दिन भर घूमता रह गया रात भर घूमा लेकिन कहीं ठहरने को जगह नहीं मिली, कोई जान पहचान का आदमी नहीं था। बंबई की ओर के बहुतेरे मुसलमान यहाँ देखने में आए, लेकिन मैं पकड़े जाने के डर से उनके पास नहीं गया।

'फकीरी वेश में घूमकर मैंने समझ लिया कि धनी बस्ती से बाहर छप्पर के मकानों में भाड़े पर कोई जगह लूँ तो दो तीन रुपए महीने खर्च करके बैठने को ठौर पा सकता हूँ।

'चौथे दिन मैंने एक मुसलमान घर पर जाकर बाहर के दरवाजे के पास ही एक कोठरी सवा रुपए महीने भाड़े पर पाई। जब मैं घर में रहने लगा तब मैं अपना फकीरी रूप छोड़कर साधारण मुसलमान बन गया, लेकिन अपना पहले का पहनाव नहीं पहना।

'कलकत्ते के साधारण मुसलमानों के वेश में मैं वहाँ रहने लगा। अब मन में यह चिंता हुई कि किस तरह दिन कटेंगे। कौन काम करूँ जिससे पेट भरे। इसकी फिकर करते-करते दस-पंद्रह दिन बीत गए। बिछौने बरतन और साधारण कपड़े तथा चावल दाल के खर्च में वह पच्चीस रुपए भी खतम हो चले, लेकिन सुख से दिन बिताने के लिए कोई ढंग नहीं किया।

'एक दिन मैं सवेरे गंगाजी के किनारे बैठा था। जहाज पर कोई काम मिल जाता तो अच्छा होता यहीं मन में विचारता था कि इतने में एक बूढ़े मुसलमान ने आकर मुझसे पूछा - 'यहाँ क्यों बैठा है? मैंने जवाब में कहा - 'कोई पेट भरने के रोजगार की चिंता में बैठा हूँ।'

मेरी बात सुनकर उसने कहा - 'अच्छा एक दिन के वास्ते तो मैं तुमको काम देता हूँ। एक जहाज पर कुछ काम करते हैं उनकी देखरेख करने को जो मेरा आदमी था वह आज काम पर नहीं आया है। तुम उस काम को कर सको तो मेरे साथ आओ मैं उस काम पर तुमको आज के वास्ते रखता हूँ।'

'बूढ़े की बात मानकर मैं उसके साथ गया। एक जहाज पर उसके सौ कुली या सौ से ऊपर रहे होंगे, काम कर रहे थे। मुझे उनकी देखरेख के वास्ते वहाँ रखकर बूढ़ा आप वहाँ से चलता हुआ। बूढ़े ने चलती बेर कहा कि छुट्टी के समय से पहले ही मैं आ जाऊँगा।

'ठीक समय पर बूढ़ा लौट आया। मेरा काम देखकर बहुत खुश हुआ। उस दिन और दिनों से उस बूढ़े का ड्यौढ़ा काम हुआ। सब कुलियों को मजदूरी देकर बूढ़े ने विदा किया और मुझे एक रुपए देकर उसी काम पर बीस रुपए महीने पर नौकर रखा। मेरे काम से वह दिनोंदिन खुश होता गया। यहाँ तक कि मैं पाँच बरस तक बराबर काम करता गया। पाँचवें वर्ष उसने मेरा पचास रुपए वेतन कर दिया था। उसी साल वह मर गया। उसका काम भी उसके मरने से बंद हो गया। मेरे पास जो रुपए जमा हो गए थे उससे मैंने एक बोट खरीदा और उसको भाड़े पर चलाने लगा। उससे मुझे खूब लाभ हुआ। यहाँ तक कि एक के बाद मैंने दस बोट खरीदे और उनसे मुझे इतनी आमदनी हुई कि मैं धनी हो गया। मेरी गिनती नामी महाजनों में होने लगी। मैंने छप्पर का घर छोड़कर पक्का छहमंजिला मकान लेकर उसमें आफिस खोला, उन्हीं दिनों मैंने अपना ब्याह किया। मेरा दिन ऐसा फिरा कि धन लाभ के साथ ही तुम्हारा भी जन्म हुआ। अब मेरा कारोबार खूब बढ़ गया। मैंने कलकत्ते में आते ही अपना नाम बदल लिया था। वही नाम यहाँ के सब लोग जानते हैं। मैं फाँसी का असामी हूँ। गारद से हथकड़ी तोड़कर भाग आया हूँ सो यहाँ कोई नहीं जानता।

मैंने यहाँ से अपने बाप माँ को लिख भेजा कि मैं मरा नहीं भाग आया हूँ। यहाँ अच्छी तरह हूँ। वहाँ आऊँगा नहीं न तुम लोगों से भेट करूँगा, लेकिन तुम लोगों को रुपए भेजता जाऊँगा चिट्ठी भी नहीं लिखूँगा। मैंने उसके बाद फिर उनको चिट्ठी नहीं लिखी न उनसे भेंट की। हर साल इतना रुपए भेज देता था कि उनको किसी तरह की तकलीफ नहीं होती थी। रुपए मैं कलकत्ते से नहीं भेजता था कभी मद्रास, कभी रंगून, कभी और कहीं किसी दूर शहर में जाकर वहीं से डाक में रुपए भेजता फिर यहाँ चला आता था।

'इतने दिन मेरे इसी तरह यहाँ सुख से कटे किसी को कुछ पता नहीं लगा लेकिन न जाने से मेरी खबर पाकर इब्राहिम भाई कैसे यहाँ चला आया। तुम अब समझ गए होगे कि मैं क्यों उसको इतना मानता और उसका सब सहता था। अब वह यहाँ से बिगड़कर बंबई गया है और वहाँ की पुलिस से सब हाल बताकर उसने मुझे चिट्ठी लिखी है।

'पुलिस अब तुरंत यहाँ आवेगी और मुझे पकड़कर बंबई ले जाएगी। यहाँ मुझे फाँसी तैयार है। बेटा हैदर! यही हमारा गुप्तभेद है।

'पुलिस जब यहाँ आवेगी तब चुपचाप व्यर्थ मनोरथ होकर लौट जाएगी। क्योंकि मैं यहाँ नहीं रहूँगा। इस कारण कि यहाँ कुछ गोलमाल होना तुम्हारी मान मर्यादा में बट्टा लगावेगा। मैं यहाँ नहीं रहूँगा। अब मेरा मरने का समय आया है। मैं खुशी से संसार छोड़ता हूँ। बेटा! मुझे विदा दो। तुम्हारे वास्ते जो कुछ चाहिए मैंने सब कर दिया है। तुम मेरी तरह किसी कुकर्म में न फँसो मैं यही चाहता हूँ।

पूरी चिट्ठी पढ़कर सब लोग चकित हुए। जासूस ने मन में कहा। ओफ! क्या भयानक लीला है। यह बूढ़ा भी गजब का आदमी था।

इसके पंद्रह दिन बाद बंबई से पुलिस के आदमी आ पहुँचे। जब उन्होंने सुना कि अली भाई उर्फ चिराग अली अब जगत में नहीं हैं, तब दुखी होकर सब लौट गए।
गुप्तकथा - गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा - गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा - गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा - गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा - गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी, गुप्तकथा कहानी गोपालराम गहमरी,गुप्त कथा कहानी गोपाल राम गहमरी, गुप्त कथा कहानी गोपाल राम गहमरी, गुप्त कथा कहानी गोपाल राम गहमरी, गुप्त कथा कहानी गोपाल राम गहमरी,

COMMENTS

BLOGGER
Name

a-r-azad,1,aadil-rasheed,1,aaina,4,aalam-khurshid,2,aale-ahmad-suroor,1,aam,1,aanis-moin,6,aankhe,4,aansu,1,aas-azimabadi,1,aashmin-kaur,1,aashufta-changezi,1,aatif,1,aatish-indori,6,aawaz,4,abbas-ali-dana,1,abbas-tabish,1,abdul-ahad-saaz,4,abdul-hameed-adam,4,abdul-malik-khan,1,abdul-qavi-desnavi,1,abhishek-kumar,1,abhishek-kumar-ambar,5,abid-ali-abid,1,abid-husain-abid,1,abrar-danish,1,abrar-kiratpuri,3,abu-talib,1,achal-deep-dubey,2,ada-jafri,2,adam-gondvi,11,adibi-maliganvi,1,adil-hayat,1,adil-lakhnavi,1,adnan-kafeel-darwesh,2,afsar-merathi,4,agyeya,5,ahmad-faraz,13,ahmad-hamdani,1,ahmad-hatib-siddiqi,1,ahmad-kamal-parwazi,3,ahmad-nadeem-qasmi,6,ahmad-nisar,3,ahmad-wasi,1,ahmaq-phaphoondvi,1,ajay-agyat,2,ajay-pandey-sahaab,3,ajmal-ajmali,1,ajmal-sultanpuri,1,akbar-allahabadi,6,akhtar-ansari,2,akhtar-lakhnvi,1,akhtar-nazmi,2,akhtar-shirani,7,akhtar-ul-iman,1,akib-javed,1,ala-chouhan-musafir,1,aleena-itrat,1,alhad-bikaneri,1,ali-sardar-jafri,6,alif-laila,63,allama-iqbal,10,alok-dhanwa,2,alok-shrivastav,9,alok-yadav,1,aman-akshar,2,aman-chandpuri,1,ameer-qazalbash,2,amir-meenai,3,amir-qazalbash,3,amn-lakhnavi,1,amrita-pritam,3,amritlal-nagar,1,aniruddh-sinha,2,anjum-rehbar,1,anjum-rumani,1,anjum-tarazi,1,anton-chekhav,1,anurag-sharma,3,anuvad,2,anwar-jalalabadi,2,anwar-jalalpuri,6,anwar-masud,1,anwar-shuoor,1,aqeel-nomani,2,armaan-khan,2,arpit-sharma-arpit,3,arsh-malsiyani,5,arthur-conan-doyle,1,article,58,arvind-gupta,1,arzoo-lakhnavi,1,asar-lakhnavi,1,asgar-gondvi,2,asgar-wajahat,1,asharani-vohra,1,ashok-anjum,1,ashok-babu-mahour,3,ashok-chakradhar,2,ashok-lal,1,ashok-mizaj,9,asim-wasti,1,aslam-allahabadi,1,aslam-kolsari,1,asrar-ul-haq-majaz-lakhnavi,10,atal-bihari-vajpayee,5,ataur-rahman-tariq,1,ateeq-allahabadi,1,athar-nafees,1,atul-ajnabi,3,atul-kannaujvi,1,audio-video,59,avanindra-bismil,1,ayodhya-singh-upadhyay-hariaudh,6,azad-gulati,2,azad-kanpuri,1,azhar-hashmi,1,azhar-sabri,2,azharuddin-azhar,1,aziz-ansari,2,aziz-azad,2,aziz-bano-darab-wafa,1,aziz-qaisi,2,azm-bahjad,1,baba-nagarjun,4,bachpan,9,badnam-shayar,1,badr-wasti,1,badri-narayan,1,bahadur-shah-zafar,7,bahan,9,bal-kahani,5,bal-kavita,108,bal-sahitya,115,baljeet-singh-benaam,7,balkavi-bairagi,1,balmohan-pandey,1,balswaroop-rahi,4,baqar-mehandi,1,barish,16,bashar-nawaz,2,bashir-badr,27,basudeo-agarwal-naman,5,bedil-haidari,1,beena-goindi,1,bekal-utsahi,7,bekhud-badayuni,1,betab-alipuri,2,bewafai,15,bhagwati-charan-verma,1,bhagwati-prasad-dwivedi,1,bhaichara,7,bharat-bhushan,1,bharat-bhushan-agrawal,1,bhartendu-harishchandra,3,bhawani-prasad-mishra,1,bhisham-sahni,1,bholenath,8,bimal-krishna-ashk,1,biography,38,birthday,4,bismil-allahabadi,1,bismil-azimabadi,1,bismil-bharatpuri,1,braj-narayan-chakbast,2,chaand,6,chai,15,chand-sheri,7,chandra-moradabadi,2,chandrabhan-kaifi-dehelvi,1,chandrakant-devtale,5,charagh-sharma,2,charkh-chinioti,1,charushila-mourya,3,chinmay-sharma,1,christmas,4,corona,6,d-c-jain,1,daagh-dehlvi,18,darvesh-bharti,1,daughter,16,deepak-mashal,1,deepak-purohit,1,deepawali,22,delhi,3,deshbhakti,43,devendra-arya,1,devendra-dev,23,devendra-gautam,7,devesh-dixit-dev,11,devesh-khabri,1,devi-prasad-mishra,1,devkinandan-shant,1,devotional,9,dharmveer-bharti,2,dhoop,4,dhruv-aklavya,1,dhumil,3,dikshit-dankauri,1,dil,145,dilawar-figar,1,dinesh-darpan,1,dinesh-kumar,1,dinesh-pandey-dinkar,1,dinesh-shukl,1,dohe,4,doodhnath-singh,3,dosti,27,dr-rakesh-joshi,2,dr-urmilesh,2,dua,1,dushyant-kumar,16,dwarika-prasad-maheshwari,6,dwijendra-dwij,1,ehsan-bin-danish,1,ehsan-saqib,1,eid,14,elizabeth-kurian-mona,5,faheem-jozi,1,fahmida-riaz,2,faiz-ahmad-faiz,18,faiz-ludhianvi,2,fana-buland-shehri,1,fana-nizami-kanpuri,1,fani-badayuni,2,farah-shahid,1,fareed-javed,1,fareed-khan,1,farhat-abbas-shah,1,farhat-ehsas,1,farooq-anjum,1,farooq-nazki,1,father,12,fatima-hasan,2,fauziya-rabab,1,fayyaz-gwaliyari,1,fayyaz-hashmi,1,fazal-tabish,1,fazil-jamili,1,fazlur-rahman-hashmi,10,fikr,4,filmy-shayari,9,firaq-gorakhpuri,8,firaq-jalalpuri,1,firdaus-khan,1,fursat,3,gajanan-madhav-muktibodh,5,gajendra-solanki,1,gamgin-dehlavi,1,gandhi,10,ganesh,2,ganesh-bihari-tarz,1,ganesh-gaikwad-aaghaz,1,ganesh-gorakhpuri,2,garmi,9,geet,2,ghalib-serial,1,gham,2,ghani-ejaz,1,ghazal,1212,ghazal-jafri,1,ghulam-hamdani-mushafi,1,girijakumar-mathur,2,golendra-patel,1,gopal-babu-sharma,1,gopal-krishna-saxena-pankaj,1,gopal-singh-nepali,1,gopaldas-neeraj,8,gopalram-gahmari,1,gopichand-shrinagar,2,gulzar,17,gurpreet-kafir,1,gyanendrapati,4,gyanprakash-vivek,2,habeeb-kaifi,1,habib-jalib,6,habib-tanveer,1,hafeez-jalandhari,3,hafeez-merathi,1,haidar-ali-aatish,5,haidar-ali-jafri,1,haidar-bayabani,2,hamd,1,hameed-jalandhari,1,hamidi-kashmiri,1,hanif-danish-indori,1,hanumant-sharma,1,hanumanth-naidu,2,harendra-singh-kushwah-ehsas,1,hariom-panwar,1,harishankar-parsai,7,harivansh-rai-bachchan,8,harshwardhan-prakash,1,hasan-abidi,1,hasan-naim,1,haseeb-soz,2,hashim-azimabadi,1,hashmat-kamal-pasha,1,hasrat-mohani,3,hastimal-hasti,5,hazal,2,heera-lal-falak-dehlvi,1,hilal-badayuni,1,himayat-ali-shayar,1,hindi,22,hiralal-nagar,2,holi,29,hukumat,13,humaira-rahat,1,ibne-insha,8,ibrahim-ashk,1,iftikhar-naseem,1,iftikhar-raghib,1,imam-azam,1,imran-aami,1,imran-badayuni,6,imtiyaz-sagar,1,insha-allah-khaan-insha,1,interview,1,iqbal-ashhar,1,iqbal-azeem,2,iqbal-bashar,1,iqbal-sajid,1,iqra-afiya,1,irfan-ahmad-mir,1,irfan-siddiqi,1,irtaza-nishat,1,ishq,169,ishrat-afreen,1,ismail-merathi,2,ismat-chughtai,2,izhar,7,jagan-nath-azad,5,jaishankar-prasad,6,jalan,1,jaleel-manikpuri,1,jameel-malik,2,jameel-usman,1,jamiluddin-aali,5,jamuna-prasad-rahi,1,jan-nisar-akhtar,11,janan-malik,1,jauhar-rahmani,1,jaun-elia,14,javed-akhtar,18,jawahar-choudhary,1,jazib-afaqi,2,jazib-qureshi,2,jigar-moradabadi,10,johar-rana,1,josh-malihabadi,7,julius-naheef-dehlvi,1,jung,9,k-k-mayank,2,kabir,1,kafeel-aazar-amrohvi,1,kaif-ahmed-siddiqui,1,kaif-bhopali,6,kaifi-azmi,10,kaifi-wajdaani,1,kaka-hathrasi,1,kalidas,1,kalim-ajiz,1,kamala-das,1,kamlesh-bhatt-kamal,1,kamlesh-sanjida,1,kamleshwar,1,kanhaiya-lal-kapoor,1,kanval-dibaivi,1,kashif-indori,1,kausar-siddiqi,1,kavi-kulwant-singh,2,kavita,244,kavita-rawat,1,kedarnath-agrawal,4,kedarnath-singh,1,khalid-mahboob,1,khalida-uzma,1,khalil-dhantejvi,1,khat-letters,10,khawar-rizvi,2,khazanchand-waseem,1,khudeja-khan,1,khumar-barabankvi,4,khurram-tahir,1,khurshid-rizvi,1,khwab,1,khwaja-meer-dard,4,kishwar-naheed,2,kitab,22,krishan-chandar,1,krishankumar-chaman,1,krishn-bihari-noor,11,krishna,9,krishna-kumar-naaz,5,krishna-murari-pahariya,1,kuldeep-salil,2,kumar-pashi,1,kumar-vishwas,2,kunwar-bechain,9,kunwar-narayan,5,lala-madhav-ram-jauhar,1,lata-pant,1,lavkush-yadav-azal,3,leeladhar-mandloi,1,liaqat-jafri,1,lori,2,lovelesh-dutt,1,maa,26,madan-mohan-danish,2,madhavikutty,1,madhavrao-sapre,1,madhuri-kaushik,1,madhusudan-choube,1,mahadevi-verma,4,mahaveer-prasad-dwivedi,1,mahaveer-uttranchali,8,mahboob-khiza,1,mahendra-matiyani,1,mahesh-chandra-gupt-khalish,2,mahmood-zaki,1,mahwar-noori,1,maikash-amrohavi,1,mail-akhtar,1,maithilisharan-gupt,3,majdoor,13,majnoon-gorakhpuri,1,majrooh-sultanpuri,5,makhanlal-chaturvedi,3,makhdoom-moiuddin,7,makhmoor-saeedi,1,mangal-naseem,1,manglesh-dabral,4,manish-verma,3,mannan-qadeer-mannan,1,mannu-bhandari,1,manoj-ehsas,1,manoj-sharma,1,manzar-bhopali,1,manzoor-hashmi,2,manzoor-nadeem,1,maroof-alam,23,masooda-hayat,2,masoom-khizrabadi,1,matlabi,3,mazhar-imam,2,meena-kumari,14,meer-anees,1,meer-taqi-meer,10,meeraji,1,mehr-lal-soni-zia-fatehabadi,5,meraj-faizabadi,3,milan-saheb,2,mirza-ghalib,59,mirza-muhmmad-rafi-souda,1,mirza-salaamat-ali-dabeer,1,mithilesh-baria,1,miyan-dad-khan-sayyah,1,mohammad-ali-jauhar,1,mohammad-alvi,6,mohammad-deen-taseer,3,mohammad-khan-sajid,1,mohan-rakesh,1,mohit-negi-muntazir,3,mohsin-bhopali,1,mohsin-kakorvi,1,mohsin-naqwi,2,moin-ahsan-jazbi,4,momin-khan-momin,4,motivational,11,mout,5,mrityunjay,1,mubarik-siddiqi,1,muhammad-asif-ali,1,muktak,1,mumtaz-hasan,3,mumtaz-rashid,1,munawwar-rana,29,munikesh-soni,2,munir-anwar,1,munir-niazi,5,munshi-premchand,26,murlidhar-shad,1,mushfiq-khwaza,1,mushtaq-sadaf,2,mustafa-akbar,1,mustafa-zaidi,2,mustaq-ahmad-yusufi,1,muzaffar-hanfi,26,muzaffar-warsi,2,naat,1,nadeem-gullani,1,naiyar-imam-siddiqui,1,nand-chaturvedi,1,naqaab,2,narayan-lal-parmar,4,narendra-kumar-sonkaran,3,naresh-chandrakar,1,naresh-saxena,4,naseem-ajmeri,1,naseem-azizi,1,naseem-nikhat,1,naseer-turabi,1,nasir-kazmi,8,naubahar-sabir,2,naukari,1,navin-c-chaturvedi,1,navin-mathur-pancholi,1,nazeer-akbarabadi,16,nazeer-baaqri,1,nazeer-banarasi,6,nazim-naqvi,1,nazm,192,nazm-subhash,3,neeraj-ahuja,1,neeraj-goswami,2,new-year,21,nida-fazli,34,nirankar-dev-sewak,2,nirmal-verma,3,nirmala,15,nirmla-garg,1,nizam-fatehpuri,26,nomaan-shauque,4,nooh-aalam,2,nooh-narvi,2,noon-meem-rashid,2,noor-bijnauri,1,noor-indori,1,noor-mohd-noor,1,noor-muneeri,1,noshi-gilani,1,noushad-lakhnavi,1,nusrat-karlovi,1,obaidullah-aleem,5,omprakash-valmiki,1,omprakash-yati,11,pandit-dhirendra-tripathi,1,pandit-harichand-akhtar,3,parasnath-bulchandani,1,parveen-fana-saiyyad,1,parveen-shakir,12,parvez-muzaffar,6,parvez-waris,3,pash,8,patang,13,pawan-dixit,1,payaam-saeedi,1,perwaiz-shaharyar,2,phanishwarnath-renu,2,poonam-kausar,1,prabhudayal-shrivastava,1,pradeep-kumar-singh,1,pradeep-tiwari,1,prakhar-malviya-kanha,2,pratap-somvanshi,7,pratibha-nath,1,prayag-shukl,3,prem-lal-shifa-dehlvi,1,prem-sagar,1,purshottam-abbi-azar,2,pushyamitra-upadhyay,1,qaisar-ul-jafri,3,qamar-ejaz,2,qamar-jalalabadi,3,qamar-moradabadi,1,qateel-shifai,8,quli-qutub-shah,1,quotes,2,raaz-allahabadi,1,rabindranath-tagore,3,rachna-nirmal,3,raghuvir-sahay,4,rahat-indori,31,rahbar-pratapgarhi,2,rahi-masoom-raza,6,rais-amrohvi,2,rajeev-kumar,1,rajendra-krishan,1,rajendra-nath-rehbar,1,rajesh-joshi,1,rajesh-reddy,7,rajmangal,1,rakesh-rahi,1,rakhi,6,ram,38,ram-meshram,1,ram-prakash-bekhud,1,rama-singh,1,ramapati-shukla,4,ramchandra-shukl,1,ramcharan-raag,2,ramdhari-singh-dinkar,9,ramesh-chandra-shah,1,ramesh-dev-singhmaar,1,ramesh-kaushik,2,ramesh-siddharth,1,ramesh-tailang,2,ramesh-thanvi,1,ramkrishna-muztar,1,ramkumar-krishak,3,ramnaresh-tripathi,1,ranjan-zaidi,2,ranjeet-bhattachary,2,rasaa-sarhadi,1,rashid-kaisrani,1,rauf-raza,4,ravinder-soni-ravi,1,rawan,4,rayees-figaar,1,raza-amrohvi,1,razique-ansari,13,rehman-musawwir,1,rekhta-pataulvi,7,republic-day,2,review,12,rishta,2,rishte,1,rounak-rashid-khan,2,roushan-naginvi,1,rukhsana-siddiqui,2,saadat-hasan-manto,9,saadat-yaar-khan-rangeen,1,saaz-jabalpuri,1,saba-bilgrami,1,saba-sikri,1,sabhamohan-awadhiya-swarn-sahodar,2,sabir-indoree,1,sachin-shashvat,2,sadanand-shahi,3,saeed-kais,2,safar,1,safdar-hashmi,5,safir-balgarami,1,saghar-khayyami,1,saghar-nizami,2,sahir-hoshiyarpuri,1,sahir-ludhianvi,20,sajid-hashmi,1,sajid-premi,1,sajjad-zaheer,1,salahuddin-ayyub,1,salam-machhli-shahri,2,saleem-kausar,1,salman-akhtar,4,samar-pradeep,6,sameena-raja,2,sandeep-thakur,3,sanjay-dani-kansal,1,sanjay-grover,3,sansmaran,9,saqi-faruqi,2,sara-shagufta,5,saraswati-kumar-deepak,2,saraswati-saran-kaif,2,sardaar-anjum,2,sardar-aasif,1,sardi,3,sarfaraz-betiyavi,1,sarshar-siddiqui,1,sarveshwar-dayal-saxena,11,satire,18,satish-shukla-raqeeb,1,satlaj-rahat,3,satpal-khyal,1,seema-fareedi,1,seemab-akbarabadi,2,seemab-sultanpuri,1,shabeena-adeeb,2,shad-azimabadi,2,shad-siddiqi,1,shafique-raipuri,1,shaharyar,21,shahid-anjum,2,shahid-jamal,2,shahid-kabir,3,shahid-kamal,1,shahid-mirza-shahid,1,shahid-shaidai,1,shahida-hasan,2,shahram-sarmadi,1,shahrukh-abeer,1,shaida-baghonavi,2,shaikh-ibrahim-zouq,2,shail-chaturvedi,1,shailendra,4,shakeb-jalali,3,shakeel-azmi,7,shakeel-badayuni,6,shakeel-jamali,5,shakeel-prem,1,shakuntala-sarupariya,2,shakuntala-sirothia,2,shamim-farhat,1,shamim-farooqui,1,shams-deobandi,1,shams-ramzi,1,shamsher-bahadur-singh,5,shanti-agrawal,1,sharab,5,sharad-joshi,5,shariq-kaifi,5,shaukat-pardesi,1,sheen-kaaf-nizam,1,shekhar-astitwa,1,sher-collection,13,sheri-bhopali,2,sherjang-garg,2,sherlock-holmes,1,shiv-sharan-bandhu,2,shivmangal-singh-suman,6,shivprasad-joshi,1,shola-aligarhi,1,short-story,16,shridhar-pathak,3,shrikant-verma,1,shriprasad,5,shuja-khawar,1,shyam-biswani,1,sihasan-battisi,5,sitaram-gupta,1,sitvat-rasool,1,siyaasat,9,sohan-lal-dwivedi,3,story,54,subhadra-kumari-chouhan,9,subhash-pathak-ziya,1,sudarshan-faakir,3,sufi,1,sufiya-khanam,1,suhaib-ahmad-farooqui,1,suhail-azad,1,suhail-azimabadi,1,sultan-ahmed,1,sultan-akhtar,1,sumitra-kumari-sinha,1,sumitranandan-pant,2,surajpal-chouhan,2,surendra-chaturvedi,1,suryabhanu-gupt,2,suryakant-tripathi-nirala,6,sushil-sharma,1,swapnil-tiwari-atish,2,syed-altaf-hussain-faryad,1,syeda-farhat,2,taaj-bhopali,1,tahir-faraz,3,tahzeeb-hafi,2,taj-mahal,2,talib-chakwali,1,tanhai,1,teachers-day,4,tilok-chand-mehroom,1,topic-shayari,33,toran-devi-lali,1,trilok-singh-thakurela,3,triveni,7,tufail-chaturvedi,3,umair-manzar,1,umair-najmi,1,upanyas,83,urdu,9,vasant,9,vigyan-vrat,1,vijendra-sharma,1,vikas-sharma-raaz,1,vilas-pandit,1,vinay-mishr,3,viral-desai,2,viren-dangwal,2,virendra-khare-akela,9,vishnu-nagar,2,vishnu-prabhakar,5,vivek-arora,1,vk-hubab,1,vote,1,wada,13,wafa,20,wajida-tabssum,1,wali-aasi,2,wamiq-jaunpuri,4,waseem-akram,1,waseem-barelvi,11,wasi-shah,1,wazeer-agha,2,women,16,yagana-changezi,3,yashpal,3,yashu-jaan,2,yogesh-chhibber,1,yogesh-gupt,1,zafar-ali-khan,1,zafar-gorakhpuri,5,zafar-kamali,1,zaheer-qureshi,2,zahir-abbas,1,zahir-ali-siddiqui,5,zahoor-nazar,1,zaidi-jaffar-raza,1,zameer-jafri,4,zaqi-tariq,1,zarina-sani,2,zehra-nigah,1,zia-ur-rehman-jafri,75,zubair-qaisar,1,zubair-rizvi,1,
ltr
item
जखीरा, साहित्य संग्रह: गुप्तकथा - गोपालराम गहमरी
गुप्तकथा - गोपालराम गहमरी
गुप्तकथा - गोपाल राम गहमरी पहली झाँकी जासूसी जान पहचान भी एक निराले ही ढंग की होती है। हैदर चिराग अली नाम के एक धनी मुसलमान सौदागर का बेटा था। उससे..
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTrt4cBPivBO9wUV84UBgp60vmdI1nH1_zA_yZn0GpL5-qO8y5wUMWLbNWdKIzOyY8HGfSM8akuTo13WIUwMbkqsJXuMR3WHjFeOJdayx-HcCpBpKw1RSuSNnL_YR8HwVycpShMQLfQ5PhRkKY2NoFCMmzau-Dr0bEIyBYBxAK2xRaSgy01w86mly5WILV/w640-h334/guptakatha%20-%20gopalram%20gahmari.jpg
https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhTrt4cBPivBO9wUV84UBgp60vmdI1nH1_zA_yZn0GpL5-qO8y5wUMWLbNWdKIzOyY8HGfSM8akuTo13WIUwMbkqsJXuMR3WHjFeOJdayx-HcCpBpKw1RSuSNnL_YR8HwVycpShMQLfQ5PhRkKY2NoFCMmzau-Dr0bEIyBYBxAK2xRaSgy01w86mly5WILV/s72-w640-c-h334/guptakatha%20-%20gopalram%20gahmari.jpg
जखीरा, साहित्य संग्रह
https://www.jakhira.com/2024/04/guptkatha-gopalram-gahmari.html
https://www.jakhira.com/
https://www.jakhira.com/
https://www.jakhira.com/2024/04/guptkatha-gopalram-gahmari.html
true
7036056563272688970
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Read More Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS PREMIUM CONTENT IS LOCKED STEP 1: Share to a social network STEP 2: Click the link on your social network Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy Table of Content