Sinhasan Battisi - 2 सिहासन बत्तीसी तीसरी किश्त

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Sinhasan Battisi - 2 सिहासन बत्तीसी तीसरी किश्त तेरहवीं पुतली कीर्तिमती तेरहवीं पुतली कीर्तिमती ने इस प्रकार कथा कही- एक बार राजा विक्रमादित्य ने एक

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Sinhasan Battisi - 2 सिहासन बत्तीसी तीसरी किश्त

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तेरहवीं पुतली कीर्तिमती

तेरहवीं पुतली कीर्तिमती ने इस प्रकार कथा कही-
एक बार राजा विक्रमादित्य ने एक महाभोज का आयोजन किया। उस भोज में असंख्य विद्धान, ब्राह्मण, व्यापारी तथा दरबारी आमन्त्रित थे। भोज के मध्य में इस बात पर चर्चा चली कि संसार में सबसे बड़ा दानी कौन है। सभी ने एक स्वर से विक्रमादित्य को दुनिया का सर्वश्रेष्ठ दानवीर घोषित किया। राजा विक्रमादित्य लोगों के भाव देख रहे थे। तभी उनकी नज़र एक ब्राह्मण पर पड़ी जो अपनी राय नहीं दे रहा था। लेकिन उसके चेहरे के भाव से स्पष्ट प्रतीत होता था कि वह सभी लोगों के विचार से सहमत नहीं है। विक्रम ने उससे उसकी चुप्पी का मतलब पूछा तो वह डरते हुए बोला कि सबसे अलग राय देने पर कौन उसकी बात सुनेगा। राजा ने उसका विचार पूछा तो वह बोला कि वह असमंजस की स्थिति में पड़ा हुआ है। अगर वह सच नहीं बताता, तो उसे झूठ का पाप लगता है और सच बोलने की स्थिति में उसे डर है कि राजा का कोपभाजन बनना पड़ेगा।

अब विक्रम की जिज्ञासा और बढ़ गई। उन्होंने उसकी स्पष्टवादिता की भरि-भूरि प्रशंसा की तथा उसे निर्भय होकर अपनी बात कहने को कहा। तब उसने कहा कि महराज विक्रमादित्य बहुत बड़े दानी हैं- यह बात सत्य है पर इस भूलोक पर सबसे बड़े दानी नहीं। यह सुनते ही सब चौंके। सबने विस्मित होकर पूछा क्या ऐसा हो सकता है? उस पर उस ब्राह्मण ने कहा कि समुद्र पार एक राज्य है जहाँ का राजा कीर्कित्तध्वज जब तक एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ प्रतिदिन दान नहीं करता तब तक अन्न-जल भी ग्रहण नहीं करता है। अगर यह बात असत्य प्रमाणित होती है, तो वह ब्राह्मण कोई भी दण्ड पाने को तैयार था। राजा के विशाल भोज कक्ष में निस्तब्धता छा गई। ब्राह्मण ने बताया कि कीर्कित्तध्वज के राज्य में वह कई दिनों तक रहा और प्रतिदिन स्वर्ण मुद्रा लेने गया।

सचमुच ही कीर्कित्तध्वज एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करके ही भोजन ग्रहण करता है। यही कारण है कि भोज में उपस्थित सारे लोगों की हाँ-में-हाँ उसने नहीं मिलाई। राजा विक्रमादित्य ब्राह्मण की स्पष्टवादिता से प्रसन्न हो गए और उन्होंने उसे पारितोषिक देकर सादर विदा किया। ब्राह्मण के जाने के बाद राजा विक्रमादित्य ने साधारण वेश धरा और दोनों बेतालों का स्मरण किया। जब दोनों बेताल उपस्थित हुए तो उन्होंने उन्हें समुद्र पार राजा कीर्कित्तध्वज को राज्य में पहुँचा देने को कहा। बेतालों ने पलक झपकते ही उन्हें वहाँ पहुँचा दिया। कीर्कित्तध्वज के महल के द्वार पर पहुँचकर उन्होंने अपना परिचय उज्जयिनी नगर के एक साधारण नागरिक के रुप में दिया तथा कीर्कित्तध्वज से मिलने की इच्छा जताई। कुछ समय बाद जब ने कीर्कित्तध्वज के सामने उपस्थित हुए, तो उन्होंने उसके यहाँ नौकरी की माँग की। कीर्कित्तध्वज ने जब पूछा कि वे कौन सा काम कर सकते हैं तो उन्होंने का जो कोई नहीं कर सकता वह काम वे कर दिखाएँगे।

राजा कीर्कित्तध्वज को उनका जवाब पसंद आया और विक्रमादित्य को उसके यहाँ नौकरी मिल गई। वे द्वारपाल के रुप में नियुक्त हुए। उन्होंने देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज सचमुच हर दिन एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ जब तक दान नहीं कर लेता अन्न-जल ग्रहण नहीं करता है। उन्होंने यह भी देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज रोज़ शाम में अकेला कहीं निकलता है और जब लौटता है, तो उसके हाथ में एक लाख स्वर्ण मुद्राओं से भरी हुई थैली होती है। एक दिन शाम को उन्होंने छिपकर कीर्कित्तध्वज का पीछा किया। उन्होंने देखा कि राजा कीर्कित्तध्वज समुद्र में स्नान करके एक मन्दिर में जाता है और एक प्रतिमा की पूजा-अर्चना करके खौलते तेल के कड़ाह में कूद जाता है।

जब उसका शरीर जल-भुन जाता है, तो कुछ जोगनियाँ आकर उसका जला-भुना शरीर कड़ाह से निकालकर नोच-नोच कर खाती हैं और तृप्त होकर चली जाती हैं। जोगनियों के जाने के बाद प्रतिमा की देवी प्रकट होती है और अमृत की बून्दें डालकर कीर्कित्तध्वज को जीवित करती है। अपने हाथों से एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ कीर्कित्तध्वज की झोली में जाल देती है और कीर्कित्तध्वज खुश होकर महल लौट जाता है। प्रात:काल वही स्वर्ण मुद्राएँ वह याचकों को दान कर देता है। विक्रम की समझ में उसके नित्य एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करने का रहस्य आ गया।

अगले दिन राजा कीर्कित्तध्वज के स्वर्ण मुद्राएँ प्राप्त कर चले जाने के बाद विक्रम ने भी नहा-धो कर देवी की पूजा की और तेल के कड़ाह में कूद गए। जोगनियाँ जब उनके जले-भुने शरीर को नोचकर ख़ाकर चली गईं तो देवी ने उनको जीवित किया। जीवित करके जब देवी ने उन्हें स्वर्ण मुद्राएँ देनी चाहीं तो उन्होंने यह कहकर मना कर दिया कि देवी की कृपा ही उनके लिए सर्वोपरि है। यह क्रिया उन्होंने सात बार दुहराई। सातवीं बार देवी ने उनसे बस करने को कहा तथा उनसे कुछ भी मांग लेने को कहा। विक्रम इसी अवसर की ताक में थे। उन्होंने देवी से वह थैली ही मांग ली जिससे स्वर्ण मुद्राएँ निकलती थीं। ज्योंहि देवी ने वह थैली उन्हें सौंपी- चमत्कार हुआ।

मन्दिर, प्रतिमा- सब कुछ गायब हो गया। अब दूर तक केवल समुद्र तट दिखता था। दूसरे दिन जब कीर्कित्तध्वज वहाँ आया तो बहुत निराश हुआ। उसका वर्षों का एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान करने का नियम टूट गया। अन्न-जल त्याग कर अपने कक्ष में असहाय पड़ा रहा। उसका शरीर क्षीण होने लगा। जब उसकी हालत बहुत अधिक बिगड़ने लगी, तो विक्रम उसके पास गए और उसकी उदासी का कारण जानना चाहा। उसने विक्रम को जब सब कुछ खुद बताया तो विक्रम ने उसे देवी वाली थैली देते हुए कहा कि रोज़-रोज़ कडाह में उसे कूदकर प्राण गँवाते देख वे द्रवित हो गए, इसलिए उन्होंने देवी से वह थैली ही सदा के लिए प्राप्त कर ली।

वह थैली राजा कीर्कित्तध्वज को देकर उन्होंने उस वचन की भी रक्षा कर ली, जो देकर उन्हें कीर्कित्तध्वज के दरबार में नौकरी मिली थी। उन्होंने सचमुच वही काम कर दिखाया जो कोई भी नहीं कर सकता है। राजा कीर्कित्तध्वज ने उनका परिचय पाकर उन्हें सीने से लगाते हुए कहा कि वे सचमुच इस धरा पर सर्वश्रेष्ठ दानवीर हैं, क्योंकि उन्होंने इतनी कठिनाई के बाद प्राप्त स्वर्ण मुद्रा प्रदान करने वाली थैली ही बेझिझक दान कर डाली जैसे कोई तुच्छ चीज़ हो।


चौदहवीं पुतली सुनयना

चौदहवीं पुतली सुनयना ने जो कथा की वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य सारे नृपोचित गुणों के सागर थे। उन जैसा न्यायप्रिय, दानी और त्यागी और कोई न था। इन नृपोचित गुणों के अलावा उनमें एक और गुण था। वे बहुत बड़े शिकारी थे तथा निहत्थे भी हिंसक से हिंसक जानवरों का वध कर सकते थे। उन्हें पता चला कि एक हिंसक सिंह बहुत उत्पात मचा रहा है और कई लोगों का भक्षण कर चुका है, इसलिए उन्होंने उस सिंह के शिकार की योजना बनाई और आखेट को निकल पड़े। जंगल में घुसते ही उन्हें सिंह दिखाई पड़ा और उन्होंने सिंह के पीछे अपना घोड़ा डाल दिया। वह सिंह कुछ दूर पर एक घनी झाड़ी में घुस गया। राजा घोड़े से कूदे और उस सिंह की तलाश करने लगे। अचानक सिंह उन पर झपटा, तो उन्होंने उस पर तलवार का वार किया। झाड़ी की वजह से वार पूरे ज़ोर से नहीं हो सका, मगर सिंह घायल होकर दहाड़ा और पीछे हटकर घने वन में गायब हो गया।

वे सिंह के पीछे इतनी तेज़ी से भागे कि अपने साथियों से काफी दूर निकल गए। सिंह फिर झाड़ियों में छुप गया। राजा ने झाड़ियों में उसकी खोज शुरु की। अचानक उस शेर ने राजा के घोड़े पर हमला कर दिया और उसे गहरे घाव दे दिए। घोड़ा भय और दर्द से हिनहिनाया, तो राजा पलटे। घोड़े के घावों से खून का फव्वारा फूट पड़। राजा ने दूसरे हमले से घोड़े को तो बचा लिया, मगर उसके बहते खून ने उन्हें चिन्तित कर दिया। वे सिंह से उसकी रक्षा के लिए उसे किसी सुरक्षित जगह ले जाना चाहते थे, इसलिए उसे लेकर आगे बढ़े। उन्हें उस घने वन में दिशा का बिल्कुल ज्ञान नहीं रहा। एक जगह उन्होंने एक छोटी सी नदी बहती देखी। वे घोड़े को लेकर नदी तक आए ही थे कि घोड़े ने रक्त अधिक बह जाने के कारण दम तोड़ दिया।

उसे मरता देख राजा दुख से भर उठे। संध्या गहराने लगी थी, इसलिए उन्होंने आगे न बढ़ना ही बुद्धिमानी समझा। वे एक वृक्ष से टिककर अपनी थकान उतारने लगे। कुछ ही क्षणों बाद उनका ध्यान नदी का धारा में हो रहे कोलाहल की ओर गया उन्होंने देख दो व्यक्ति एक तैरते हुए शब को दोनों ओर से पकड़े झगड़ रहे हैं। लड़ते-लड़ते वे दोनों शव को किनारे लाए। उन्होंने देख कि उनमें से एक मानव मुण्डों की माला पहने वीभत्स दिखने वाला कापालिक है तथा दूसरा एक बेताल है जिसकी पाठ का ऊपरी हिस्सा नदी के ऊपर उड़ता-सा दिख रहा था। वे दोनों उस शव पर अपना-अपना अधिकार जता रहे थे। कापालिक का कहना था कि यह शव उसने तांत्रिक साधना के लिए पकड़ा है और बेताल उस शव को खाकर अपनी भूख मिटाना चाहता था।

दोनों में से कोई भी अपना दावा छोड़ने को तैयार नहीं था। विक्रम को सामने पाकर उन्होंने उन पर न्याय का भार सौंपना चाहा तो विक्रम ने अपनी शतç रखी। पहली यह कि उनका फैसला दोनों को मान्य होगा और दूसरी कि उन्हें वे न्याय के लिए शुल्क अदा करेंगे। कापालिक ने उन्हें शुल्क के रुप में एक बटुआ दिया जो चमत्कारी था तथा मांगने पर कुछ भी दे सकता था। बेताल ने उन्हें मोहिनी काष्ठ का टुकड़ा दिया जिसका चंदन घिस कर लगाकर अदृश्य हुआ जा सकता था। उन्होंने बेताल को भूख मिटाने के लिए अपना मृत घोड़ा दे दिया तथा कापालिक को तंत्र साधना के लिए शव। इस न्याय से दोनों बहुत खुश हुए तथा सन्तुष्ट होकर चले गए।

रात घिर आई थी और राजा को ज़ोरों की भूख लगी थी, इसलिए उन्होंने बटुए से भोजन मांगा। तरह-तरह के व्यंजन उपस्थित हुए और राजा ने अपनी भूख मिटाई। फिर उन्होंने मोहिनी काष्ठ के टुकड़े को घिसकर उसका चंदन लगा लिया और अदृश्य हो गए। अब उन्हें किसी भी हिंसक वन्य जन्तु से खतरा नहीं रहा। अगली सुबह उन्होंने काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेतालों का स्मरण किया तथा अपने राज्य की सीमा पर पहुँच गए। उन्हें महल के रास्त में एक भिखारी मिला, जो भूखा था। राजा ने तुरन्त कापालिक वाला बटुआ उसे दे दिया ताकि ज़िन्दगी भर उसे भोजन की कमी न हो।


पन्द्रहवीं पुतली सुन्दरवती

पन्द्रहवीं पुतली की कथा इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य के शासन काल में उज्जैन राज्य की समृद्धि आकाश छूने लगी थी। व्यापारियों का व्यापार अपने देश तक ही सीमित नहीं था, बल्कि दूर के देशों तक फैला हुआ था। उन दिनों एक सेठ हुआ जिसका नाम पन्नालाल था। वह बड़ा ही दयालु तथा परोपकारी था। चारों ओर उसका यश था। वह दीन-दुखियों की सहायता के लिए सतत तैयार रहता था। उसका पुत्र था हीरालाल, जो पिता की तरह ही नेक और अच्छे गुणों वाला था। वह जब विवाह योग्य हुआ, तो पन्नालाल अच्छे रिश्तों की तलाश करने लगा। एक दिन एक ब्राह्मण ने उसे बताया कि समुद्र पार एक नामी व्यापारी है जिसकी कन्या बहुत ही सुशील तथा गुणवती है।

पन्नालाल ने फौरन उसे आने-जाने का खर्च देकर कन्या पक्ष वालों के यहाँ रिश्ता पक्का करने के लिए भेजा। कन्या के पिता को रिश्ता पसंद आया और उनकी शादी पक्की कर दी गई। विवाह का दिन जब समीप आया, तो मूसलाधार बारिश होने लगी। नदी-नाले जल से भर गए और द्वीप तक पहुँचने का मार्ग अवरुद्ध हो गया। बहुत लम्बा एक मार्ग था, मगर उससे विवाह की तिथि तक पहुँचना असम्भव था। सेठ पन्नालाल के लिए यह बिल्कुल अप्रत्याशित हुआ। इस स्थिति के लिए वह तैयार नहीं था, इसलिए बेचैन हो गया। उसने सोचा कि शादी की सारी तैयारी कन्या पक्ष वाले कर लेंगे और किसी कारण बारात नहीं पहुँची, तो उसको ताने सुनने पड़ेगे और जगहँसाई होगी।

जब कोई हल नहीं सूझा, तो विवाह तय कराने वाले ब्राह्मण ने सुझाव दिया कि वह अपनी समस्या राजा विक्रमादित्य के समक्ष रखे। उनके अस्तबल में पवन वेग से उड़ने वाला रथ है और उसमें प्रयुक्त होने वाले घोड़े हैं। उस रथ पर आठ-दस लोग वर सहित चले जाएँगे और विवाह का कार्य शुरु हो जाएगा। बाकी लोग लम्बे रास्ते से होकर बाद में सम्मिलित हो जाएँगे। सेठ पन्नालाल तुरन्त राजा के पास पहुँचा और अपनी समस्या बताकर हिचकिचाते हुए रथ की माँग की। विक्रम ने मुस्कराकर कहा कि राजा की हर चीज़ प्रजा के हित की रक्षा के लिए होती है और उन्होंने अस्तबल के प्रबन्धक को बुलाकर तत्काल उसे घोड़े सहित वह रथ दिलवा दिया।

प्रसन्नता के मारे पन्नालाल को नहीं सूझा कि विक्रम को कैसे धन्यवाद दे। जब वह रथ और घोड़े सहित चला गया, तो विक्रम को चिन्ता हुई कि जिस काम के लिए सेठ ने रथ लिया है, कहीं वह कार्य भीषण वर्षा की वजह से बाधित न हो जाए। उन्होंने माँ काली द्वारा प्रदत्त बेतालों का स्मरण किया और उन्हें सकुशल वर को विवाह स्थल तक ले जाने तथा विवाह सम्पन्न कराने की आज्ञा दी। जब वर वाला रथ पवन वेग से दौड़ने को तैयार हुआ, तो दोनों बेताल छाया की तरह रथ के साथ चल पड़े। यात्रा के मध्य में सेठ ने देखा कि रास्ता कहीं भी नहीं दिख रहा है, चारों ओर पानी ही पानी है तो उसकी चिन्ता बहुत बढ़ गई। उसे सूझ नहीं रहा था क्या किया जाए। तभी अविश्वसनीय घटना घटी। घोड़ों सहित रथ ज़मीन के ऊपर उड़ने लगा।

रथ जल के ऊपर ही ऊपर उड़ता हुआ निश्चित दिशा में बढ़ रहा था। दरअसल बेतालों ने उसे थाम रखा था और विवाह स्थल की ओर उड़े जा रहे थे। निश्चित मुहू में सेठ के पुत्र का विवाह सम्पन्न हो गया। कन्या को साथ लेकर जब सेठ पन्नालाल उज्जैन लौटा, तो घर के बदले सीधा राजदरबार गया। विक्रमादित्य ने वर-वधु को आशीर्वाद दिया। सेठ पन्नालाल घोड़े और रथ की प्रशंसा में ही खोया रहा। राजा विक्रमादित्य उसका आशय समझ गए और उन्होंने अश्व तथा रथ उसे उपहार स्वरुप दे दिया।


सोलहवीं पुतली सत्यवती

सोलहवीं पुतली सत्यवती ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य के शासन काल में उज्जैन नगरी का यश चारों ओर फैला हुआ था। एक से बढ़कर एक विद्वान उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे और उनकी नौ जानकारों की एक समिति थी जो हर विषय पर राजा को परामर्श देते थे, तथा राजा उनके परामर्श के अनुसार ही राज-काज सम्बन्धी निर्णय लिया करते थे। एक बार ऐश्वर्य पर बहस छिड़ी, तो मृत्युलोक की भी बात चली। राजा को जब पता चला कि पाताल लोक के राजा शेषनाग का ऐश्वर्य देखने लायक है और उनके लोक में हर तरह की सुख-सुविधाएँ मौजूद है। चूँकि वे भगवान विष्णु के खास सेवकों में से एक हैं, इसलिए उनका स्थान देवताओं के समकक्ष है। उनके दर्शन से मनुष्य का जीवन धन्य हो जाता है।

विक्रमादित्य ने सशरीर पाताल लोक जाकर उनसे भेंट करने की ठान ली। उन्होंने दोनों बेतालो का स्मरण किया। जब वे उपस्थित हुए, तो उन्होंने उनसे पाताल लोक ले चलने को कहा। बेताल उन्हें जब पाताल लोक लाए, तो उन्होंने पाताल लोक के बारे में दी गई सारी जानकारी सही पाई। सारा लोक साफ-सुथरा तथा सुनियोजित था। हीरे-जवाहरात से पूरा लोक जगमगा रहा था। जब शेषनाग को ख़बर मिली कि मृत्युलोक से कोई सशरीर आया है तो वे उनसे मिले। राजा विक्रमादित्य ने पूरे आदर तथा नम्रता से उन्हें अपने आने का प्रयोजन बताया तथा अपना परिचय दिया। उनके व्यवहार से शेषनाग इतने प्रसन्न हो गए कि उन्होंने चलते वDत उन्हें चार चमत्कारी रत्न उपहार में दिए। पहले रत्न से मुँहमाँगा धन प्राप्त किया जा सकता था।

दूसरा रत्न माँगने पर हर तरह के वस्र तथा आभूषण दे सकता था। तीसरे रत्न से हर तरह के रथ, अश्व तथा पालकी की प्राप्ति हो सकती थी। चौथा रत्न धर्म-कार्य तथा यश की प्राप्ति करना सकता था। काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेताल स्मरण करने पर उपस्थित हुए तथा विक्रम को उनके नगर की सीमा पर पहुँचा कर अदृश्य हो गए। चारों रत्न लेकर अपने नगर में प्रविष्ट हुए ही थे कि उनका अभिवादन एक परिचित ब्राह्मण ने किया। उन्होंने राजा से उनकी पाताल लोक की यात्रा तथा रत्न प्राप्त करने की बात जानकर कहा कि राजा की हर उपलब्धि में उनकी प्रजा की सहभागिता है। राजा विक्रमादित्य ने उसका अभिप्राय समझकर उससे अपनी इच्छा से एक रत्न ले लेने को कहा। ब्राह्मण असमंजस में पड़ गया और बोला कि अपने परिवार के हर सदस्य से विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला करेगा। जब वह घर पहुँचा और अपनी पत्नी बेटे तथा बेटी से सारी बात बताई, तो तीनों ने तीन अलग तरह के रत्नों में अपनी रुचि जताई। ब्राह्मण फिर भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सका और इसी मानसिक दशा में राजा के पास पहुँच गया। विक्रम ने हँसकर उसे चारों के चारों रत्न उपहार में दिए.
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सत्रहवीं पुतली विद्यावती

विद्यावती नामक सत्रहवीं पुतली ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- महाराजा विक्रमादित्य की प्रजा को कोई कमी नहीं थीं। सभी लोग संतुष्ट तथा प्रसन्न रहते थे। कभी कोई समस्या लेकर यदि कोई दरबार आता था उसकी समस्या को तत्काल हल कर दिया जाता था। प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट देने वाले अधिकारी को दण्डित किया जाता था। इसलिए कहीं से भी किसी तरह की शिकायत नहीं सुनने को मिलती थी। राजा खुद भी वेश बदलकर समय-समय पर राज्य की स्थिति के बारे में जानने को निकलते थे। ऐसे ही एक रात जब वे वेश बदलकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें एक झोंपड़े से एक बातचीत का अंश सुनाई पड़ा। कोई औरत अपने पति को राजा से साफ़-साफ़ कुछ बताने को कह रही थी और उसका पति उसे कह रहा था कि अपने स्वार्थ के लिए अपने महान राजा के प्राण वह संकट में नहीं डाल सकता है।

विक्रम समझ गए कि उनकी समस्या से उनका कुछ सम्बन्ध है। उनसे रहा नहीं गाया। अपनी प्रजा की हर समस्या को हल करना वे अपना कर्त्तव्य समझते थे। उन्होंने द्वार खटखटाया, तो एक ब्राह्मण दम्पत्ति ने दरवाजा खोला। विक्रम ने अपना परिचय देकर उनसे उनकी समस्या के बारे में पूछा तो वे थर-थर काँपने लगे। जब उन्होंने निर्भय होकर उन्हें सब कुछ स्पष्ट बताने को कहा तो ब्राह्मण ने उन्हें सारी बात बता दी। ब्राह्मण दम्पत्ति विवाह के बारह साल बाद भी निस्संतान थे।

इन बारह सालों में संतान के लिए उन्होंने काफ़ी यत्न किए। व्रत-उपवास, धर्म-कर्म, पूजा-पाठ हर तरह की चेष्टा की पर कोई फायदा नहीं हुआ। ब्राह्मणी ने एक सपना देखा है। स्वप्न में एक देवी ने आकर उसे बताया कि तीस कोस की दूरी पर पूर्व दिशा में एक घना जंगल है जहाँ कुछ साधु सन्यासी शिव की स्तुति कर रहे हैं। शिव को प्रसन्न करने के लिए हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर डाल रहे हैं। अगर उन्हीं की तरह राजा विक्रमादित्य उस हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर फेंकें, तो शिव प्रसन्न होकर उनसे उनकी इच्छित चीज़ माँगने को कहेंगे। वे शिव से ब्राह्मण दम्पत्ति के लिए संतान की माँग कर सकते हैं और उन्हें सन्तान प्राप्ति हो जाएगी।

  विक्रम ने यह सुनकर उन्हें आश्वासन दिया कि वे यह कार्य अवश्य करेंगे। रास्त में उन्होंने बेतालों को स्मरण कर बुलाया तथा उस हवन स्थल तक पहुँचा देने को कहा। उस स्थान पर सचमुच साधु-सन्यासी हवन कर रहे थे तथा अपने अंगों को काटकर अग्नि-कुण्ड में फेंक रहे थे। विक्रम भी एक तरफ बैठ गए और उन्हीं की तरह अपने अंग काटकर अग्नि को अर्पित करने लगे। जब विक्रम सहित वे सारे जलकर राख हो गए तो एक शिवगण वहाँ पहुँचा तथा उसने सारे तपस्विओं को अमृत डालकर ज़िन्दा कर दिया, मगर भूल से विक्रम को छोड़ दिया।

सारे तपस्वी ज़िन्दा हुए तो उन्होंने राख हुए विक्रम को देखा। सभी तपस्विओं ने मिलकर शिव की स्तुति की तथा उनसे विक्रम को जीवित करने की प्रार्थना करने लगे। भगवान शिव ने तपस्विओं की प्रार्थना सुन ली तथा अमृत डालकर विक्रम को जीवित कर दिया । विक्रम ने जीवित होते ही शिव के सामने नतमस्तक होकर ब्राह्मण दम्पत्ति को संतान सुख देने के लिए प्रार्थना की। शिव उनकी परोपकार तथा त्याग की भावना से काफ़ी प्रसन्न हुए तथा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। कुछ दिनों बाद सचमुच ब्राह्मण दम्पत्ति को पुत्र लाभ हुआ।


अठारहवीं पुतली तारावती

अठारहवीं पुतली तारामती की कथा इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य की गुणग्राहिता का कोई जवाब नहीं था। वे विद्वानों तथा कलाकारों को बहुत सम्मान देते थे। उनके दरबार में एक से बढ़कर एक विद्वान तथा कलाकार मौजूद थे, फिर भी अन्य राज्यों से भी योग्य व्यक्ति आकर उनसे अपनी योग्यता के अनुरुप आदर और पारितोषिक प्राप्त करते थे। एक दिन विक्रम के दरबार में दक्षिण भारत के किसी राज्य से एक विद्वान आशय था कि विश्वासघात विश्व का सबसे नीच कर्म है। उसने राजा को अपना विचार स्पष्ट करने के लिए एक कथा सुनाई। उसने कहा- आर्याव में बहुत समय पहले एक राजा था। उसका भरा-पूरा परिवार था, फिर भी सत्तर वर्ष की आयु में उसने एक रुपवती कन्या से विवाह किया। वह नई रानी के रुप पर इतना मोहित हो गया कि उससे एक पल भी अलग होने का उसका मन नहीं करता था।

वह चाहता था कि हर वक्त उसका चेहरा उसके सामने रहे। वह नई रानी को दरबार में भी अपने बगल में बिठाने लगा। उसके सामने कोई भी कुछ बोलने का साहस नहीं करता, मगर उसके पीठ पीछे सब उसका उपहास करते। राजा के महामन्त्री को यह बात बुरी लगी। उसने एकांत में राजा से कहा कि सब उसकी इस की आलोचना करते हैं। अगर वह हर पल नई रानी का चेहरा देखता रहना चाहता है तो उसकी अच्छी-सी तस्वीर बनवाकर राजसिंहासन के सामने रखवा दे। चूँकि इस राज्य में राजा के अकेले बैठने की परम्परा रही है, इसलिए उसका रानी को दरबार में अपने साथ लाना अशोभनीय है।

महामन्त्री राजा का युवाकाल से ही मित्र जैसा था और राजा उसकी हर बात को गंभीरतापूर्वक लेता था। उसने महामन्त्री से किसी अच्छे चित्रकार को छोटी रानी के चित्र को बनाने का काम सौंपने को कही। महामन्त्री ने एक बड़े ही योग्य चित्रकार को बुलाया। चित्रकार ने रानी का चित्र बनाना शुरु कर दिया। जब चित्र बनकर राजदरबार आया, तो हर कोई चित्रकार का प्रशंसक हो गया। बारीक से बारीक चीज़ को भी चित्रकार ने उस चित्र में उतार दिया था। चित्र ऐसा जीवंत था मानो छोटी रानी किसी भी क्षण बोल पड़ेगी। राजा को भी चित्र बहुत पसंद आया। तभी उसकी नज़र चित्रकार द्वारा बनाई गई रानी की जंघा पर गई, जिस पर चित्रकार ने बड़ी सफ़ाई से एक तिल दिखा दिया था। राजा को शंका हुई कि रानी के गुप्त अंग भी चित्रकार ने देखे हैं और क्रोधित होकर उसने चित्रकार से सच्चाई बताने को कहा।

चित्रकार ने पूरी शालीनता से उसे विश्वास दिलाने की कोशिश की कि प्रकृति ने उसे सूक्ष्म दृष्टि दी है जिससे उसे छिपी हुई बात भी पता चल जाती है। तिल उसी का एक प्रमाण है और उसने तिल को खूबसूरती बढाने के लिए दिखाने की कोशिश की है। राजा को उसकी बात का ज़रा भी विश्वास नहीं हुआ। उसने जल्लादों को बुलाकर तत्काल घने जंगल में जाकर उसकी गर्दन उड़ा देने का हुक्म दिया तथा कहा कि उसकी आँखें निकालकर दरबार में उसके सामने पेश करें। महामन्त्री को पता था कि चित्रकार की बातें सच हैं। उसने रास्ते में उन जल्लादों को धन का लोभ देकर चित्रकार को मुक्त करवा लिया तथा उन्हें किसी हिरण को मारकर उसकी आँखे निकाल लेने को कहा ताकि राजा के विश्वास हो जाए कि कलाकार को खत्म कर दिया गया है। चित्रकार को लेकर महामन्त्री अपने भवन ले आया तथा चित्रकार वेश बदलकर उसी के साथ रहने लगा।

कुछ दिनों बाद राजा का पुत्र शिकार खेलने गया, तो एक शेर उसके पीछे पड़ गया। राजकुमार जान बचाने के लिए एक पेड़ पर चढ़ गया। तभी उसकी नज़र पेड़ पर पहले से मौजूद एक भालू पर पड़ी। भालू से जब वह भयभीत हुआ तो भालू ने उससे निश्चिन्त रहने को कहा। भालू ने कहा कि वह भी उसी की तरह शेर से डरकर पेड़ पर चढ़ा हुआ है और शेर के जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। शेर भूखा था और उन दोनों पर आँख जमाकर उस पेड़ के नीचे बैठा था। राजकुमार को बैठे-बैठे नींद आने लगी और जगे रहना उसे मुश्किल दिख पड़ा। भालू ने अपनी ओर उसे बुला दिया एक घनी शाखा पर कुछ देर सो लेने को कहा। भालू ने कहा कि जब वह सोकर उठ जाएगा तो वह जागकर रखवाली करेगा और भालू सोएगा जब राजकुमार सो गया तो शेर ने भालू को फुसलाने की कोशिश की। उसने कहा कि वह और भालू वन्य प्राणी हैं, इसलिए दोनों को एक दूसरे का भला सोचना चाहिए। मनुष्य कभी भी वन्य प्राणियों का दोस्त नहीं हो सकता।

उसने भालू से राजकुमार को गिरा देने को कहा जिससे कि वह उसे अपना ग्रास बना सके। मगर भालू ने उसकी बात नहीं मानी तथा कहा कि वह विश्वासघात नहीं कर सकता। शेर मन मसोसकर रह गया। चार घंटों की नींद पूरी करने के बाद जब राजकुमार जागा, तो भालू की बारी आई और वह सो गया। शेर ने अब राजकुमार को फुसलाने की कोशिश की। उसने कहा कि क्यों वह भालू के लिए दुख भोग रहा है। वह अगर भालू को गिरा देता हो तो शेर की भूख मिट जाएगी और वह आराम से राजमहल लौट जाएगा। राजकुमार उसकी बातों में आ गया। उसने धक्का देकर भालू को गिराने की कोशिश की। मगर भालू न जाने कैसे जाग गया और राजकुमार को विश्वासघाती कहकर खूब धिक्कारा। राजकुमार की अन्तरात्मा ने उसे इतना कोसा कि वह गूंगा हो गया।

जब शेर भूख के मारे जंगल में अन्य शिकार की खोज में निकल गया तो वह राजमहल पहुँचा। किसी को भी उसके गूंगा होने की बात समझ में नहीं आई। कई बड़े वैद्य आए, मगर राजकुमार का रोग किसी की समझ में नहीं आया। आखिरकार महामन्त्री के घर छिपा हुआ वह कलाकार वैद्य का रुप धरकर राजकुमार के पास आया। उसने गूंगे राजकुमार के चेहरे का भाव पढ़कर सब कुछ जान लिया। उसने राजकुमार को संकेत की भाषा में पूछ कि क्या आत्मग्लानि से पीड़ित होकर वह अपनी वाणी खो चुका है, तो राजकुमार फूट-फूट कर रो पड़ा।

रोने से उस पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ा और उसकी खोई वाणी लौट आई। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसने राजकुमार के चेहरे को देखकर सच्चाई कैसे जान ली तो चित्रकार ने जवाब दिया कि जिस तरह कलाकार ने उनकी रानी की जाँघ का तिल देख लिया था। राजा तुरन्त समझ गया कि वह वही कलाकार था जिसके वध की उसने आज्ञा दी थी। वह चित्रकार से अपनी भूल की माफी माँगने लगा तथा ढेर सारे इनाम देकर उसे सम्मानित किया।

उस दक्षिण के विद्वान की कथा से विक्रमादित्य बहुत प्रसन्न हुए तथा उसके पाण्डित्य का सम्मान करते हुए उन्होंने उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी।


उन्नीसवीं पुतली रुपरेखा

रुपरेखा नामक उन्नीसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है-

राजा विक्रमादित्य के दरबार में लोग अपनी समस्याएँ लेकर न्याय के लिए तो आते ही थे कभी-कभी उन प्रश्नों को लेकर भी उपस्थित होते थे जिनका कोई समाधान उन्हें नहीं सूझता था। विक्रम उन प्रश्नों का ऐसा सटीक हल निकालते थे कि प्रश्नकर्त्ता पूर्ण सन्तुष्ट हो जाता था। ऐसे ही एक टेढ़े प्रश्न को लेकर एक दिन दो तपस्वी दरबार में आए और उन्होंने विक्रम सो अपने प्रश्न का उत्तर देने की विनती की। उनमें से एक का मानना था कि मनुष्य का मन ही उसके सारे क्रिया-कलाप पर नियंत्रण रखता है और मनुष्य कभी भी अपने मन के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता है। दूसरा उसके मत से सहमत नहीं था। उसका कहना था कि मनुष्य का ज्ञान उसके सारे क्रिया-कलाप नियंत्रित करता है। मन भी ज्ञान का दास है और वह भी ज्ञान द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने को बाध्य है।

राजा विक्रमादित्य ने उनके विवाद के विषय को गौर से सुना पर तुरन्त उस विषय पर अपना कोई निर्णय नहीं दे पाए। उन्होंने उन दोनों तपस्वियों को कुछ समय बाद आने को कहा। जब वे चले गए तो विक्रम उनके प्रश्न के बारे में सोचने लगे जो सचमुच ही बहुत टेढ़ा था। उन्होंने एक पल सोचा कि मनुष्य का मन सचमुच बहुत चंचल होता है और उसके वशीभूत होकर मनुष्य सांसारिक वासना के अधीन हो जाता है। मगर दूसरे ही पल उन्हें ज्ञान की याद आई। उन्हें लगा कि ज्ञान सचमुच मनुष्य को मन का कहा करने से पहले विचार कर लेने को कहता है और किसी निर्णय के लिए प्रेरित करता है।

विक्रम ऐसे उलझे सवालों का जवाब सामान्य लोगों की ज़िन्दगी में खोजते थे, इसलिए वे साधारण नागरिक का वेश बदलकर अपने राज्य में निकल पड़े। उन्हें कई दिनों तक ऐसी कोई बात देखने को नहीं मिली जो प्रश्न को हल करने में सहायता करती। एक दिन उनकी नज़र एक ऐसे नौजवान पर पड़ी जिसके कपड़ों और भावों में उसकी विपन्नता झलकती थी। वह एक पेड़ के नीचे थककर आराम कर रहा था। बगल में एक बैलगाड़ी खड़ी थी जिसकी वह कोचवानी करता था।

राजा ने उसके निकट जाकर देखा तो वे उसे एक झलक में ही पहचान गए. वह उनके अभिन्न मित्र सेठ गोपाल दास का छोटा बेटा था। सेठ गोपाल दास बहुत बड़े व्यापारी थे और उन्होंने व्यापार से बहुत धन कमाया था। उनके बेटे की यह दुर्दशा देखकर उनकी जिज्ञासा बढ़ गई। उसकी बदहाली का कारण जानने को उत्सुक हो गये। उन्होंने उससे पूछा कि उसकी यह दशा कैसे हुई जबकि मरते समय गोपाल दास ने अपना सारा धन और व्यापार अपने दोनों पुत्रों में समान रुप से बाँट दिया था। एक के हिस्से का धन इतना था कि दो पुश्तों तक आराम से ज़िन्दगी गुज़ारी जा सकती थी। विक्रम ने फिर उसके भाई के बारे में भी जानने की जिज्ञासा प्रकट की।

युवक समझ गया कि पूछने वाला सचमुच उसके परिवार के बारे में सारी जानकारी रखता है। उसने विक्रम को अपने और अपने भाई के बारे में सब कुछ बता दिया। उसने बताया कि जब उसके पिता ने उसके और उसके भाई के बीच सब कुछ बाँट दिया तो उसके भाई ने अपने हिस्से के धन का उपयोग बड़े ही समझदारी से किया। उसने अपनी ज़रुरतों को सीमित रखकर सारा धन व्यापार में लगा दिया और दिन-रात मेहनत करके अपने व्यापार को कई गुणा बढ़ा लिया। अपने बुद्धिमान और संयमी भाई से उसने कोई प्रेरणा नहीं ली और अपने हिस्से में मिले अपार धन को देखकर घमण्ड से चूर हो गए। शराबखोरी, रंडीबाजी जुआ खेलना समेत सारी बुरी आदतें डाल लीं। ये सारी आदतें उसके धन के भण्डार के तेज़ी से खोखला करने लगीं। बड़े भाई ने समय रहते उसे चेत जाने को कहा, लेकिन उसकी बातें उसे विष समान प्रतीत हुईं।

ये बुरी आदतें उसे बहुत तेज़ी से बरबादी की तरफ ले गईं और एक वर्ष के अन्दर वह कंगाल हो गया। वह अपने नगर के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित सेठ का पुत्र था, इसलिए उसकी बदहाली का सब उपहास करने लगे। इधर भूखों मरने की नौबत, उधर शर्म से मुँह छुपाने की जगह नही। उसका जीना दूभर हो गया। अपने नगर में मजदूर की हैसियत से गुज़ारा करना उसे असंभव लगा तो वहाँ से दूर चला आया। मेहनत-मजदूरी करके अब अपना पेट भरता है तथा अपने भविष्य के लिए भी कुछ करने की सोचता है। धन जब उसके पास प्रचुर मात्रा में था तो मन की चंचलता पर वह अंकुश नहीं लगा सका। धन बरबाद हो जाने पर उसे सद्बुद्धि आई और ठोकरें खाने के बाद अपनी भूल का एहसास हुआ। जब राजा ने पूछा क्या वह धन आने पर फिर से मन का कहा करेगा तो उसने कहा कि ज़माने की ठोकरों ने उसे सच्चा ज्ञान दे दिया है और अब उस ज्ञान के बल पर वह अपने मन को वश में रख सकता है।

विक्रम ने तब जाकर उसे अपना असली परिचय दिया तथा उसे कई स्वर्ण मुद्राएँ देकर होशियारी से व्यापार करने की सलाह दी। उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि लग्न शीलता उसे फिर पहले वाली समृद्धि वापस दिला देगी। उससे विदा लेकर वे अपने महल लौट आए क्योंकि अब उनके पास उन तपस्विओं के विवाद का समाधान था। कुछ समय बाद उनके दरबार में वे दोनों तपस्वी समाधान की इच्छा लिए हाज़िर हुए। विक्रम ने उन्हें कहा कि मनुष्य के शरीर पर उसका मन बार-बार नियंत्रण करने की चेष्टा करता है पर ज्ञान के बल पर विवेकशील मनुष्य मन को अपने पर हावी नहीं होने देता है।

मन और ज्ञान में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है तथा दोनों का अपना-अपना महत्व है। जो पूरी तरह अपने मन के वश में हो जाता है उसका सर्वनाश अवश्यम्भावी है। मन अगर रथ है तो ज्ञान सारथि। बिना सारथि रथ अधूरा है। उन्होंने सेठ पुत्र के साथ जो कुछ घटा था उन्हें विस्तारपूर्वक बताया तो उनके मन में कोई संशय नहीं रहा। उन तपस्वियों ने उन्हें एक चमत्कारी खड़िया दिया जिससे बनाई गई तस्वीरें रात में सजीव हो सकती थीं और उनका वार्त्तालाप भी सुना जा सकता था।

विक्रम ने कुछ तस्वीरें बनाकर खड़िया की सत्यता जानने की कोशिश की तो सचमुच खड़िया में वह गुण था। अब राजा तस्वीरे बना-बना कर अपना मन बहलाने लगे। अपनी रानियों की उन्हें बिल्कुल सुधि नहीं रही। जब रानियाँ कई दिनों के बाद उनके पास आईं तो राजा को खड़िया ने चित्र बनाते हुए देखआ। रानियों ने आकर उनका ध्यान बँटाया तो राजा को हँसी आ गई और उन्होंने कहा वे भी मन के आधीन हो गए थे। अब उन्हें अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हो चुका है।
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