ग़ालिब की टक्कर का शायर शाद अज़ीमाबादी

ग़ालिब की टक्कर का शायर शाद अज़ीमाबादी हज़ार शुक्र कि मुद्दत में यह असर आया लिया जो नाम तेरा दिल में तू उतर आया

ग़ालिब की टक्कर का शायर शाद अज़ीमाबादी

शाद अज़ीमाबादी जिन्हें अपने युग का मीर भी कहाँ जाता है | शाद अज़ीमाबादी साहब का असल नाम "सैयद अली मोहम्मद" था और आपका जन्म अज़ीमाबाद यानी पटना में 7 जनवरी 1846 को एक रईस घराने में सय्यद तफ़ज़्ज़ुल हुसैन के यहाँ हुआ |

रईस घराने के पैदा होने के कारण उन्होंने अरबी, फ़ारसी और दिनियात की शिक्षा-दीक्षा योग्य शिक्षकों से प्राप्त की | आप बचपन से ही बहुत बुद्धिमान थे सो दस वर्ष की आयु में ही आपने फ़ारसी भाषा पर दक्षता हासिल कर ली थी | आपके माता-पिता शायरी के विरुद्ध थे और आपको इराक भेजकर धार्मिक शिक्षा दिलाना चाहते थे पर आप शायरी के शौक़ के चलते छुप कर शायरी करते थे और आपने सय्यद अल्ताफ़ हुसैन फर्याद को अपना उस्ताद बनाया |

आपने कुछ ग़ज़लों में सफीर बलगरामी की भी इस्लाह ली | मीर अनीस और मिर्जा दबीर की सोहबत का भी आप पर काफी असर हुआ |

आप अंग्रेजी और हिंदी भाषा भी काफी अच्छी तरह से जानते थे |

अपने पढ़ने के शौक़ के चलते आप काफी रतजगा करते थे सो इस कारण आपको मेदे (लीवर ) की कमजोरी और ह्रदय रोग हो गया लेकिन चिकित्सकों की चेतावनी के बावजूद आप ने अपनी दिनचर्या में फेरबदल नहीं किया और इस बीमारी के स्थायी रोगी बन गए |

जब साहित्यिक पत्रिका "मख़ज़न" के संपादक सर अब्दुल क़ादिर सरवरी पटना आये और उनकी मुलाकात शाद से हुई | वे शाद की शायरी से बहुत मुतास्सिर हुए और शाद का कलाम अपनी पत्रिका में प्रकाशित करने लगे | यह घटना शाद की शोहरत को चार चाँद लगाने वाली थी और यही से आपकी शोहरत चारो और फैलने लगी |

मशहूर आलोचक कलीम उद्दीन अहमद ने उन्हें उर्दू ग़ज़ल की त्रिमूर्ति में मीर और ग़ालिब के बाद तीसरे शायर के रूप में शामिल किया। मजनूं गोरखपुरी ने उन्हें नम आलूदगियों का शायर कहा। अल्लामा इक़बाल भी उनकी शायरी के प्रशंसक थे।

शाद अज़ीमाबादी साहब जिंदगी को लेकर काफी सुलझे हुए थे वे इतनी परेशानियों और तकलीफों के होते हुए भी उन पर गमज़दा ना होते हुए उनमे सहजता खोज लेते थे | वो अपने गम को रोने से अच्छा उससे उभरने की सोचते थे |
'हज़ार शुक्र कि मुद्दत में यह असर आया
लिया जो नाम तेरा दिल में तू उतर आया'


आपने ग़ज़ल के अतिरिक्त मरसिए, मसनवी, क़सीदा, रुबाइयाँ, केतात, मुख़म्मस और मुसद्दस विधाओ में भी लिखा | आप अच्छे गद्यकार भी थे आपने कई उपन्यास लिखे जिनमे पहली स्वतंत्रता संग्राम विषय पर उर्दू का पहला उपन्यास "पीर अली" उर्दू और हिंदी दोनों भाषाओ में प्रकाशित हो चूका है | आपकी आत्मकथा "शाद की कहानी शाद की ज़बानी" है | 

1876 में प्रिन्स आफ वेल्स जब हिन्दुस्तान आए तो उन्होंने बिहार का इतिहास लिखने के लिए शाद से फरमाइश की | आपने तीन खंडों में बिहार का इतिहास लिख जिसके दो खंड प्रकाशित हो चुके है |

 उनकी किताब "नवाए वतन " जिसमे उन्होंने अज़ीमाबाद और बिहार के दूसरे स्थानों के शरीफों की ज़बान में खराबियो को बताया था उस पर काफी हंगामा हुआ था, उनके खिलाफ अखबारों और पत्रिकाओ में काफी लेख छपे थे और उनके खिलाफ एक पर्चा भी निकाला गया | लोग रात के अंधेरो में जुलुस बनाकर उनके घर के बाहर नौहे पढते | आपके समर्थकों ने भी इसका जवाब दिया और "अखबार-ए-आलम" निकाला जिसमे विरोधियों को जवाब दिए जाते | इस घटना के बाद उनकी शौहरत में कमी आई और वो ज्यादा हरदिल अज़ीज़ नहीं रह गए थे |

शाद को पत्रकारिता से भी दिलचस्पी थी। 1874 में उन्होंने एक साप्ताहिक "नसीम-ए-सहर" के नाम से जारी किया था जो सात बरस तक निकलता रहा। उसमें वो मानद संपादक थे।

वो पटना म्युनिस्पिल्टी के सदस्य और म्युनिस्पल कमिशनर भी रहे । 1889 में उन्हें ऑनरेरी मजिस्ट्रेट भी मनोनीत किया गया। शाद की ज़िंदगी का ज्यादातर हिस्सा ठाट बाट से गुज़रा। सफ़र के दौरान भी आठ दस नौकर उनके साथ होते थे लेकिन ज़िंदगी के आख़िरी दिनों में उन्हें अंग्रेज़ के भरण-पोषण पर आश्रित होना पड़ा। सरकार की तरफ़ से उनको घर की मरम्मत की मदद में एक हज़ार रुपये, किताबों के प्रकाशन के लिए नौ सौ रुपये और निजी ख़र्च के लिए वार्षिक एक हज़ार रुपये मिलते थे।

 उनकी साहित्यिक सेवाओ के बदले में सरकार से " खान बहादुर" का ख़िताब दिया गया | उनका एक दीवान "मयखाना इलहाम" नाम से छपा | आप ने सारा जीवन लेखन और संपादन में गुज़ारा। उनकी अनगिनत रचनाओं में से मात्र दस का प्रकाशन हो सका। उन्होंने विभिन्न विधाओं और विषयों पर लगभग एक लाख शे’र कहे और कई दर्जन गद्य रचनाएं सम्पादित कीं। आपका बहुत सा कलाम नष्ट हो गया।

आपकी मशहूर किताबे जिनमे "फरोग हस्ती" (1857), "कुल्लियाते शाद"(1975) और "रुबाइयत" काफी लोकप्रिय रही |

उनका एक शेर है :

करो वो काम, जो हैं कर गुजरने के,
समझ लो शाद, कि दिन आ गए हैं मरने के ।


शाद इश्क़ से तंग आकर मरना नहीं चाहते बल्कि वह तो उम्रे-दराज़ चाहते हैं -

'मुझ-सा फ़क़ीर आपसे राज़ों-नियाज़ हो
या रब ! हयाते-इश्क़े-मुहब्बत दराज़ हो
'

भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित शेर-ओ-सुख़न संग्रह में अयोध्याप्रसाद गोयलीय लिखते हैं, "वे ख़्वाजा मीर 'दर्द' की शिष्य परम्परा में हुए हैं। अत: आपके कलाम में भी वही असर नज़र आता है। कहीं-कहीं तत्कालीन लखनवी रंग की भी झलक मारती है। आप मीर 'अनीस' से भी काफ़ी प्रभावित नज़र आते हैं। शाद देहलवी-लखनऊ ज़बान के क़ायल नहीं थे। यही कारण है कि उनके कलाम में यत्र-तत्र मुहावरों और शब्दों का प्रयोग उक्त स्थानों की परम्परा से भिन्न हुआ है।"

अयोध्याप्रसाद लिखते हैं कि 'शाद' व्यथा पीड़ा के आंसुओं को पीने के बजाए उन्हें, प्रकट करना आवश्यक समझते हैं,

'ख़ामोशी से मुसीबत और संगीन होती है
तड़प ऐ दिल तड़पने से ज़रा तस्कीन होती है'

'यूं ही रातों को तड़पेंगे, यू ही जां अपनी खोयेंगे
तेरी मर्ज़ी नहीं ऐ दर्दे दिल ! अच्छा ! न सोयेंगे'

'ले तो लूं सोते में उसके पांव का बोसा मगर
ऐसी बातों से वह काफ़िर बदगुमां हो जाएगा
'

"सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में" जैसी इंक़लाबी नज़्म लिखने वाले बिस्मिल अज़ीमाबादी उनके शागिर्द थे, जिन्होने यह नज़्म 1921 में लिखी थी। जिस काग़ज़ पर यह नज़्म लिखी गई है, उस पर उनके उस्ताद शायर शाद अज़ीमाबादी ने सुधार भी किया है। इसकी मूल प्रति आज भी बिस्मिल अज़ीमाबादी के परिवार के पास सुरक्षित है और इसकी नकल खुदाबख्श लाइब्रेरी में रखी हुई है।

शाद अज़ीमाबादी इसी तरह जिंदगी भर अपने समकालीनो के विरोध के साथ और बीमारियों से लड़ते रहे | 8 जनवरी 1927 को आप इस दुनिया-ए-फ़ानी से कूच कर गए |
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