समय - यशपाल

समय - यशपाल | समय कहानी सारांश | यशपाल की 'समय' कहानी की कथावस्तु का विस्तार अत्यंत संक्षिप्त है। इस कहानी में यह बताया गया है कि

समय कहानी सारांश

यशपाल की 'समय' कहानी की कथावस्तु का विस्तार अत्यंत संक्षिप्त है। इस कहानी में यह बताया गया है कि समय किस तरह से बच्चो की मानसिकता में बदलाव कर व्यक्ति के अंतिम क्षणों में उसे अकेला छोड़ देता है वह भी उस समय जब उन्हें देखभाल की सबसे अधिक आवश्यकता होती है |

 यशपाल ने समय कहानी को आत्मकथात्मक शैली में लिखा है जैसे वो स्वयं उसके पात्र है |

समय कहानी में बच्चे अपने बचपन में अपने पिताजी का साथ पाने को अभिलाषी रहते है परन्तु वही बच्चे पापा के रिटायर हो जाने पर बुढ़ापे में उनके साथ कहीं आने-जाने से कतराने लगते हैं, क्योंकि उस समय पिताजी उनके लिए पिताजी ना होकर एक बूढ़ा व्यक्ति होता है, जिनका साथ उनकी आज़ादी में बाधक और बोर करने वाला लगता है।

समय

पापा जी का रिटायर होने का समय ज्यों-ज्यों पास आ रहा था, वे जैसे अपने आप को दिलासा देने की कोशिश करने में लग गए, चलो भाई हफ्ते में एक दिन की छुट्टी का जिस बेसब्री से इंतज़ार रहता था वैसी छुट्टी अगर दफ़्तर से हमेशा के लिए मिल जाये तो फिर इसमें निरुत्साह होने जैसी बात क्या है? एक तो दूसरे के आदेश-पालन से छुट्टी और अध्ययन-अध्यापन का बढ़िया अवसर, अपने सगे-सम्बन्धियों और इष्ट-मित्र से मिलने का समाज में सभी से घुलने-मिलने का अवसर ही अवसर मसलन अवकाश प्राप्त करके अपनी सभी इच्छाओ की पूर्ति करने का बढ़िया मौक़ा मिल जाता है फिर लोग रिटायरमेंट से घबराते क्यों हैं?

पापा जी नियम-कानून से रहने वाले व्यक्ति थे जिसका पालन वे अपने अवकाश प्राप्ति के बाद भी करते रहे वे रोज़ शाम को मम्मी जी के साथ बाज़ार तक घूमने के लिए जाते थे | बचपन में जब मम्मी-पापा तैयार हो कर निकलते थे तो बच्चों को साथ ले कर जाने से बचने के लिए आया और नौकर से कह कर उन्हें इधर-उधर हटा दिया जाता था, मगर एक दिन परिवार की छोटी बच्ची मम्मी जी से आ कर लिपट गयी कि हम बच्चे भी बाज़ार जायेंगे | तब से शाम को घूमने जाते समय किसी न किसी बच्चे को और कभी-कभी सभी बच्चों को हज़रतगंज तक घूमने जाने का मौक़ा मिलने भी लगा और वहां पहुंच कर अपनी मनपसन्द आइसक्रीम-चाकलेट तथा अन्य वस्तुओं की फ़रमाइश पूरी की जाने लगी |

रोचक मोड़ आता है कहानी में जबकि पापा जी के अवकाश प्राप्ति के बाद उनका घूमने जाने की आदत में बदलाव तो नहीं आया, मगर मम्मी जी के पांव में दर्द के चलते वे अब पापा जी का साथ नहीं दे पाती हैं और पापा जी चूंकि अकेले जाना नहीं चाहते इसलिए घर के किसी न किसी बच्चे को साथ ले कर जाना पड़ता है | मगर अब समय बदल चुका है, वे बच्चे जो पापा जी के साथ हर समय बाज़ार जाने को तैयार रहते थे, अब साथ जाने से कतराने लगे, क्योंकि एक उम्र विशेष अथवा टीनएज में एक अजीब कशमकश का दौर चलता है, जिसमें बच्चों को बड़े-बुजुर्गो का साथ अटपटा लगने लगता है. फिर ऐसे में यदि पार्क, रेस्तरां और होटल में संगी-साथी दिख जाते हैं तो उनका करुणा और बेचारगी भरी मुस्कान को झेलना काफ़ी कठिन हो जाता है | इसका यह अर्थ कदापि नहीं की पापा जी अन्य बुजुर्गों के समान कोई उपदेश या जमाने में खामियां निकालने जैसी बोरिंग बाते करते थे, बल्कि उनका अनुभव और ज्ञान का दायरा अत्यंत व्यापक था जो युवाओं को भाता ही है, मगर उससे क्या बीस-बाईस वर्ष के लड़के-लडकियों को निजी आज़ादी भी चाहिए होती है |

मगर उस दिन रोज़ की तरह शाम होते-होते पिताजी की आवाज़ आने लगी 'गंज तक चलने के लिए कोई है! '

मगर हर कोई जैसे उनकी आवाज़ को अनसुना कर रहा था | वो छोटी बच्ची जो कभी बचपन में मम्मी के साथ लिपट कर घूमने जाने की ज़िद करती थी, उससे कहने पर दीदी को उसने जवाब दिया, 'तुम भी क्या दीदी... बोर बुड्ढों के साथ कौन बोर हो!'

उस बड़ी हो चुकी बच्ची ने आवाज़ दबा कर ही बात कही थी, मगर वह धीमी आवाज़ पापा के कानों तक पहुंच चुकी थी |

पापा कुछ देर के लिए चुपचाप बैठे ही रहे नज़र फ़र्श पर जमा कर चेहरे पर एक विषाद भरी मुस्कान के साथ, मगर फिर उठे हैंगर से कोट उतारा और मम्मी को आवाज़ दे कर कहा, 'सुनो, कई बार पहाड़ से छड़ियां लाए हैं, तो कोई एक तो दो!'

एक छड़ी उठा कर मैंने कमरे में रख ली थी. पापा को उत्तर दिया, 'एक तो यही है चाहिए?' छड़ी कोने से उठा कर पापा के सामने कर दी | 'हां, यह तो बहुत अच्छी है!' पापा ने छड़ी की मूठ पर हाथ फेरते हुए कहा और छड़ी टेकते हुए किसी की ओर देखे बिना घूमने के लिए चले गए, मानों हाथ की छड़ी को टेक कर उन्होंने समय को स्वीकार कर लिया |

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