कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं - हबीब जालिब

कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं

कहाँ क़ातिल बदलते हैं फ़क़त चेहरे बदलते हैं
अजब अपना सफ़र है फ़ासले भी साथ चलते हैं

बहुत कमजर्फ़ था जो महफ़िलों को कर गया वीराँ
न पूछो हाले चाराँ शाम को जब साए ढलते हैं

वो जिसकी रोशनी कच्चे घरों तक भी पहुँचती है
न वो सूरज निकलता है, न अपने दिन बदलते हैं

कहाँ तक दोस्तों की बेदिली का हम करें मातम
चलो इस बार भी हम ही सरे मक़तल निकलते हैं

हमेशा औज पर देखा मुक़द्दर उन अदीबों का
जो इब्नुलवक़्त होते हैं हवा के साथ चलते हैं

हम अहले दर्द ने ये राज़ आखिर पा लिया 'जालिब'
कि दीप ऊँचे मकानों में हमारे खूँ से जलते हैं - हबीब जालिब
मायने
मक़तल = क़त्लगाह की तरफ़, इब्नुलवक़्त = मौक़ापरस्त


kahan qatil badlate hain faqat chehre badlate hain

kahan qatil badlate hain faqat chehre badlate hain
ajab apna safar hai fasle bhi sath chalte hain

bahut kamzarf tha jo mahfilo ko kar gaya veeran
n puchho haal-e-charaa sham ko jab saye dhalte hain

wo jiski roshni kachche gharo tak bhi pahuchati hain
n wo suraj nilklata hai, n apne din badlate hain

kahan tak dosto ki bedili ka ham kare matam
chalo is baar bhi ham si sar-e-maqtal niklate hain

hamesha auz par dekha muqaddar un adeebo ka
jo ibnulwaqt hote hai hawa ke sath chalte hain

ham ahle dard ne ye raaz aahir paa liya 'jalib'
ki deep unche makano mein hamare khoon se jalte hai Habib Jalib

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