रहमान का बेटा - विष्णु प्रभाकर

रहमान का बेटा - विष्णु प्रभाकर

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रहमान का बेटा : क्रोध और वेदना के कारण उसकी वाणी में गहरी तलख़ी आ गई थी और वह बात-बात में चिनचिना उठता था। यदि उस समय गोपी न आ जाता, तो संभव था कि वह

रहमान का बेटा

क्रोध और वेदना के कारण उसकी वाणी में गहरी तलख़ी आ गई थी और वह बात-बात में चिनचिना उठता था। यदि उस समय गोपी न आ जाता, तो संभव था कि वह किसी बच्चे को पीट कर अपने दिल का ग़ुबार निकालता। गोपी ने आ कर दूर से ही पुकारा—'साहब सलाम भाई रहमान। कहो क्या बना रहे हो?'

रहमान के मस्तिष्क का पारा सहसा कई डिग्री नीचे आ गया, यद्यपि क्रोध की मात्रा अभी भी काफ़ी थी, बोला—'आओ गोपी काका। साहब सलाम।'

'बड़े तेज़ हो, क्या बात है?'

गोपी बैठ गया। रहमान ने उसके सामने बीड़ी निकाल कर रखी और फिर सुलगा कर बोला—'क्या बात होगी काका! आजकल के छोकरों का दिमाग़ बिगड़ गया है। जाने कैसी हवा चल पड़ी है। माँ-बाप को कुछ समझते ही नहीं।'

गोपी ने बीड़ी का लंबा कश खींचा और मुस्कुरा कर कहा—'रहमान, बात सदा ही ऐसी रही है। मुझे तो अपनी याद है। बाबा सिर पटक कर रह गए, मगर मैंने चटशाला में जाकर हाज़िरी ही नहीं दी। आज बुढ़ापे में वे दिन याद आते हैं। सोचता हूँ, दो अच्छर पेट में पड़ जाते तो...'

बीच में बात काट कर रहमान ने तेज़ी से कहा—'तो काका, नशा चढ़ जाता। अच्छरों में नाज़ से ज़ियादा नशा होवे है, यह दो अच्छर का नशा ही तो है जो सलीम को उड़ाए लिए जावे है। कहवे है इस बस्ती में मेरा जी नहीं लगे। सब गंदे रहते हैं। बात करने की तमीज़ नहीं। चोरी से नहीं चूकें...'

गोपी चौंक कर बोला—'सलीम ने कहा ऐसे?'

'जी हाँ, सलीम ने कहा ऐसे और कहा, हम इंसान नहीं हैं, हैवान हैं। फिर हम जैसे नाली में कीड़े बिलबिलाए हैं न, उसी तरह की हमारी ज़िंदगी है…'कहते-कहते रहमान की आँखें चढ़ गईं। बदन काँपने लगा। हुक्के को जिसे उसने अभी तक छुआ नहीं था, इतने ज़ोर से पैर से सरकाया कि चिलम नीचे गिर पड़ी और आग बिखर कर चारों ओर फैल गई। तेज़ी से पुकारा—'करीमन! ओ हरामज़ादी करीमन! कहाँ मर गई जा कर? ले जा इस हुक्के को। साला आज हमें गुंडा कहवे है...'

गोपी ने रहमान की तेज़ी देख कर कहा—'उसका बाप स्कूल में चपरासी था न…!'

'जी हाँ, वही असर तो ख़राब करे है। पढ़ा नहीं था तो क्या, हर वक़्त पढ़े-लिखे के बीच रहवे था। मगर साले ने किया क्या? भरी जवानी में पैर फैला कर मर गया। बीवी को कहीं का भी नहीं छोड़ा। न जाने किसके पड़ती, वह तो उसकी माँ ने मेरे आगे धरना दे दिया। वह दिन और आज का दिन, सिर पर रखा है। कह दे कोई, सलीम रहमान की औलाद नहीं है। पर वह बात है काका...'

आगे जैसे रहमान की आँख में कहीं से आ कर कुणक पड़ गई। ज़ोर-ज़ोर से मलने लगा। उसी क्षण शून्य में ताकते-ताकते गोपी ने कहा—'सलीम की माँ बड़ी नेकदिल औरत है।'

रहमान एकदम बोला—'काका, फ़रिश्ता है। ऐसी नेकदिल औरत कहाँ देखने को मिले है आजकल। क्या मजाल जो कभी पहले शौहर का नाम लिया हो! ऐसी जी-जान से ख़िदमत करे है कि बस सिर नहीं उठता। और काका उसी का नतीजा है। तुमसे कुछ छुपा है। कभी इधर-उधर देखा है मुझे?'

गोपी ने तत्परता से कहा—'कभी नहीं रहमान, मुँह देखे की नहीं ईमान की बात है। पाँच पंचों में कहने को तैयार हूँ।'

'और रही चोरी की बात! किसी के घर डाका मारने कौन जावे है। यूँ खेत में से घास-पात तुम भी लावो ही हो काका।'

गोपी बोला—'हाँ लावूँ हूँ। इसमें लुकाव की क्या बात है। और लावें क्यों न? हम क्या इतने से भी गए? बाबू लोग रोज़ जेब भर कर घर लौटे हैं। सच कहूँ रहमान! तनख़्वाह बाँटते वक़्त अँगूठा पहले लगवा लेवे हैं और पैसों के वक़्त किसी ग़रीब को ऐसी दुत्कार देवें कि बिचारा मुँह ताकता रह जावे है। इस सत्यानाशी राज में कम अंधेर नहीं है। पर बेमाता ने हमारी सरकार की क़िस्मत में न जाने क्या लिख दिया है, दिन-रात चौगुनी तरक़्क़ी होवे है। गाँधी बाबा की कुछ भी पेश नहीं आवे।'

रहमान ने सारी बातें बिना सुने उसी तेज़ी से कहा—'बाबू क्यों? वे जो अफ़सर होते हैं, साब बहादुर, वे क्या कम हैं? किसी चीज़ पर पैसा नहीं डालें हैं। और काका! यह कल का छोकरा सलीम हमें गुंडा बतावे है। गुंडे साले तो वे हैं। सच काका! कलब में सिवाय बदमाशी के वे करें क्या हैं। शराब वे पिएँ, जुआ वे खेलें और...।'

'और क्या? हमारे साब के पास आए दिन कलब का चपरासी आवे है। कभी सौ, कभी डेढ़ सौ, सदा हारे ही हैं, पर रहमान, उसकी मेम बड़ी तक़दीर की सिकंदर है। जब जावे तब सौ-सवा सौ खींच लावे है।'

'मेम साब... काका, तुम क्या जानो। उसकी बात और है। जितने ये साब बहादुर हैं, और साब क्यों, बड़े-बड़े वकील, बलिस्टर, लाला, सभी आजकल कलब जावे हैं। मुसलमान को शराब पीना हराम है, पर वहाँ बैठ कर विस्की, ज़िन, पोरट, सेरी सब चढ़ा जावे हैं। औरतें ऐसी गिर गई हैं कि पराए मर्द के कमर में हाथ डाल कर लिए फिरे हैं, और वे हँस-हँस कर खिलर-खिलर बातें करे हैं। काका! जितनी देर वे वहाँ रहवे हैं, ये यही कहते रहे हैं—उसकी बीवी ख़ूबसूरत है। इसकी ज़ोरदार है। सरमा ख़ुशक़िस्मत है, रफ़ीक़ की लौंडिया उसके घर जावे। गुप्ता की बीवी उसके पास रहे है। सारा वक़्त यही घुसर-पुसर होती रहे और मौक़ा देख कोई किसी के साथ उड़ चला। उस दिन जीत की ख़ुशी में ड्रामा हुआ था। पुलिस के कप्तान लालाजी बने थे। वे लालाजी लोगों को हँसाते रहे और मेजर साहब उनकी बीवी को ले कर डाक बँगले की सैर करने चले गए। ये हैं, बड़े लोगन की चाल-चलन। ये हमारे आका... हमारे भाग की लकीर इन्हीं की क़लम से खिंचे है।'

गोपी ने फिर ज़ोर से बीड़ी का कश खींचा और गंभीरता से कहा—'रहमान! देखने में जितना बड़ा है, असल में वह उतना छोटा।'

'और खोटा भी।'

'और क्या।'

'ओर इन्हीं के लिए सलीम हमें बदतमीज़, बदसहूर, बेअक़ल, न जाने क्या कहवे है। मैंने भी सोच लिया है, आज उससे फ़ैसला करके रहूँगा। मैंने हमेशा उसे अपना समझा है। नहीं तो... नहीं तो...।'

गोपी ने अब अपना डंडा उठा लिया। बोला—'रहमान, कुछ भी हो, सलीम तेरा ही लड़का माना जावे है, जवान है, अबे-तबे से न बोलना। समझा, आजकल हवा ऐसी चल पड़ी है। और चली कब नहीं थी! फ़रक़ इतना है, पहले मार खा कर बोलते नहीं थे, अब सीधे जवाब देवे हैं...'

रहमान तेज़ ही था। कहा—'मैं उसके जवाबों की क्या परवा करूँ काका। जावे जहन्नुम में। मेरा लगे क्या है?... और काका। मैं उसे मारूँगा क्यों। मेरे क्या हाथ खुले हैं। मैं तो उससे दो बात पूछूँगा, रास्ता इधर या उधर। और काका, मुझे उस साले की ज़रा भी फ़िकर नहीं—फ़िकर उसकी माँ की है। यूँ तो औलाद और क्या कम हैं, पर ज़रा यही कुछ सहूरदार था... काका, सोचता था पढ़-लिख कर कहीं मुंशी बनेगा, ज़ात-बिरादरी में नाम होगा। लेकिन लिखा क्या किसी से मिटा है?'

गोपी बोला—'हाँ रहमान। लिखा किसी से नहीं मिटा! अब चाहे तो मालिक भी नहीं मेट सकता। ऐसी गहरी लकीर बेमाता ने खींची है। सो भइया अपनी इज़्ज़त अपने हाथ है। ज़ियादा कुछ मत कहना। पढ़ों-लिखों को ग़ैरत जल्दी आ जावे है। समझा...।'

'समझा काका।'

और फिर गोपी डंडा उठा, घास की गठरी कंधे पर डाल, साहब सलाम करके चला गया। रहमान कुछ देर वहीं शून्य में बैठा धुँधले होते वातावरण को देखता रहा। मन में उमड़-घुमड़ कर विचार आते और आपस में टकरा कर शीघ्रता से निकल जाते। वे झील के गिरते पानी के समान थे, गहरे और तेज़। इतने तेज़ कि उफन कर रह जाते। उनका तात्कालिक मूल्य कुछ नहीं था, इसीलिए उससे मन की झुँझलाहट और गहरी होती गई। करुणा और विषाद कोई उसे कम नहीं कर सका। आख़िर वह उठा और अंदर चला गया।

घर में सन्नाटा था। बच्चे अभी तक खेल कर नहीं लौटे थे। उसकी बीवी रोटियाँ सेंक रही थी। सालन की ख़ुश्बू उसकी नाक में भर उठी। उसने एक नज़र उठा कर अपनी बीवी को देखा—शांत-चित्त वह काम में लगी है। उसके कानों में लंबे बाले रोटी बढ़ाते समय वेग से हिलते हैं। उसके सिर का गंदा कपड़ा खिसक कर कंधे पर आ पड़ा है। यद्यपि जवानी बीत गई है, तो भी चेहरे का भराव अभी हल्का नहीं पड़ा है। गोरी न हो कर भी वह काली नहीं है। उसकी आँखों में एक अजीब नशा है। वही नशा उसे बरबस ख़ूबसूरत बना देता है। जिसकी ओर वह देख लेती है एक बार, तो वह ठिठक जाता है। रहमान सहसा ठिठका—उन दिनों इन्हीं आँखों ने मुझे बेबस बना दिया था। नहीं तो...

सहसा उसे देख कर उसकी बीवी बोल उठी—'इतने तेज़ क्यों हो रहे थे। ग़ैरों के आगे क्या इस तरह घर की बात कहते हैं?'

रहमान कुछ तलख़ी से बोला—'ग़ैरों के आगे क्या? पानी अब सर से उतर गया है। कल को जब घर से निकल जावेगा, तब क्या दुनिया कानों में रुई ठूँस लेगी या आँखें फोड़ लेगी?'

बीवी को दुख पहुँचा। बोली—'बाप-बेटे क्या दुनिया में कभी अलग नहीं होते?'

'कौन कहे कि वह मेरा बेटा है?'

'और किसका है?'

'मैं क्या जानूँ?'

'ज़रा देखना मेरी तरफ़! मैं भी तो सुनूँ।'

तिनक कर उसने कहा—क्या सुनेगी? मेरा होता तो क्या इस तरह कहता? ज़बान खींच लेता साले की।'

'देखूँगी किस-किसकी जबान खींचोगे। अभी तक तो एक भी बात नहीं सराहता।'

'बच्चे और जवान बराबर होते हैं।'

'नहीं होवें पर पूत के पाँव पालने में नज़र आ जावे है। और फिर वही कौन-सा जवान है? अल्हड़ उमर है। एक बात मुँह से निकल गई, तो सिर पर उठा लिया। तुम्हारा नहीं तभी तो। अपना होता, तो क्या इस तरह ढोल पीटते। अपनों के हज़ार ऐब नज़र नहीं आवे है। दूसरों का एक ज़री-सा पहाड़ बन जावे है...'

रहमान कुछ भी हो, इतना मूर्ख नहीं था। उसने समझ लिया, उसने बीवी के दिल को दुखाया है, पर वह क्या करे। सलीम से उसे क्या कम मोहब्बत है! पेट काट कर उसे रहमान ने ही तो स्कूल भेजा है। उसके लिए अब भी कभी बड़े बाबू, कभी डिप्टी, कभी बड़े साहब के आगे गिड़गिड़ाता रहता है। इतनी गहरी मोहब्बत है, तभी तो इतना दुख है। कोई ग़ैर होता तो...।

तभी उसके चारों बच्चे बाहर से शोर मचाते हुए आ पहुँचे। वे धूल-मिट्टी से लिथड़े पड़े थे। परंतु गंदे और अर्द्धनग्न होने पर भी प्रसन्न थे। सबसे बड़ी लड़की लगभग बारह वर्ष की थी। आते ही ख़ुशी-ख़ुशी बोली—'अम्मी! आज हम भइया की जगह गए थे।'

रहमान को कुछ अचरज हुआ, पर वह जला-भुना बैठा था। कड़क कर बोला—'कहाँ गई थी चुड़ैल?'

लड़की सहम गई। घबरा कर बोली—'भइया की जगह।'

'कौन-सी जगह?'

'जहाँ भइया जाते हैं। दूर...।'

छोटा लड़का जो दस बरस का था, अब एकदम बोला—'अब्बा, वहाँ बहुत सारे आदमी थे।'

तीसरा भी आठ बरस का लड़का। आगे बढ़ आया, कहा—'वहाँ लेक्चर हुए थे।'

रहमान अचकचाया—'लेक्चर?'

लड़की ने कहा—'हाँ, अब्बा! लेक्चर हुए थे। भइया भी बोले थे। लोगों ने बड़ी तालियाँ पीटीं।'

अम्मा का मुख सहसा खिल उठा। गर्व से एक बार उसने रहमान को देखा।

फिर बोली—'क्या कहा उसने?'

लड़की जो मुरझा चली थी, अब दुगने उत्साह से कहने लगी—'अम्मी, भइया ने बहुत-सी बातें कही थीं। हम गंदे रहते हैं, हम अनपढ़ हैं, हम चोरी करते हैं। हमें बोलना नहीं आता। हमें खाने को नहीं मिलता।'

रहमान चिहुँक कर बोला—'देखा तुमने।'

बीवी ने तिनक कर कहा—'सुनो तो। हाँ, और क्या लाली?'

लड़का बोला—'मैं बताऊँ अम्मी! भइया ने कहा था, इसमें हमारा ही क़ुसूर है।'

'हाँ,' लड़की बोली—'उन्होंने कहा था, बड़े लोग हमें जान-बूझ कर नीचे गिराते जावे हैं और हम बोलें ही नहीं।'

और फिर अब्बा की तरफ़ मुड़ कर बोली—'क्यों अब्बा, वे लोग कौन हैं?'

अब्बा तो बुत बने बैठे थे; क्या कहते?'

लड़का कहने लगा—'अब्बा! और जो उनमें बड़े आदमी थे, सबने यही कहा—हम भी आदमी हैं। हम भी जिएँगे। हम अब जाग गए हैं।'

अम्मी ने एक लंबी साँस खींची। चेहरा प्रकाश से भर उठा—'सुनते हो सलीम की बातें।'

रहमान अब भी नहीं बोला। लड़की बोली—'और अम्मी। भइया ने मुझसे कहा था कि मैं अब घर नहीं आऊँगा।'

'नहीं आएगा?'

'हाँ, अम्मी।'

रहमान की निद्रा टूटी—'क्यों नहीं आएगा? क्योंकि हम गंदे...?'

'नहीं अब्बा!' लड़की आप ही आप कुछ गंभीरता से बोली—'भइया ने मुझसे कहा था कि अब इस घर में नहीं रहूँगा। नया घर लूँगा, बहुत साफ़। अब्बा से कह दीजो कि वहाँ रहने से गड़बड़ हो सकती है। हम लोगों के पीछे पुलिस लगी रहती है। वहाँ आएगी तो शायद अब्बा की नौकरी छूट जावेगी...?'

लेकिन अब्बा हों तो बोलें। उनके तो सिर में भूचाल आ गया है। वह घूम रहा है, रुकता नहीं...

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i,5,hazal,2,heera-lal-falak-dehlvi,1,hilal-badayuni,1,himayat-ali-shayar,1,hindi,23,hiralal-nagar,2,holi,29,hukumat,19,humaira-rahat,1,ibne-insha,8,ibrahim-ashk,1,iftikhar-naseem,1,iftikhar-raghib,1,imam-azam,1,imran-aami,1,imran-badayuni,6,imtiyaz-sagar,1,insha-allah-khaan-insha,1,interview,1,iqbal-ashhar,1,iqbal-azeem,2,iqbal-bashar,1,iqbal-sajid,1,iqra-afiya,1,irfan-ahmad-mir,1,irfan-siddiqi,1,irtaza-nishat,1,ishq,170,ishrat-afreen,1,ismail-merathi,2,ismat-chughtai,2,izhar,7,jagan-nath-azad,5,jaishankar-prasad,6,jalan,1,jaleel-manikpuri,1,jameel-malik,2,jameel-usman,1,jamiluddin-aali,5,jamuna-prasad-rahi,1,jan-nisar-akhtar,11,janan-malik,1,jauhar-rahmani,1,jaun-elia,15,javed-akhtar,18,jawahar-choudhary,1,jazib-afaqi,2,jazib-qureshi,2,jhuth,1,jigar-moradabadi,10,johar-rana,1,josh-malihabadi,7,julius-naheef-dehlvi,1,jung,9,k-k-mayank,2,kabir,1,kafeel-aazar-amrohvi,1,kaif-ahmed-siddiqui,1,kaif-bhopali,6,kaifi-azmi,10,kaifi-wajdaani,1,kaka-hathrasi,1,kalidas,1,kalim-ajiz,2,kamala-das,1,kamlesh-bhatt-kamal,1,kamlesh-sanjida,1,kamleshwar,1,kanhaiya-lal-kapoor,1,kanval-dibaivi,1,kashif-indori,1,kausar-siddiqi,1,kavi-kulwant-singh,2,kavita,257,kavita-rawat,1,kedarnath-agrawal,4,kedarnath-singh,1,khalid-mahboob,1,khalida-uzma,1,khalil-dhantejvi,1,khat-letters,10,khawar-rizvi,2,khazanchand-waseem,1,khudeja-khan,1,khumar-barabankvi,4,khurram-tahir,1,khurshid-rizvi,1,khwab,1,khwaja-meer-dard,4,kishwar-naheed,2,kitab,22,krishan-chandar,2,krishankumar-chaman,1,krishn-bihari-noor,11,krishna,10,krishna-kumar-naaz,5,krishna-murari-pahariya,1,kuldeep-salil,2,kumar-pashi,1,kumar-vishwas,2,kunwar-bechain,9,kunwar-narayan,5,lala-madhav-ram-jauhar,1,lata-pant,1,lavkush-yadav-azal,3,leeladhar-mandloi,1,liaqat-jafri,1,lori,2,lovelesh-dutt,1,maa,27,madan-mohan-danish,2,madhav-awana,1,madhavikutty,1,madhavrao-sapre,1,madhuri-kaushik,1,madhusudan-choube,1,mahadevi-verma,4,mahaveer-prasad-dwivedi,1,mahaveer-uttranchali,8,mahboob-khiza,1,mahendra-matiyani,1,mahesh-chandra-gupt-khalish,2,mahmood-zaki,1,mahwar-noori,1,maikash-amrohavi,1,mail-akhtar,1,maithilisharan-gupt,4,majdoor,13,majnoon-gorakhpuri,1,majrooh-sultanpuri,5,makhanlal-chaturvedi,3,makhdoom-moiuddin,7,makhmoor-saeedi,1,mangal-naseem,1,manglesh-dabral,4,manish-verma,3,mannan-qadeer-mannan,1,mannu-bhandari,1,manoj-ehsas,1,manoj-sharma,1,manzar-bhopali,1,manzoor-hashmi,2,manzoor-nadeem,1,maroof-alam,23,masooda-hayat,2,masoom-khizrabadi,1,matlabi,4,mazhar-imam,2,meena-kumari,14,meer-anees,1,meer-taqi-meer,10,meeraji,1,mehr-lal-soni-zia-fatehabadi,5,meraj-faizabadi,3,milan-saheb,2,mirza-ghalib,59,mirza-muhmmad-rafi-souda,1,mirza-salaamat-ali-dabeer,1,mithilesh-baria,1,miyan-dad-khan-sayyah,1,mohammad-ali-jauhar,1,mohammad-alvi,6,mohammad-deen-taseer,3,mohammad-khan-sajid,1,mohan-rakesh,1,mohit-negi-muntazir,3,mohsin-bhopali,1,mohsin-kakorvi,1,mohsin-naqwi,2,moin-ahsan-jazbi,4,momin-khan-momin,4,motivational,13,mout,5,mrityunjay,1,mubarik-siddiqi,1,muhammad-asif-ali,1,muktak,1,mumtaz-hasan,3,mumtaz-rashid,1,munawwar-rana,29,munikesh-soni,2,munir-anwar,1,munir-niazi,5,munshi-premchand,34,murlidhar-shad,1,mushfiq-khwaza,1,mushtaq-sadaf,2,mustafa-akbar,1,mustafa-zaidi,2,mustaq-ahmad-yusufi,1,muzaffar-hanfi,27,muzaffar-warsi,2,naat,1,nadeem-gullani,1,naiyar-imam-siddiqui,1,nand-chaturvedi,1,naqaab,2,narayan-lal-parmar,4,narendra-kumar-sonkaran,3,naresh-chandrakar,1,naresh-saxena,4,naseem-ajmeri,1,naseem-azizi,1,naseem-nikhat,1,naseer-turabi,1,nasir-kazmi,8,naubahar-sabir,2,naukari,1,navin-c-chaturvedi,1,navin-mathur-pancholi,1,nazeer-akbarabadi,16,nazeer-baaqri,1,nazeer-banarasi,6,nazim-naqvi,1,nazm,194,nazm-subhash,3,neeraj-ahuja,1,neeraj-goswami,2,new-year,21,nida-fazli,34,nirankar-dev-sewak,3,nirmal-verma,3,nirmala,23,nirmla-garg,1,nitish-tiwari,1,nizam-fatehpuri,26,nomaan-shauque,4,nooh-aalam,2,nooh-narvi,2,noon-meem-rashid,2,noor-bijnauri,1,noor-indori,1,noor-mohd-noor,1,noor-muneeri,1,noshi-gilani,1,noushad-lakhnavi,1,nusrat-karlovi,1,obaidullah-aleem,5,omprakash-valmiki,1,omprakash-yati,11,pandit-dhirendra-tripathi,1,pandit-harichand-akhtar,3,parasnath-bulchandani,1,parveen-fana-saiyyad,1,parveen-shakir,12,parvez-muzaffar,6,parvez-waris,3,pash,8,patang,13,pawan-dixit,1,payaam-saeedi,1,perwaiz-shaharyar,2,phanishwarnath-renu,2,poonam-kausar,1,prabhudayal-shrivastava,1,pradeep-kumar-singh,1,pradeep-tiwari,1,prakhar-malviya-kanha,2,prasun-joshi,1,pratap-somvanshi,7,pratibha-nath,1,prayag-shukl,3,prem-dhawan,1,prem-lal-shifa-dehlvi,1,prem-sagar,1,purshottam-abbi-azar,2,pushyamitra-upadhyay,1,qaisar-ul-jafri,3,qamar-ejaz,2,qamar-jalalabadi,3,qamar-moradabadi,1,qateel-shifai,8,quli-qutub-shah,1,quotes,2,raaz-allahabadi,1,rabindranath-tagore,3,rachna-nirmal,3,raghav-agarwal,1,raghuvir-sahay,4,rahat-indori,33,rahbar-pratapgarhi,7,rahi-masoom-raza,6,rais-amrohvi,2,rajeev-kumar,1,rajendra-krishan,1,rajendra-nath-rehbar,1,rajesh-joshi,1,rajesh-reddy,7,rajmangal,1,rakesh-rahi,1,rakhi,6,ram,38,ram-meshram,1,ram-prakash-bekhud,1,rama-singh,1,ramapati-shukla,4,ramchandra-shukl,1,ramchara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जखीरा, साहित्य संग्रह: रहमान का बेटा - विष्णु प्रभाकर
रहमान का बेटा - विष्णु प्रभाकर
रहमान का बेटा : क्रोध और वेदना के कारण उसकी वाणी में गहरी तलख़ी आ गई थी और वह बात-बात में चिनचिना उठता था। यदि उस समय गोपी न आ जाता, तो संभव था कि वह
जखीरा, साहित्य संग्रह
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