दिल तेरी चाह में ये सोच के रोया भी कहाँ - शाहिद कबीर

दिल तेरी चाह में ये सोच के रोया भी कहाँ

दिल तेरी चाह में ये सोच के रोया भी कहाँ
तुझ को पाया ही नहीं हमने तो खोया भी कहाँ

किस तरह अब हमें मायूस करेगी ये ज़मीं
अब के काटा भी नहीं हम ने तो बोया भी कहाँ

आग के मुँह से निकलती है धुँए की फ़रियाद
तू वो मजलूम कि जी खोल के रोया भी कहाँ

अब तेरे पास यहाँ क्या है ठहरने का जवाज़
और फिर तूने सफ़ीने को डुबोया भी कहाँ

तूने किस रंग में ये रात गुज़ारी "शाहिद"
ख़्वाब भी देखे बहुत,और तू सोया भी कहाँ - शाहिद कबीर
मायने
मजलूम = जिस पर अत्याचार किए गए हों, जवाज़ = वज़ह/कारण, सफ़ीना = कश्ती


dil teri chah me ye soch ke roya bhi kahan

dil teri chah me ye soch ke roya bhi kahan
tujh ko paya hi nahi hamne to khoya bhi kahan

kis tarah ab hame mayus karegi ye zameeN
ab ke kata bhi nahi ham ne to boya bhi kahan

aag ke munh se niklati hai dhue ki fariyad
tu wo mazlum ki ji khol ke roya bhi kahan

ab tere paas yaha kya hai thahrane ka jawaz
aur phir tune safine ko duboya bhi kahan

tune kis rang me ye raat gujari "Shahid"
khwab bhi dekhe bahut aur tu soya bhi kahan - Shahid Kabir

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