पूरे चांद की रात - कृष्ण चंदर
अप्रैल का महीना था। बादाम की डालियां फूलों से लद गई थीं और हवा में बर्फ़ीली ख़ुनकी के बावजूद बहार की लताफ़त आ गई थी। बुलंद-ओ-बाला तंगों के नीचे मख़मलीं दूब पर कहीं कहीं बर्फ़ के टुकड़े सपीद फूलों की तरह खिले हुए नज़र आ रहे थे। अगले माह तक ये सपीद फूल इसी दूब में जज़्ब हो जाऐंगे और दूब का रंग गहरा सब्ज़ हो जाएगा और बादाम की शाख़ों पर हरे हरे बादाम पुखराज के नगीनों की तरह झिलमिलाएंगे और नीलगूं पहाड़ों के चेहरों से कोहरा दूर होता जाएगा और इस झील के पुल के पार पगडंडी की ख़ाक मुलाइम भेड़ों की जानी-पहचानी बा आ आ आ से झनझना उठेगी और फिर इन बुलंद-ओ-बाला तंगों के नीचे चरवाहे भेड़ों के जिस्मों से सर्दियों की पली हुई मोटी मोटी गफ़ ऊन गरमियों में कुतरते जाऐंगे और गीत गाते जाऐंगे।
लेकिन अभी अप्रैल का महीना था। अभी तंगों पर पत्तियाँ ना फूटी थीं। अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था। अभी पगडंडी का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूँजा ना था। अभी सम्मल की झील पर कंवल के चराग़ रौशन ना हुए थे। झील का गहरा सब्ज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था जो बहार की आमद पर यकायक उस की सतह पर एक मासूम और बेलौस हंसी की तरह खिल जाऐंगे। पुल के किनारे किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शगूफ़े चमकने लगे थे। अप्रैल में ज़मिस्तान की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बहार के नक़ीब बन कर झील के पानी में अपनी किश्तियां तैराते हैं। फूलों के नन्हे नन्हे शिकारे सतह-ए-आब पर रक़्साँ-ओ-लर्ज़ां बहार की आमद के मुंतज़िर हैं।
पुल के जंगले का सहारा लेकर में एक अरसे से उस का इंतेज़ार कर रहा था। सै पहर ख़त्म हो गई। शाम आ गई, झील वलर को जाने वाले हाऊस बोट, पुल की संगलाख़ी मेहराबों के बीच में से गुज़र गए और अब वो उफ़ुक़ की लकीर पर काग़ज़ की नाव की तरह कमज़ोर और बेबस नज़र आ रहे थे। शाम का क़िरमज़ी रंग आसमान के इस किनारे से उस किनारे तक फैलता गया और क़िरमज़ी से सुरमई और सुरमई से सियाह होता गया। हत्ता कि बादाम के पेड़ों की क़तार की ओट में पगडंडी भी सो गई और फिर रात के सन्नाटे में पहला तारा किसी मुसाफ़िर के गीत की तरह चमक उठा। हवा की ख़ुनकी तेज़-तर होती गई और नथने उस के बर्फ़ीले लम्स से सुन्न हो गए।
और फिर चांद निकल आया।
और फिर वो आ गई।
तेज़ तेज़ क़दमों से चलती हुई, बल्कि पगडंडी के ढलान पर दौड़ती हुई, वो बिलकुल मेरे क़रीब आ के रुक गई। उसने आहिस्ता से कहा।
हाय!
उस की सांस तेज़ी से चल रही थी, फिर रुक जाती, फिर तेज़ी से चलने लगती। उसने मेरे शाने को अपनी उंगलीयों से छुवा और फिर अपना सर वहां रख दिया और उस के गहरे सियाह बालों का परेशान घना जंगल दूर तक मेरी रूह के अंदर फैलता चला गया और मैंने उस से कहा “सै पहर से तुम्हारा इंतिज़ार कर रहा हूँ।”
उसने हंसकर कहा। “अब रात हो गई है, बड़ी अच्छी रात है।”
उसने अपना कमज़ोर नन्हा छोटा सा हाथ मेरे दूसरे शाने पर रख दिया और जैसे बादाम के फूलों से भरी शाख़ झुक कर मेरे कंधे पर सो गई।
देर तक वो ख़ामोश रही। देर तक मैं ख़ामोश रहा। फिर वो आप ही आप हंसी, बोली “अब्बा मेरे पगडंडी के मोड़ तक मेरे साथ आए थे, क्यों कि मैंने कहा, मुझे डर लगता है। आज मुझे अपनी सहेली रज्जो के घर सोना है, सोना नहीं जागना है। क्योंकि बादाम के पहले शगूफ़ों की ख़ुशी में हम सब सहेलियाँ रात-भर जागेंगी और गीत गाएँगी और मैं तो सै पहर से तैयारी कर रही थी, इधर आने की। लेकिन धान साफ़ करना था और कपड़ों का ये जोड़ा जो कल धोया था आज सूखा ना था। उसे आग पर सुखाया और अम्मां जंगल से लकड़ियाँ चुनने गई थीं वो अभी आई ना थीं और जब तक वो ना आतीं मैं मक्की के भुट्टे और ख़ुश्क ख़ूबानीयाँ और जरवालो तुम्हारे लिए कैसे ला सकती हूँ। देखो ये सब कुछ लाई हूँ तुम्हारे लिए। हाय तुम सच-मुच ख़फ़ा खड़े हो। मेरी तरफ़ देखो में आ गई हूँ। आज पूरे चांद की रात है। आओ किनारे लगी हुई कश्ती खोलें और झील की सैर करें।”
उसने मेरी आँखों में देखा और मैंने उस की मुहब्बत और हैरत में गुम पुतलीयों को देखा, जिनमें उस वक़्त चांद चमक रहा था और ये चांद मुझसे कह रहा था, जाओ कश्ती खोल के झील के पानी पर सैर करो। आज बादाम के पीले शगूफ़ों का मुसर्रत भरा त्यौहार है। आज उसने तुम्हारे लिए अपनी सहेलीयों अपने अब्बा, अपनी नन्ही बहन और अपने बड़े भाई सबको फ़रेब में रखा है, क्योंकि आज पूरे चांद की रात है और बादाम के सपीद ख़ुश्क शगूफ़े बर्फ़ के गालों की तरह चारों तरफ़ फैले हुए हैं और कश्मीर के गीत उस की छातीयों में बच्चे के दूध की तरह उमड़ आए हैं। उस की गर्दन में तुमने मोतीयों की ये सत-लड़ी देखी। ये सुर्ख़ सत-लड़ी उस के गले में डाल दी और उस से कहा, “तो आज रात-भर जागेगी। आज कश्मीर की बहार की पहली रात है। आज तेरे गले में कश्मीर के गीत यूं खिलेंगे, जैसे चाँदनी-रात में ज़ाफ़रान के फूल खिलते हैं। ये सुर्ख़ सत-लड़ी पहन ले।”
चांद ने ये सब कुछ उस की हैरान पुतलीयों से झांक के देखा फिर यकायक कहीं किसी पेड़ पर एक बुलबुल नग़मासरा हो उठी और कश्तियों में चिराग़ झिलमिलाने लगे और तंगों से परे बस्ती में गीतों की मद्धम सदा बुलंद हुई। गीत और बच्चों के क़हक़हे और मर्दों की भारी आवाज़ें और नन्हे बच्चों के रोने की मीठी सदाएँ और छतों से ज़िन्दगी का आहिस्ता-आहिस्ता सुलगता हुआ धुआँ और शाम के खाने की महक, मछली और भात और कड़म के साग का नरम नमकीन और लतीफ़ ज़ायक़ा और पूरे चांद की रात का बहार आफ़रीं जोबन। मेरा ग़ुस्सा धुल गया। मैंने उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उस से कहा, “आओ चलें झील पर।”
पुल गुज़र गया। पगडंडी गुज़र गई, बादाम के दरख़्तों की क़तार ख़त्म हो गई। तल्ला गुज़र गया। अब हम झील के किनारे किनारे चल रहे थे। झाड़ियों में मेंढ़क बोल रहे थे। मेंढ़क और झींगुर और बीनड़े, उनकी बेहंगम सदाओं का शोर भी एक नग़मा बन गया था। एक ख़्वाब-नाक सिम्फ़नी और सोई हुई झील के बीच में चांद की कश्ती खड़ी थी। साकिन चुप-चाप, मुहब्बत के इंतेज़ार में, हज़ारों साल से इसी तरह खड़ी थी। मेरी और उस की मुहब्बत की मुन्तज़िर, तुम्हारी और तुम्हारे महबूब की मुस्कुराहट की मुन्तज़िर, इन्सान के इन्सान को चाहने की आरज़ू की मुन्तज़िर। ये पूरे चांद की हसीन पाकीज़ा रात किसी कुँवारी के बे छूए जिस्म की तरह मुहब्बत के मुक़द्दस लम्स की मुन्तज़िर है।
कश्ती ख़ूबानी के एक पेड़ से बंधी थी। जो बिलकुल झील के किनारे उगा था। यहां पर ज़मीन बहुत नर्म थी और चांदनी पत्तों की ओट से छनती हुई आ रही थी और मेंढ़क हौले हौले गा रहे थे और झील का पानी बार-बार किनारे को चूमता जाता था और उस के चूमने की सदा बार-बार हमारे कानों में आ रही थी। मैंने दोनों हाथ, उस की कमर में डाल दिए और उसे ज़ोर ज़ोर से अपने सीने से लगा लिया। झील का पानी बार-बार किनारे को चूम रहा था। पहले मैंने उस की आँखें चूमीं और झील की सतह पर लाखों कंवल खिल गए। फिर मैंने उस के रुख़्सार चूमे और नरम हवाओं के लतीफ़ झोंके यकायक बुलंद होके सदहा गीत गाने लगे। फिर मैंने उस के होंट चूमे और लाखों मंदिरों, मस्जिदों और कलीसाओं में दुआओं का शोर बुलंद हुआ और ज़मीन के फूल और आसमान के तारे और हवाओं में उड़ने वाले बादल सब मिल के नाचने लगे। फिर मैंने उस की ठोढ़ी को चूमा और फिर उस की गर्दन के पेचो ख़म को, और कंवल खिलते खिलते सिमटते गए कलीयों की तरह और गीत बुलंद हो हो के मद्धम होते गए और नाच धीमा पड़ता पड़ता रुक गया। अब वही मेंढ़क की आवाज़ थी। वही झील के नरम नरम बोसे और कोई छाती से लगा सिसकियाँ ले रहा था।
मैंने आहिस्ता से कश्ती खोली। वो कश्ती में बैठ गई। मैंने चप्पू अपने हाथ में ले लिया और कश्ती को खे कर झील के मर्कज़ में ले गया। यहां कश्ती आप ही आप खड़ी हो गई। ना इधर बहती थी ना उधर। मैंने चप्पू उठा कर कश्ती में रख लिया। उसने पोटली खोली। उस में से जरवालो निकाल कर मुझे दिए। ख़ुद भी खाने लगी। जर वालो ख़ुशक थे और खट्टे मीठे।
“वो बोली। ये पिछली बार के हैं।”
मैं जरवालो खाता रहा और उस की तरफ़ देखता रहा।
वो आहिस्ता से बोली। “पिछली बहार में तुम ना थे।”
पिछली बहार में, मैं ना था। और जरवालो के पेड़ फूलों से भर गए थे और ज़रा सी शाख़ हिलाने पर फूल टूट कर सतह-ए-ज़मीन पर मोतीयों की तरह बिखर जाते थे। पिछली बहार में, मैं ना था और जर वालो के पेड़ फलों से लदे फंदे थे। सब्ज़ सब्ज़ जरवालो। सख़्त खट्टे जरवालो जो नमक मिर्च लगा के खाए जाते थे और ज़बान सी सी करती थी और नाक बहने लगती थी और फिर भी खट्टे जरवालो खाए जाते थे। पिछली बहार में, मैं ना था। और ये सब्ज़ सब्ज़ जरवालो, पक के पीले और सुनहरे और सुर्ख़ होते गए और डाल डाल में मुसर्रत के सुर्ख़ शगूफ़े झूम रहे थे और मुसर्रत भरी आँखें, चमकती हुई मासूम आँखें उन्हें झूमता हुआ देखकर रक़्स सा करने लगतीं। पिछली बहार में, मैं ना था और सुर्ख़ सुर्ख़ जरवालो ख़ूबसूरत हाथों ने इकट्ठे कर लिए। ख़ूबसूरत लबों ने उनका ताज़ा रस चूसा और उन्हें अपने घर की छत पर ले जाकर सूखने के लिए रख दिया कि जब ये जरवालो सूख जाऐंगे, जब एक बहार गुज़र जाएगी और दूसरी बहार आने को होगी तो मैं आऊँगा और उनकी लज़्ज़त से लुत्फ़ अंदोज़ हो सकूँगा।
जरवालो खा के हमने ख़ुश्क ख़ूबानीयाँ खाईं। ख़ूबानी पहले तो बहुत मीठी मालूम ना होती मगर जब दहन के लुआब में घुल जाती तो शहद-ओ-शकर का मज़ा देने लगतीं।
“नर्म नर्म बहुत मीठी हैं ये।” मैंने कहा। उसने एक गुठली को दाँतों से तोड़ा और ख़ूबानी का बीज निकाल के मुझे दिया। “खाओ।”
बीज बादाम की तरह मीठा था।
“ऐसी ख़ूबानीयाँ मैंने कभी नहीं खाईं।”
उसने कहा। “ये हमारे आँगन का पेड़ है। हमारे हाँ ख़ूबानी का एक ही पेड़ है। मगर इतनी बड़ी और सुर्ख़ और मीठी ख़ूबानीयाँ होती हैं उस की कि मैं क्या कहूं। जब ख़ूबानीयाँ पक जाती हैं तो मेरी सारी सहेलियाँ इकट्ठी हो जाती हैं और ख़ूबानीयाँ खिलाने को कहती हैं। पिछली बिहार में...”
और मैंने सोचा, पिछली बिहार में, मैं ना था। मगर ख़ूबानी का पेड़ आँगन में इसी तरह खड़ा था। पिछली बिहार में वो नाज़ुक नाज़ुक पत्तों से भर गया था। फिर उनमें कच्ची ख़ूबानियों के सब्ज़ और नोकीले फल लगे थे। अभी इन ख़ूबानियों में गुठली पैदा ना हुई थी और ये कच्चे खट्टे फल दोपहर के खाने के साथ चटनी का काम देते थे। पिछली बहार में, मैं ना था और फिर इन ख़ूबानियों में गुठलियां पैदा हो गई थीं और ख़ूबानियों का रंग हल्का सुनहरा होने लगा था और गुठलियों के अंदर नरम नरम बीज अपने ज़ायक़े में सब्ज़ बादामों को भी मात करते थे। पिछली बहार में, मैं ना था। और ये सुर्ख़ सुर्ख़ ख़ूबानीयाँ जो अपनी रंगत में कश्मीरी दोशीज़ाओं की तरह सबीह थीं और ऐसी ही रसदार। सब्ज़ सब्ज़ पत्तों के झूमरों से झाँकती नज़र आती थीं। फिर अलहड़ लड़कियां आँगन में नाचने लगतीं और छोटा भाई दरख़्त के ऊपर चढ़ गया और ख़ूबानीयाँ तोड़ तोड़ कर अपनी बहन की सहेलीयों के लिए फेंकता गया। कितनी मीठी थीं, वो पिछली बहार की रस-भरी ख़ूबानीयाँ। जब मैं ना था...
ख़ूबानीयाँ खा के उसने मकई का भुट्ठा निकाला। ऐसी सोंधी सोंधी ख़ुशबू थी। सुनहरा सेंका हुआ भुट्टा और करकरे दाने साफ़-शफ़्फ़ाफ़ मोतीयों की सी जिला लिए हुए और ज़ाइक़े में बेहद शीरीं।
वो बोली, “ये मिस्री मकई के भुट्ठे हैं।”
“बेहद मीठे।” मैंने भुट्ठा खाते हुए कहा।
वो बोली। “पिछली फ़सल के रखे थे, घड़ों में छिपा के। अम्मां की आँख से ओझल।”
मैंने भुट्ठा एक जगह से खाया। दानों की चंद क़तारें रहने दें, फिर उसने उसी जगह से खाया और दानों की चंद क़तारें मेरे लिए रहने दें। जिन्हें मैं खाने लगा और इस तरह हम दोनों एक ही भुट्ठे से खाते गए और मैंने सोचा, ये मिस्री मकई के भुट्ठे कितने मीठे हैं। ये पिछली फ़सल के भुट्ठे। जब तू थी लेकिन मैं ना था। जब तेरे बाप ने हल चलाया था खेतों में। गोड़ी की थी, बीज बोए थे, बादलों ने पानी दिया था। ज़मीन ने सब्ज़ सब्ज़ रंग के छोटे छोटे पौदे उगाए थे। जिनमें तू ने निलाई की थी। फिर पौदे बड़े हो गए थे और उनके सरों पर सरीयाँ निकल आई थीं और हवा में झूमने लगी थीं और तू मकई के पौदों पर हरे हरे भुट्ठे देखने जाती थी। जब मैं ना था। लेकिन भुट्ठों के अंदर दाने पैदा हो रहे थे, दूध भरे दाने, जिनकी नाज़ुक जिल्द के ऊपर अगर ज़रा सा भी नाख़ुन लगा जाये तो दूध बाहर निकल आता है। ऐसे नर्म-ओ-नाज़ुक भुट्ठे इस धरती ने उगाए थे और मैं ना था। और फिर ये भुट्ठे जवान और तवाना हो गए और उनका रस पुख़्ता हो गया। पुख़्ता और सख़्त। अब नाख़ुन लगाने से कुछ ना होता था। अपने नाख़ुन ही के टूटने का एहतिमाल था। भुट्ठों की मूँछें जो पहले पीली थीं, अब सुनहरी और आख़िर में स्याही माइल होती गईं। मकई के भुट्ठों का रंग ज़मीन की तरह भूरा होता गया। मैं जब भी ना आया था और फिर खेतों में खलियान लगे और खलियानों में बैल चले और भुट्ठों से दाने अलग हो गए और तू ने अपनी सहेलीयों के साथ मुहब्बत के गीत गाये और थोड़े से भुट्ठे छुपा के और सेंक के अलग रख दिए। जब मैं ना था, धरती थी, तख़लीक़ थी, मुहब्बत के गीत थे। आग पर सेंके हुए भुट्ठे थे। लेकिन मैं ना था।
मैंने मुसर्रत से उस की तरफ़ देखा और कहा, “आज पूरे चांद की रात को जैसे हर बात पूरी हो गई है। कल तक पूरी ना थी, आज पूरी है।”
उसने भुट्ठा मेरे मुँह से लगा दिया। उस के होंटों का गर्म गर्म लम्स अभी तक इस भुट्ठे पर था। मैंने कहा “मैं तुम्हें चूम लूं?”
वो बोली। “हश, कश्ती डूब जाएगी।”
“तो फिर क्या करें?” मैंने पूछा।
वो बोली, “डूब जाने दो।”
वो पूरे चांद की रात मुझे अब तक नहीं भूलती। मेरी उम्र सत्तर बरस के क़रीब है, लेकिन वो पूरे चांद की रात मेरे ज़हन में इस तरह चमक रही है जैसे अभी वो कल आई थी। ऐसी पाकीज़ा मुहब्बत मैंने आज तक नहीं की होगी। उसने भी नहीं की होगी। वो जादू वो कुछ और था। जिसने पूरे चांद की रात को हम दोनों को एक दूसरे से यूं मिला दिया कि वो फिर घर नहीं गई। उसी रात मेरे साथ भाग आई और हम पाँच छः दिन मुहब्बत में खोए हुए बच्चों की तरह इधर उधर जंगलों के किनारे नदी नालों पर अखरोटों के साये तले घूमते रहे, दुनिया-ओ-माफ़ीहा से बे-ख़बर। फिर मैंने इसी झील के किनारे एक छोटा सा घर ख़रीद लिया और उस में हम दोनों रहने लगे। कोई एक महीने के बाद में श्रीनगर गया और उस से ये कह के गया कि तीसरे दिन लौट आऊँगा। तीसरे दिन में लौट आया तो क्या देखता हूँ कि वो एक नौजवान से घुल मिल के बातें कर रही है। वो दोनों एक ही रकाबी में खाना खा रहे थे। एक दूसरे के मुँह में लुक़्मे डालते जाते हैं और हंसते जाते हैं। मैंने उन्हें देख लिया। लेकिन उन्होंने मुझे नहीं देखा। वो अपनी मुसर्रत में इस क़दर महव थे कि उन्होंने मुझे नहीं देखा। और मैंने सोचा कि ये पिछली बहार या उस से भी पिछली बहार का महबूब है, जब मैं ना था और फिर शायद और आगे भी कितनी ही ऐसी बहारें आयेंगी , कितनी ही पूरे चांद की रातें, जब मुहब्बत एक फ़ाहिशा औरत की तरह बेक़ाबू हो जाएगी और उर्यां हो के रक़्स करने लगेगी। आज तेरे घर में ख़िज़ां आ गई है। जैसे हर बहार के बाद आती है। अब तेरा यहां क्या काम। इस लिए में ये सोच कर उनसे मिले बग़ैर ही वापिस चला गया और फिर अपनी पहली बहार से कभी नहीं मिला।
और अब मैं अड़तालीस बरस के बाद लौट के आया हूँ। मेरे बेटे मेरे साथ हैं। मेरी बीवी मर चुकी है लेकिन मेरे बेटों की बीवीयां और उनके बच्चे मेरे साथ हैं और हम लोग सैर करते करते सम्मल झील के किनारे आ निकले हैं और अप्रैल का महीना है और सै पहर से शाम हो गई है और मैं देर तक पुल के किनारे खड़ा बादाम के पेड़ों की क़तारें देखता जाता हूँ और ख़ुनुक हवा में सफ़ैद शगूफ़ों के गुच्छे लहराते जाते हैं और पगडंडी की ख़ाक पर से किसी के जाने-पहचाने क़दमों की आवाज़ सुनाई नहीं देती। एक हसीन दोशीज़ा लड़की हाथों में एक छोटी सी पोटली दबाए पुल पर से भागती हुई गुज़र जाती है और मेरा दिल धक से रह जाता है। दूर पार तंगों से परे बस्ती में कोई बीवी अपने ख़ाविंद को आवाज़ दे रही है। वो उसे खाने पर बुला रही है। कहीं से एक दरवाज़ा बंद होने की सदा आती है और एक रोता हुआ बच्चा यकायक चुप हो जाता है। छतों से धुआँ निकल रहा है और परिंदे शोर मचाते हुए एक दम दरख़्तों की घनी शाख़ों में अपने पर फड़फड़ाते हैं और फिर एक दम चुप हो जाते हैं। ज़रूर कोई मांझी गा रहा है और उस की आवाज़ गूँजती गूँजती उफ़ुक़ के उस पार गुम होती जा रही है।
मैं पुल को पार कर के आगे बढ़ता हूँ। मेरे बेटे और उनकी बीवीयां और बच्चे मेरे पीछे आरहे हैं। वो अलग अलग टोलियों में बटे हुए हैं। यहां पर बादाम के पेड़ों की क़तार ख़त्म हो गई। तल्ला भी ख़त्म हो गया। झील का किनारा है। ये ख़ूबानी का दरख़्त है, लेकिन कितना बड़ा हो गया है। मगर कश्ती, ये कश्ती है। मगर क्या ये वही कश्ती है। सामने वो घर है। मेरी पहली बहार का घर। मेरी पूरे चांद की रात की मुहब्बत।
घर में रोशनी है। बच्चों की सदाएँ हैं। कोई भारी आवाज़ में गाने लगता है। कोई बुढ़िया उसे चीख़ कर चुप करा देती है। मैं सोचता हूँ, आधी सदी हो गई। मैंने इस घर को नहीं देखा। देख लेने में क्या हर्ज है। आख़िर मैंने उसे ख़रीदा था। देखा जाये तो मैं अभी तक उस का मालिक हूँ। देख लेने में हर्ज ही किया है। मैं घर के अंदर चला जाता हूँ।
बड़े अच्छे प्यारे बच्चे हैं। एक जवान औरत अपने ख़ाविंद के लिए रकाबी में खाना रख रही है। मुझे देखकर ठिटक जाती है। दो बच्चे लड़ रहे थे। मुझे देखकर हैरत से चुप हो जाते हैं। बुढ़िया जो अभी ग़ुस्सा में डाँट रही थी, थम के पास आ के खड़ी हो जाती है, कहती है, “कौन हो तुम?”
मैंने कहा, “ये घर मेरा है।”
वो बोली, “तुम्हारे बाप का है।”
मैंने कहा, “मेरे बाप का नहीं है, मेरा है। कोई अड़तालीस साल हुए, मैंने इसे ख़रीदा था। बस इस वक़्त तो यूं ही में इसे देखने के लिए चला आया। आप लोगों को निकालने के लिए नहीं आया हूँ। ये घर तो बस समझिए अब आप ही का है। मैं तो यूंही।”
में ये कह कर लौटने लगा। बुढ़िया की उंगलियां सख़्ती से थम पर जम गईं। उसने सांस ज़ोर से अंदर को खींची।
बोली, “तो तुम हो, अब इतने बरस के बाद कोई कैसे पहचाने।”
वो थम से लगी देर तक ख़ामोश खड़ी रही। मैं नीचे आँगन में चुप-चाप खड़ा उस की तरफ़ देखता रहा। फिर वो आप ही आप हंस दी।
बोली, “आओ मैं तुम्हें अपने घर के लोगों से मिलाऊं, देखो ये मेरा बड़ा बेटा है। ये इस से छोटा है, ये बड़े बेटे की बीवी है। ये मेरा बड़ा पोता है, सलाम करो बेटा। ये पोती, ये मेरा ख़ाविंद है। शश, उसे जगाना नहीं। परसों से उसे बुख़ार आ रहा है। सोने दो उसे।”
वो बोली, “तुम्हारी क्या ख़ातिर करूँ।”
मैंने दीवार पर खूँटी से टँगे हुए मकई के भुट्ठों को देखा। सेंके हुए भुट्ठे। सुनहरे मोतीयों के से शफ़्फ़ाफ़ दाने।
हम दोनों मुस्कुरा दिए।
वो बोली, “मेरे तो बहुत से दाँत झड़ चुके हैं, जो हैं भी वो काम नहीं करते।”
मैंने कहा, “यही हाल मेरा भी है, भुट्ठा ना खा सकूँगा।”
मुझे घर के अंदर घुसते देखकर मेरे घर के अफ़राद भी अंदर चले आए थे। अब ख़ूब गहमा गहमी थी। बच्चे एक दूसरे से बहुत जल्द मिल-जुल गए। हम दोनों आहिस्ता-आहिस्ता बाहर चले आए। आहिस्ता-आहिस्ता झील के किनारे चलते गए।
वो बोली, “मैंने छः बरस तुम्हारा इंतेज़ार किया। तुम उस रोज़ क्यों नहीं आए?”
मैंने कहा, “मैं आया था। मगर तुम्हें किसी दूसरे नौजवान के साथ देखकर वापस चला गया था।”
“क्या कहते हो?” वो बोली।
“हाँ तुम उस के साथ खाना खा रही थीं, एक ही रकाबी में और वो तुम्हारे मुँह में और तुम उस के मुँह में लुक़्मे डाल रही थीं।”
वो एक दम चुप हो गई। फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी। ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी।
“क्या हुआ?” मैं ने हैरान हो कर पूछा।
वो बोली, “अरे वो तो मेरा सगा भाई था।”
वो फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी। “वो मुझसे मिलने के लिए आया था, उसी रोज़ तुम भी आने वाले थे। वो वापस जा रहा था। मैंने उसे रोक लिया कि तुमसे मिल के जाये। तुम फिर आए ही नहीं।”
वो एक दम संजीदा हो गई। “छः बरस मैंने तुम्हारा इंतिज़ार किया। तुम्हारे जाने के बाद मुझे ख़ुदा ने बेटा दिया, तुम्हारा बेटा। मगर एक साल बाद वो भी मर गया। चार साल और मैंने तुम्हारी राह देखी मगर तुम नहीं आए। फिर मैंने शादी कर ली।”
दो बच्चे बाहर निकल आए। खेलते खेलते एक बच्चा दूसरी बच्ची को मकई का भुट्टा खिला रहा था।
उसने कहा, “वो मेरा पोता है।”
मैंने कहा, “वो मेरी पोती है।”
वो दोनों भागते भागते झील के किनारे दूर तक चले गए। ज़िन्दगी के दो ख़ूबसूरत मुरक़्क़े। हम देर तक उन्हें देखते रहे। वो मेरे क़रीब आ गई। बोली, “आज तुम आए हुए हो तो मुझे अच्छा लग रहा है। मैंने अब अपनी ज़िंदगी बना ली है। इस की सारी ख़ुशीयां और ग़म देखे हैं। मेरा हरा-भरा घर है और आज तुम भी आए हो, मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लग रहा है।”
मैंने कहा, “यही हाल मेरा है। सोचता था ज़िन्दगी भर तुम्हें नहीं मिलूँगा। इसी लिए इतने बरस इधर कभी नहीं आया। अब आया हूँ तो ज़रा रत्ती भर भी बुरा नहीं लग रहा।”
हम दोनों चुप हो गए। बच्चे खेलते खेलते हमारे पास आ गए। उसने मेरी पोती को उठा लिया, मैंने उस के पोते को उसने मेरी पोती को चूमा, मैंने उस के पोते को, और हम दोनों ख़ुशी से एक दूसरे को देखने लगे। इस की पुतलियों में चांद चमक रहा था और वो चांद हैरत और मुसर्रत से कह रहा था, “इन्सान मर जाते हैं, लेकिन ज़िंदगी नहीं मरती। बहार ख़त्म हो जाती है लेकिन फिर दूसरी बहार आ जाती है। छोटी छोटी मुहब्बतें भी ख़त्म हो जाती हैं लेकिन ज़िंदगी की बड़ी और अज़ीम सच्ची मुहब्बत हमेशा क़ायम रहती है। तुम दोनों पिछली बहार में ना थे। ये बहार तुमने देखी, इस से अगली बहार में तुम ना होगे। लेकिन ज़िंदगी फिर भी होगी और जवानी भी होगी और ख़ूबसूरती और रानाई और मासूमियत भी।”
बच्चे हमारी गोद से उतर पड़े क्योंकि वो अलग से खेलना चाहते थे। वो भागते हुए ख़ूबानी के दरख़्त के क़रीब चले गए। जहां कश्ती बंधी थी।
मैंने पूछा, “ये वही दरख़्त है?”
उसने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं ये दूसरा दरख़्त है।”
लेकिन अभी अप्रैल का महीना था। अभी तंगों पर पत्तियाँ ना फूटी थीं। अभी पहाड़ों पर बर्फ़ का कोहरा था। अभी पगडंडी का सीना भेड़ों की आवाज़ से गूँजा ना था। अभी सम्मल की झील पर कंवल के चराग़ रौशन ना हुए थे। झील का गहरा सब्ज़ पानी अपने सीने के अंदर उन लाखों रूपों को छुपाए बैठा था जो बहार की आमद पर यकायक उस की सतह पर एक मासूम और बेलौस हंसी की तरह खिल जाऐंगे। पुल के किनारे किनारे बादाम के पेड़ों की शाख़ों पर शगूफ़े चमकने लगे थे। अप्रैल में ज़मिस्तान की आख़िरी शब में जब बादाम के फूल जागते हैं और बहार के नक़ीब बन कर झील के पानी में अपनी किश्तियां तैराते हैं। फूलों के नन्हे नन्हे शिकारे सतह-ए-आब पर रक़्साँ-ओ-लर्ज़ां बहार की आमद के मुंतज़िर हैं।
पुल के जंगले का सहारा लेकर में एक अरसे से उस का इंतेज़ार कर रहा था। सै पहर ख़त्म हो गई। शाम आ गई, झील वलर को जाने वाले हाऊस बोट, पुल की संगलाख़ी मेहराबों के बीच में से गुज़र गए और अब वो उफ़ुक़ की लकीर पर काग़ज़ की नाव की तरह कमज़ोर और बेबस नज़र आ रहे थे। शाम का क़िरमज़ी रंग आसमान के इस किनारे से उस किनारे तक फैलता गया और क़िरमज़ी से सुरमई और सुरमई से सियाह होता गया। हत्ता कि बादाम के पेड़ों की क़तार की ओट में पगडंडी भी सो गई और फिर रात के सन्नाटे में पहला तारा किसी मुसाफ़िर के गीत की तरह चमक उठा। हवा की ख़ुनकी तेज़-तर होती गई और नथने उस के बर्फ़ीले लम्स से सुन्न हो गए।
और फिर चांद निकल आया।
और फिर वो आ गई।
तेज़ तेज़ क़दमों से चलती हुई, बल्कि पगडंडी के ढलान पर दौड़ती हुई, वो बिलकुल मेरे क़रीब आ के रुक गई। उसने आहिस्ता से कहा।
हाय!
उस की सांस तेज़ी से चल रही थी, फिर रुक जाती, फिर तेज़ी से चलने लगती। उसने मेरे शाने को अपनी उंगलीयों से छुवा और फिर अपना सर वहां रख दिया और उस के गहरे सियाह बालों का परेशान घना जंगल दूर तक मेरी रूह के अंदर फैलता चला गया और मैंने उस से कहा “सै पहर से तुम्हारा इंतिज़ार कर रहा हूँ।”
उसने हंसकर कहा। “अब रात हो गई है, बड़ी अच्छी रात है।”
उसने अपना कमज़ोर नन्हा छोटा सा हाथ मेरे दूसरे शाने पर रख दिया और जैसे बादाम के फूलों से भरी शाख़ झुक कर मेरे कंधे पर सो गई।
देर तक वो ख़ामोश रही। देर तक मैं ख़ामोश रहा। फिर वो आप ही आप हंसी, बोली “अब्बा मेरे पगडंडी के मोड़ तक मेरे साथ आए थे, क्यों कि मैंने कहा, मुझे डर लगता है। आज मुझे अपनी सहेली रज्जो के घर सोना है, सोना नहीं जागना है। क्योंकि बादाम के पहले शगूफ़ों की ख़ुशी में हम सब सहेलियाँ रात-भर जागेंगी और गीत गाएँगी और मैं तो सै पहर से तैयारी कर रही थी, इधर आने की। लेकिन धान साफ़ करना था और कपड़ों का ये जोड़ा जो कल धोया था आज सूखा ना था। उसे आग पर सुखाया और अम्मां जंगल से लकड़ियाँ चुनने गई थीं वो अभी आई ना थीं और जब तक वो ना आतीं मैं मक्की के भुट्टे और ख़ुश्क ख़ूबानीयाँ और जरवालो तुम्हारे लिए कैसे ला सकती हूँ। देखो ये सब कुछ लाई हूँ तुम्हारे लिए। हाय तुम सच-मुच ख़फ़ा खड़े हो। मेरी तरफ़ देखो में आ गई हूँ। आज पूरे चांद की रात है। आओ किनारे लगी हुई कश्ती खोलें और झील की सैर करें।”
उसने मेरी आँखों में देखा और मैंने उस की मुहब्बत और हैरत में गुम पुतलीयों को देखा, जिनमें उस वक़्त चांद चमक रहा था और ये चांद मुझसे कह रहा था, जाओ कश्ती खोल के झील के पानी पर सैर करो। आज बादाम के पीले शगूफ़ों का मुसर्रत भरा त्यौहार है। आज उसने तुम्हारे लिए अपनी सहेलीयों अपने अब्बा, अपनी नन्ही बहन और अपने बड़े भाई सबको फ़रेब में रखा है, क्योंकि आज पूरे चांद की रात है और बादाम के सपीद ख़ुश्क शगूफ़े बर्फ़ के गालों की तरह चारों तरफ़ फैले हुए हैं और कश्मीर के गीत उस की छातीयों में बच्चे के दूध की तरह उमड़ आए हैं। उस की गर्दन में तुमने मोतीयों की ये सत-लड़ी देखी। ये सुर्ख़ सत-लड़ी उस के गले में डाल दी और उस से कहा, “तो आज रात-भर जागेगी। आज कश्मीर की बहार की पहली रात है। आज तेरे गले में कश्मीर के गीत यूं खिलेंगे, जैसे चाँदनी-रात में ज़ाफ़रान के फूल खिलते हैं। ये सुर्ख़ सत-लड़ी पहन ले।”
चांद ने ये सब कुछ उस की हैरान पुतलीयों से झांक के देखा फिर यकायक कहीं किसी पेड़ पर एक बुलबुल नग़मासरा हो उठी और कश्तियों में चिराग़ झिलमिलाने लगे और तंगों से परे बस्ती में गीतों की मद्धम सदा बुलंद हुई। गीत और बच्चों के क़हक़हे और मर्दों की भारी आवाज़ें और नन्हे बच्चों के रोने की मीठी सदाएँ और छतों से ज़िन्दगी का आहिस्ता-आहिस्ता सुलगता हुआ धुआँ और शाम के खाने की महक, मछली और भात और कड़म के साग का नरम नमकीन और लतीफ़ ज़ायक़ा और पूरे चांद की रात का बहार आफ़रीं जोबन। मेरा ग़ुस्सा धुल गया। मैंने उस का हाथ अपने हाथ में ले लिया और उस से कहा, “आओ चलें झील पर।”
पुल गुज़र गया। पगडंडी गुज़र गई, बादाम के दरख़्तों की क़तार ख़त्म हो गई। तल्ला गुज़र गया। अब हम झील के किनारे किनारे चल रहे थे। झाड़ियों में मेंढ़क बोल रहे थे। मेंढ़क और झींगुर और बीनड़े, उनकी बेहंगम सदाओं का शोर भी एक नग़मा बन गया था। एक ख़्वाब-नाक सिम्फ़नी और सोई हुई झील के बीच में चांद की कश्ती खड़ी थी। साकिन चुप-चाप, मुहब्बत के इंतेज़ार में, हज़ारों साल से इसी तरह खड़ी थी। मेरी और उस की मुहब्बत की मुन्तज़िर, तुम्हारी और तुम्हारे महबूब की मुस्कुराहट की मुन्तज़िर, इन्सान के इन्सान को चाहने की आरज़ू की मुन्तज़िर। ये पूरे चांद की हसीन पाकीज़ा रात किसी कुँवारी के बे छूए जिस्म की तरह मुहब्बत के मुक़द्दस लम्स की मुन्तज़िर है।
कश्ती ख़ूबानी के एक पेड़ से बंधी थी। जो बिलकुल झील के किनारे उगा था। यहां पर ज़मीन बहुत नर्म थी और चांदनी पत्तों की ओट से छनती हुई आ रही थी और मेंढ़क हौले हौले गा रहे थे और झील का पानी बार-बार किनारे को चूमता जाता था और उस के चूमने की सदा बार-बार हमारे कानों में आ रही थी। मैंने दोनों हाथ, उस की कमर में डाल दिए और उसे ज़ोर ज़ोर से अपने सीने से लगा लिया। झील का पानी बार-बार किनारे को चूम रहा था। पहले मैंने उस की आँखें चूमीं और झील की सतह पर लाखों कंवल खिल गए। फिर मैंने उस के रुख़्सार चूमे और नरम हवाओं के लतीफ़ झोंके यकायक बुलंद होके सदहा गीत गाने लगे। फिर मैंने उस के होंट चूमे और लाखों मंदिरों, मस्जिदों और कलीसाओं में दुआओं का शोर बुलंद हुआ और ज़मीन के फूल और आसमान के तारे और हवाओं में उड़ने वाले बादल सब मिल के नाचने लगे। फिर मैंने उस की ठोढ़ी को चूमा और फिर उस की गर्दन के पेचो ख़म को, और कंवल खिलते खिलते सिमटते गए कलीयों की तरह और गीत बुलंद हो हो के मद्धम होते गए और नाच धीमा पड़ता पड़ता रुक गया। अब वही मेंढ़क की आवाज़ थी। वही झील के नरम नरम बोसे और कोई छाती से लगा सिसकियाँ ले रहा था।
मैंने आहिस्ता से कश्ती खोली। वो कश्ती में बैठ गई। मैंने चप्पू अपने हाथ में ले लिया और कश्ती को खे कर झील के मर्कज़ में ले गया। यहां कश्ती आप ही आप खड़ी हो गई। ना इधर बहती थी ना उधर। मैंने चप्पू उठा कर कश्ती में रख लिया। उसने पोटली खोली। उस में से जरवालो निकाल कर मुझे दिए। ख़ुद भी खाने लगी। जर वालो ख़ुशक थे और खट्टे मीठे।
“वो बोली। ये पिछली बार के हैं।”
मैं जरवालो खाता रहा और उस की तरफ़ देखता रहा।
वो आहिस्ता से बोली। “पिछली बहार में तुम ना थे।”
पिछली बहार में, मैं ना था। और जरवालो के पेड़ फूलों से भर गए थे और ज़रा सी शाख़ हिलाने पर फूल टूट कर सतह-ए-ज़मीन पर मोतीयों की तरह बिखर जाते थे। पिछली बहार में, मैं ना था और जर वालो के पेड़ फलों से लदे फंदे थे। सब्ज़ सब्ज़ जरवालो। सख़्त खट्टे जरवालो जो नमक मिर्च लगा के खाए जाते थे और ज़बान सी सी करती थी और नाक बहने लगती थी और फिर भी खट्टे जरवालो खाए जाते थे। पिछली बहार में, मैं ना था। और ये सब्ज़ सब्ज़ जरवालो, पक के पीले और सुनहरे और सुर्ख़ होते गए और डाल डाल में मुसर्रत के सुर्ख़ शगूफ़े झूम रहे थे और मुसर्रत भरी आँखें, चमकती हुई मासूम आँखें उन्हें झूमता हुआ देखकर रक़्स सा करने लगतीं। पिछली बहार में, मैं ना था और सुर्ख़ सुर्ख़ जरवालो ख़ूबसूरत हाथों ने इकट्ठे कर लिए। ख़ूबसूरत लबों ने उनका ताज़ा रस चूसा और उन्हें अपने घर की छत पर ले जाकर सूखने के लिए रख दिया कि जब ये जरवालो सूख जाऐंगे, जब एक बहार गुज़र जाएगी और दूसरी बहार आने को होगी तो मैं आऊँगा और उनकी लज़्ज़त से लुत्फ़ अंदोज़ हो सकूँगा।
जरवालो खा के हमने ख़ुश्क ख़ूबानीयाँ खाईं। ख़ूबानी पहले तो बहुत मीठी मालूम ना होती मगर जब दहन के लुआब में घुल जाती तो शहद-ओ-शकर का मज़ा देने लगतीं।
“नर्म नर्म बहुत मीठी हैं ये।” मैंने कहा। उसने एक गुठली को दाँतों से तोड़ा और ख़ूबानी का बीज निकाल के मुझे दिया। “खाओ।”
बीज बादाम की तरह मीठा था।
“ऐसी ख़ूबानीयाँ मैंने कभी नहीं खाईं।”
उसने कहा। “ये हमारे आँगन का पेड़ है। हमारे हाँ ख़ूबानी का एक ही पेड़ है। मगर इतनी बड़ी और सुर्ख़ और मीठी ख़ूबानीयाँ होती हैं उस की कि मैं क्या कहूं। जब ख़ूबानीयाँ पक जाती हैं तो मेरी सारी सहेलियाँ इकट्ठी हो जाती हैं और ख़ूबानीयाँ खिलाने को कहती हैं। पिछली बिहार में...”
और मैंने सोचा, पिछली बिहार में, मैं ना था। मगर ख़ूबानी का पेड़ आँगन में इसी तरह खड़ा था। पिछली बिहार में वो नाज़ुक नाज़ुक पत्तों से भर गया था। फिर उनमें कच्ची ख़ूबानियों के सब्ज़ और नोकीले फल लगे थे। अभी इन ख़ूबानियों में गुठली पैदा ना हुई थी और ये कच्चे खट्टे फल दोपहर के खाने के साथ चटनी का काम देते थे। पिछली बहार में, मैं ना था और फिर इन ख़ूबानियों में गुठलियां पैदा हो गई थीं और ख़ूबानियों का रंग हल्का सुनहरा होने लगा था और गुठलियों के अंदर नरम नरम बीज अपने ज़ायक़े में सब्ज़ बादामों को भी मात करते थे। पिछली बहार में, मैं ना था। और ये सुर्ख़ सुर्ख़ ख़ूबानीयाँ जो अपनी रंगत में कश्मीरी दोशीज़ाओं की तरह सबीह थीं और ऐसी ही रसदार। सब्ज़ सब्ज़ पत्तों के झूमरों से झाँकती नज़र आती थीं। फिर अलहड़ लड़कियां आँगन में नाचने लगतीं और छोटा भाई दरख़्त के ऊपर चढ़ गया और ख़ूबानीयाँ तोड़ तोड़ कर अपनी बहन की सहेलीयों के लिए फेंकता गया। कितनी मीठी थीं, वो पिछली बहार की रस-भरी ख़ूबानीयाँ। जब मैं ना था...
ख़ूबानीयाँ खा के उसने मकई का भुट्ठा निकाला। ऐसी सोंधी सोंधी ख़ुशबू थी। सुनहरा सेंका हुआ भुट्टा और करकरे दाने साफ़-शफ़्फ़ाफ़ मोतीयों की सी जिला लिए हुए और ज़ाइक़े में बेहद शीरीं।
वो बोली, “ये मिस्री मकई के भुट्ठे हैं।”
“बेहद मीठे।” मैंने भुट्ठा खाते हुए कहा।
वो बोली। “पिछली फ़सल के रखे थे, घड़ों में छिपा के। अम्मां की आँख से ओझल।”
मैंने भुट्ठा एक जगह से खाया। दानों की चंद क़तारें रहने दें, फिर उसने उसी जगह से खाया और दानों की चंद क़तारें मेरे लिए रहने दें। जिन्हें मैं खाने लगा और इस तरह हम दोनों एक ही भुट्ठे से खाते गए और मैंने सोचा, ये मिस्री मकई के भुट्ठे कितने मीठे हैं। ये पिछली फ़सल के भुट्ठे। जब तू थी लेकिन मैं ना था। जब तेरे बाप ने हल चलाया था खेतों में। गोड़ी की थी, बीज बोए थे, बादलों ने पानी दिया था। ज़मीन ने सब्ज़ सब्ज़ रंग के छोटे छोटे पौदे उगाए थे। जिनमें तू ने निलाई की थी। फिर पौदे बड़े हो गए थे और उनके सरों पर सरीयाँ निकल आई थीं और हवा में झूमने लगी थीं और तू मकई के पौदों पर हरे हरे भुट्ठे देखने जाती थी। जब मैं ना था। लेकिन भुट्ठों के अंदर दाने पैदा हो रहे थे, दूध भरे दाने, जिनकी नाज़ुक जिल्द के ऊपर अगर ज़रा सा भी नाख़ुन लगा जाये तो दूध बाहर निकल आता है। ऐसे नर्म-ओ-नाज़ुक भुट्ठे इस धरती ने उगाए थे और मैं ना था। और फिर ये भुट्ठे जवान और तवाना हो गए और उनका रस पुख़्ता हो गया। पुख़्ता और सख़्त। अब नाख़ुन लगाने से कुछ ना होता था। अपने नाख़ुन ही के टूटने का एहतिमाल था। भुट्ठों की मूँछें जो पहले पीली थीं, अब सुनहरी और आख़िर में स्याही माइल होती गईं। मकई के भुट्ठों का रंग ज़मीन की तरह भूरा होता गया। मैं जब भी ना आया था और फिर खेतों में खलियान लगे और खलियानों में बैल चले और भुट्ठों से दाने अलग हो गए और तू ने अपनी सहेलीयों के साथ मुहब्बत के गीत गाये और थोड़े से भुट्ठे छुपा के और सेंक के अलग रख दिए। जब मैं ना था, धरती थी, तख़लीक़ थी, मुहब्बत के गीत थे। आग पर सेंके हुए भुट्ठे थे। लेकिन मैं ना था।
मैंने मुसर्रत से उस की तरफ़ देखा और कहा, “आज पूरे चांद की रात को जैसे हर बात पूरी हो गई है। कल तक पूरी ना थी, आज पूरी है।”
उसने भुट्ठा मेरे मुँह से लगा दिया। उस के होंटों का गर्म गर्म लम्स अभी तक इस भुट्ठे पर था। मैंने कहा “मैं तुम्हें चूम लूं?”
वो बोली। “हश, कश्ती डूब जाएगी।”
“तो फिर क्या करें?” मैंने पूछा।
वो बोली, “डूब जाने दो।”
वो पूरे चांद की रात मुझे अब तक नहीं भूलती। मेरी उम्र सत्तर बरस के क़रीब है, लेकिन वो पूरे चांद की रात मेरे ज़हन में इस तरह चमक रही है जैसे अभी वो कल आई थी। ऐसी पाकीज़ा मुहब्बत मैंने आज तक नहीं की होगी। उसने भी नहीं की होगी। वो जादू वो कुछ और था। जिसने पूरे चांद की रात को हम दोनों को एक दूसरे से यूं मिला दिया कि वो फिर घर नहीं गई। उसी रात मेरे साथ भाग आई और हम पाँच छः दिन मुहब्बत में खोए हुए बच्चों की तरह इधर उधर जंगलों के किनारे नदी नालों पर अखरोटों के साये तले घूमते रहे, दुनिया-ओ-माफ़ीहा से बे-ख़बर। फिर मैंने इसी झील के किनारे एक छोटा सा घर ख़रीद लिया और उस में हम दोनों रहने लगे। कोई एक महीने के बाद में श्रीनगर गया और उस से ये कह के गया कि तीसरे दिन लौट आऊँगा। तीसरे दिन में लौट आया तो क्या देखता हूँ कि वो एक नौजवान से घुल मिल के बातें कर रही है। वो दोनों एक ही रकाबी में खाना खा रहे थे। एक दूसरे के मुँह में लुक़्मे डालते जाते हैं और हंसते जाते हैं। मैंने उन्हें देख लिया। लेकिन उन्होंने मुझे नहीं देखा। वो अपनी मुसर्रत में इस क़दर महव थे कि उन्होंने मुझे नहीं देखा। और मैंने सोचा कि ये पिछली बहार या उस से भी पिछली बहार का महबूब है, जब मैं ना था और फिर शायद और आगे भी कितनी ही ऐसी बहारें आयेंगी , कितनी ही पूरे चांद की रातें, जब मुहब्बत एक फ़ाहिशा औरत की तरह बेक़ाबू हो जाएगी और उर्यां हो के रक़्स करने लगेगी। आज तेरे घर में ख़िज़ां आ गई है। जैसे हर बहार के बाद आती है। अब तेरा यहां क्या काम। इस लिए में ये सोच कर उनसे मिले बग़ैर ही वापिस चला गया और फिर अपनी पहली बहार से कभी नहीं मिला।
और अब मैं अड़तालीस बरस के बाद लौट के आया हूँ। मेरे बेटे मेरे साथ हैं। मेरी बीवी मर चुकी है लेकिन मेरे बेटों की बीवीयां और उनके बच्चे मेरे साथ हैं और हम लोग सैर करते करते सम्मल झील के किनारे आ निकले हैं और अप्रैल का महीना है और सै पहर से शाम हो गई है और मैं देर तक पुल के किनारे खड़ा बादाम के पेड़ों की क़तारें देखता जाता हूँ और ख़ुनुक हवा में सफ़ैद शगूफ़ों के गुच्छे लहराते जाते हैं और पगडंडी की ख़ाक पर से किसी के जाने-पहचाने क़दमों की आवाज़ सुनाई नहीं देती। एक हसीन दोशीज़ा लड़की हाथों में एक छोटी सी पोटली दबाए पुल पर से भागती हुई गुज़र जाती है और मेरा दिल धक से रह जाता है। दूर पार तंगों से परे बस्ती में कोई बीवी अपने ख़ाविंद को आवाज़ दे रही है। वो उसे खाने पर बुला रही है। कहीं से एक दरवाज़ा बंद होने की सदा आती है और एक रोता हुआ बच्चा यकायक चुप हो जाता है। छतों से धुआँ निकल रहा है और परिंदे शोर मचाते हुए एक दम दरख़्तों की घनी शाख़ों में अपने पर फड़फड़ाते हैं और फिर एक दम चुप हो जाते हैं। ज़रूर कोई मांझी गा रहा है और उस की आवाज़ गूँजती गूँजती उफ़ुक़ के उस पार गुम होती जा रही है।
मैं पुल को पार कर के आगे बढ़ता हूँ। मेरे बेटे और उनकी बीवीयां और बच्चे मेरे पीछे आरहे हैं। वो अलग अलग टोलियों में बटे हुए हैं। यहां पर बादाम के पेड़ों की क़तार ख़त्म हो गई। तल्ला भी ख़त्म हो गया। झील का किनारा है। ये ख़ूबानी का दरख़्त है, लेकिन कितना बड़ा हो गया है। मगर कश्ती, ये कश्ती है। मगर क्या ये वही कश्ती है। सामने वो घर है। मेरी पहली बहार का घर। मेरी पूरे चांद की रात की मुहब्बत।
घर में रोशनी है। बच्चों की सदाएँ हैं। कोई भारी आवाज़ में गाने लगता है। कोई बुढ़िया उसे चीख़ कर चुप करा देती है। मैं सोचता हूँ, आधी सदी हो गई। मैंने इस घर को नहीं देखा। देख लेने में क्या हर्ज है। आख़िर मैंने उसे ख़रीदा था। देखा जाये तो मैं अभी तक उस का मालिक हूँ। देख लेने में हर्ज ही किया है। मैं घर के अंदर चला जाता हूँ।
बड़े अच्छे प्यारे बच्चे हैं। एक जवान औरत अपने ख़ाविंद के लिए रकाबी में खाना रख रही है। मुझे देखकर ठिटक जाती है। दो बच्चे लड़ रहे थे। मुझे देखकर हैरत से चुप हो जाते हैं। बुढ़िया जो अभी ग़ुस्सा में डाँट रही थी, थम के पास आ के खड़ी हो जाती है, कहती है, “कौन हो तुम?”
मैंने कहा, “ये घर मेरा है।”
वो बोली, “तुम्हारे बाप का है।”
मैंने कहा, “मेरे बाप का नहीं है, मेरा है। कोई अड़तालीस साल हुए, मैंने इसे ख़रीदा था। बस इस वक़्त तो यूं ही में इसे देखने के लिए चला आया। आप लोगों को निकालने के लिए नहीं आया हूँ। ये घर तो बस समझिए अब आप ही का है। मैं तो यूंही।”
में ये कह कर लौटने लगा। बुढ़िया की उंगलियां सख़्ती से थम पर जम गईं। उसने सांस ज़ोर से अंदर को खींची।
बोली, “तो तुम हो, अब इतने बरस के बाद कोई कैसे पहचाने।”
वो थम से लगी देर तक ख़ामोश खड़ी रही। मैं नीचे आँगन में चुप-चाप खड़ा उस की तरफ़ देखता रहा। फिर वो आप ही आप हंस दी।
बोली, “आओ मैं तुम्हें अपने घर के लोगों से मिलाऊं, देखो ये मेरा बड़ा बेटा है। ये इस से छोटा है, ये बड़े बेटे की बीवी है। ये मेरा बड़ा पोता है, सलाम करो बेटा। ये पोती, ये मेरा ख़ाविंद है। शश, उसे जगाना नहीं। परसों से उसे बुख़ार आ रहा है। सोने दो उसे।”
वो बोली, “तुम्हारी क्या ख़ातिर करूँ।”
मैंने दीवार पर खूँटी से टँगे हुए मकई के भुट्ठों को देखा। सेंके हुए भुट्ठे। सुनहरे मोतीयों के से शफ़्फ़ाफ़ दाने।
हम दोनों मुस्कुरा दिए।
वो बोली, “मेरे तो बहुत से दाँत झड़ चुके हैं, जो हैं भी वो काम नहीं करते।”
मैंने कहा, “यही हाल मेरा भी है, भुट्ठा ना खा सकूँगा।”
मुझे घर के अंदर घुसते देखकर मेरे घर के अफ़राद भी अंदर चले आए थे। अब ख़ूब गहमा गहमी थी। बच्चे एक दूसरे से बहुत जल्द मिल-जुल गए। हम दोनों आहिस्ता-आहिस्ता बाहर चले आए। आहिस्ता-आहिस्ता झील के किनारे चलते गए।
वो बोली, “मैंने छः बरस तुम्हारा इंतेज़ार किया। तुम उस रोज़ क्यों नहीं आए?”
मैंने कहा, “मैं आया था। मगर तुम्हें किसी दूसरे नौजवान के साथ देखकर वापस चला गया था।”
“क्या कहते हो?” वो बोली।
“हाँ तुम उस के साथ खाना खा रही थीं, एक ही रकाबी में और वो तुम्हारे मुँह में और तुम उस के मुँह में लुक़्मे डाल रही थीं।”
वो एक दम चुप हो गई। फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी। ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी।
“क्या हुआ?” मैं ने हैरान हो कर पूछा।
वो बोली, “अरे वो तो मेरा सगा भाई था।”
वो फिर ज़ोर ज़ोर से हँसने लगी। “वो मुझसे मिलने के लिए आया था, उसी रोज़ तुम भी आने वाले थे। वो वापस जा रहा था। मैंने उसे रोक लिया कि तुमसे मिल के जाये। तुम फिर आए ही नहीं।”
वो एक दम संजीदा हो गई। “छः बरस मैंने तुम्हारा इंतिज़ार किया। तुम्हारे जाने के बाद मुझे ख़ुदा ने बेटा दिया, तुम्हारा बेटा। मगर एक साल बाद वो भी मर गया। चार साल और मैंने तुम्हारी राह देखी मगर तुम नहीं आए। फिर मैंने शादी कर ली।”
दो बच्चे बाहर निकल आए। खेलते खेलते एक बच्चा दूसरी बच्ची को मकई का भुट्टा खिला रहा था।
उसने कहा, “वो मेरा पोता है।”
मैंने कहा, “वो मेरी पोती है।”
वो दोनों भागते भागते झील के किनारे दूर तक चले गए। ज़िन्दगी के दो ख़ूबसूरत मुरक़्क़े। हम देर तक उन्हें देखते रहे। वो मेरे क़रीब आ गई। बोली, “आज तुम आए हुए हो तो मुझे अच्छा लग रहा है। मैंने अब अपनी ज़िंदगी बना ली है। इस की सारी ख़ुशीयां और ग़म देखे हैं। मेरा हरा-भरा घर है और आज तुम भी आए हो, मुझे ज़रा भी बुरा नहीं लग रहा है।”
मैंने कहा, “यही हाल मेरा है। सोचता था ज़िन्दगी भर तुम्हें नहीं मिलूँगा। इसी लिए इतने बरस इधर कभी नहीं आया। अब आया हूँ तो ज़रा रत्ती भर भी बुरा नहीं लग रहा।”
हम दोनों चुप हो गए। बच्चे खेलते खेलते हमारे पास आ गए। उसने मेरी पोती को उठा लिया, मैंने उस के पोते को उसने मेरी पोती को चूमा, मैंने उस के पोते को, और हम दोनों ख़ुशी से एक दूसरे को देखने लगे। इस की पुतलियों में चांद चमक रहा था और वो चांद हैरत और मुसर्रत से कह रहा था, “इन्सान मर जाते हैं, लेकिन ज़िंदगी नहीं मरती। बहार ख़त्म हो जाती है लेकिन फिर दूसरी बहार आ जाती है। छोटी छोटी मुहब्बतें भी ख़त्म हो जाती हैं लेकिन ज़िंदगी की बड़ी और अज़ीम सच्ची मुहब्बत हमेशा क़ायम रहती है। तुम दोनों पिछली बहार में ना थे। ये बहार तुमने देखी, इस से अगली बहार में तुम ना होगे। लेकिन ज़िंदगी फिर भी होगी और जवानी भी होगी और ख़ूबसूरती और रानाई और मासूमियत भी।”
बच्चे हमारी गोद से उतर पड़े क्योंकि वो अलग से खेलना चाहते थे। वो भागते हुए ख़ूबानी के दरख़्त के क़रीब चले गए। जहां कश्ती बंधी थी।
मैंने पूछा, “ये वही दरख़्त है?”
उसने मुस्कुरा कर कहा, “नहीं ये दूसरा दरख़्त है।”