मोहब्बतोंं का शायर शकील बदायुनी परिचय ऐ मोहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया ये शेर कहने वाले शायर का नाम तो आप सबको पता
मोहब्बतोंं का शायर शकील बदायुनी परिचय
जाने क्यों आज तेरे नाम पे रोना आया
ये शेर कहने वाले शायर का नाम तो आप सबको पता ही होगा जी हा शकील बदायुनी | शकील बदायुनी वो शायर जो अपनी शायरी और गीतकार के तौर पर पहचाने जाते है | शकील बदायुनी शायरी के आसमान से फिल्मो की दुनिया में आये थे |
अपने चाचा के मार्गदर्शन में सिर्फ चौदह वर्ष की उम्र से आपने शेर कहना शुरू किये और अपनी उर्दू फारसी की शिक्षा बदायूं में ही पूरी की | फिर 1936 में उच्च शिक्षा के लिए आप मुंबई गए और अलीगढ यूनिवर्सिटी में शिक्षा पूरी की | अलीगढ में पढाई के समय आपने हाकिम अब्दुल वहीद अश्क बिजनोरी साहब से उर्दू शायरी की बारिकिया सीखना शुरू किया था | फिर आपके पिता के जन्नतनशीं होने के कारण आपको अपने आर्थिक हालातों से जूझने पर मजबूर कर दिया | बी.ए. करने के बाद आपने दिल्ली में राज्य सरकार के सप्लाई विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली | आप साथ-साथ शायरी भी करते और नौकरी भी |
1940 में वे सलमाजी से शादी की, जो उन्ही के दूर के रिश्तेदार भी थी। वे दोनो एक ही मकान में रहते थे बचपन से, लेकिन पर्दानशीं होने के कारण शादी से पहले दोनों का मुलाकात नहीं हुई थी |
शकील उस समय के मुशायरों में अलग ही जगमगाते थे जिस कारण से उनका व्यक्तित्व भी श्रोताओ को प्रभावित करता था | वे मुशायरों के बेहद लोकप्रिय शायर थे जिस मुशायरे में होते थे, शाइरी सुनाने के बाद सारा मुशायरा लुट ले जाते थे उनके साथ मुशायरों में 'फना निजामी', 'शेरी भोपाली', 'दिल लखनवी', 'राज मुरादाबादी', 'मजरूह सुल्तानपुरी', 'खुमार बाराबंकवी' सभी शामिल होते थे |
शकील वो शायर थे जो मुशायरों में अकेले शिरकत नहीं करते थे वे अपने साथ अपने शिष्यों और प्रंशसको का पूरा समूह ले जाते थे जिनमे 'शिफा ग्वालियरी', 'सबा अफगानी', 'कमर भुसावली' और बहुत से शायर होते थे इन सभी का खर्चे मुशायरा कमेटी वहन करती थी | सो वो थे तो बड़े महंगे शायर पर अपनी शायरी के परचम के कारण उनकी किसी मुशायरे में आना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी और बरसो जेहन में रहती थी |
निदा फाज़ली कहते है एक बार वे ग्वालियर में उनसे मिले | वे मुशायरों में गर्म सूट और टाई, ख़ूबसूरती से संवरे हुए बाल और चेहरे की आभा से वे शायर अधिक फ़िल्मी कलाकार नज़र आते थे | मुशायरा शुरू होने से पहले वे पंडाल में अपने प्रशंसकों को अपने ऑटोग्राफ से नवाज़ रहे थे उनके होंठों की मुस्कराहट कलम के लिखावट का साथ दे रही थी इस मुशायरे में ‘दाग’ के अंतिम दिनों के प्रतिष्ठित मुकामी शायरों में हज़रत नातिक गुलावटी को भी नागपुर से बुलाया गया था लंबे पूरे पठानी जिस्म और दाढ़ी रोशन चेहरे के साथ वो जैसे ही पंडाल के अंदर घुसे सारे लोग सम्मान में खड़े हो गए | शकील इन बुज़ुर्ग के स्वभाव से शायद परिचित थे, वे उन्हें देखकर उनका एक लोकप्रिय शेर पढते हुए उनसे हाथ मिलाने के लिए आगे बढे:
वो आँख तो दिल लेने तक बस दिल की साथी होती है,
फिर लेकर रखना क्या जाने दिल लेती है और खोती है.
लेकिन मौलाना नातिक इस प्रशंसा स्तुति से खुश नहीं हुए, उनके माथे पर उनको देखते ही बल पड़ गए | वे अपने हाथ की छड़ी को उठा-उठाकर किसी स्कूल के उस्ताद की तरह बरखुरदार, मियां शकील! तुम्हारे तो पिता भी शायर थे और चचा मौलाना जिया-उल-कादरी भी उस्ताद शायर थे तुमसे तो छोटी-मोटी गलतियों की उम्मीद हमें नहीं थी पहले भी तुम्हें सुना-पढ़ा था मगर कुछ दिन पहले ऐसा महसूस हुआ कि तुम भी उन्हीं तरक्कीपसंदों में शामिल हो गए हो, जो रवायत और तहजीब के दुश्मन हैं | "
भारी आवाज़ में बोल रहे थे- "
शकील इस तरह की आलोचना से घबरा गए पर वे बुजुर्गो का सम्मान करना जानते थे वे सबके सामने अपनी आलोचना को मुस्कराहट से छिपाते हुए उनसे पूछने लगे, "हज़रत आपकी शिकायत वाजिब है लेकिन मेहरबानी करके गलती की निशानदेही भी कर दें तो मुझे उसे सुधारने में सुविधा होगी"
उन्होंने कहाँ, "बरखुरदार, आजकल तुम्हारा एक फ़िल्मी गीत रेडियो पर अक्सर सुनाई दे जाता है, उसे भी कभी-कभार मजबूरी में हमें सुनना पड़ता है और उसका पहला शेर यों है:
चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो,
जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो |
'मियां इन दोनों मिसरों का वज़न अलग-अलग है पहले मिसरे में तुम लगाकर यह दोष दूर किया जा सकता था | कोई और ऐसी गलती करता तो हम नहीं टोकते, मगर तुम हमारे दोस्त के लड़के हो, हमें अजीज़ भी हो इसलिए सूचित कर रहे हैं | बदायूं छोड़कर मुंबई में भले ही बस जाओ मगर बदायूं की विरासत का तो पालन करो |'
शकील अपनी सफाई में संगीत, शब्दों और उनकी पेचीदगिया बता रहे थे उनकी दलीलें काफी सूचनापूर्ण और उचित थीं, लेकिन मौलाना ‘नातिक’ ने इन सबके जवाब में सिर्फ इतना ही कहा- "मियां हमने जो "मुनीर शिकोहाबादी" और बाद में मिर्ज़ा दाग से जो सीखा है उसके मुताबिक़ तो यह गलती है और माफ करने लायक नहीं है | हम तो तुमसे यही कहेंगे, ऐसे पैसे से क्या फायदा जो रात-दिन फन की कुर्बानी मांगे |'
उस मुशायरे में नातिक साहब को शकील के बाद अपना कलाम पढ़ने की दावत दी गई थी उनके कलाम शुरू करने से पहले शकील ने खुद माइक पर आकार कहा था - 'हज़रत नातिक इतिहास के जिंदा किरदार हैं | उनका कलाम पिछले कई नस्लों से ज़बान और बयान का जादू जगा रहा है, कला की बारीकियों को समझने का तरीका सीखा रहा है और मुझ जैसे साहित्य के नवागंतुकों का मार्गदर्शन कर रहा है | मेरी गुज़ारिश है आप उन्हें सम्मान से सुनें |'
उनके स्वभाव में उनके धार्मिक मूल्य थे | अपनी एक नज़्म ‘फिसीह उल मुल्क’ में दाग के हुज़ूर में उन्होंने "साइल देहलवी", "बेखुद", "सीमाब" और "नूह नार्वी" आदि का उल्लेख करते हुए दाग की कब्र से वादा भी किया था:
ये दाग, दाग की खातिर मिटा के छोड़ेंगे,
नए अदब को फ़साना बना के छोड़ेंगे |
शकील की शायरी में हर तरफ रात का जिक्र मिलता है ये शायर जो मोहब्बतों का शायर भी कहलाता है | अपनी हर नज्म या गज़ल में कही ना कही जिक्र कर ही लेता था | वे कई बार ये दोहराते थे :
मैं शकील दिल का हूँ तर्जुमा, कि मोहब्बतोंं का हूँ राज़दाँ
मुझे फ़ख़्र है मेरी शाइरी, मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं
उनके पहले गज़ल संग्रह "रानाईयां" में कुछ ऐसे ही शेरो की बुनियाद पर "जिगर मुरादाबादी" ने अपनी भूमिका में शकील की तारीफ में लिखा था - "इस तरह के शेर भी अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में कह दे तो मै उसे सही मायनो में शायर मानने को तैयार हूँ |"
आपकी मुख्य प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह में "धरती को आकाश पुकारे 1961, दूर कोई गए, कुल्लियात-ए-शकील 1998, नगमा-ए-फिरदौस 1948, रानाईआ 1950, रंगीनियाँ 1961, शबिस्ताँ 1958 शामिल है |
शकील बदायुनी को बेडमिंटन खेलने का बहुत शौक था और वे पिकनिक पे जाना और पतंगे उडाना भी पसंद करते थे | नौशाद, मौहम्मद रफ़ी और कभी कभी जोनी वाकर भी उनके साथ पतंगे उड़ाने आते थे | दिलीप कुमार, वजाहत मिर्ज़ा, खुमार बारंबकवी और आज़म बाजतपुरी आपके करीबी दोस्तों में से थे |
हर दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे,
हर दिल में मोहब्बत की एक आग लगा देंगे।
इस शेर को सुनकर कारदार साहब ने आपको अपनी फिल्म "दर्द" में गीत लिखने को कहा, बस फिर आपने अपना सुरीला अफसाना मुनव्वर सुल्ताना, श्याम और सुरैया की अदायगी के साथ शुरू किया |
'बैजु बावरा', 'मदर इंडिया', 'मुगल-ए-आजम', 'चौदहवी का चाँद' , 'साहब बीवी और गुलाम' जैसी कामयाब फिल्मों के गीतों ने उन्हें शौहरत की बुलंदी पर पंहुचा दिया था |
नौशाद आपके सबसे करीबी दोस्तों में से थे आप दोनों ने लगभग 20 वर्षों तक साथ काम किया | फिल्म "बैजू बावरा" आप दोनों के फ़िल्मी सफर का एक मील का पत्थर था जब निर्देशक विजय भट्ट साहब कवी प्रदीप से गीत लिखवाना चाहते थे पर नौशाद ने उन्हें एक बार शकील के लिखे गीत सुनने को कहा और वे मान गए इसके बाद की कहानी आप सब जानते है दोनों चमकते सितारे की तरह फ़िल्मी आसमान पर छा गए |
शकील बदायूँनी ने फ़िल्मी गीतकार के रूप में क़रीब तीन दशक में लगभग 90 फ़िल्मों के लिये गीत लिखे। उन्होंने अधिकतर गीत संगीतकार नौशाद के लिए ही लिखे । वर्ष 1947 में अपनी पहली ही फ़िल्म दर्द के गीत 'अफ़साना लिख रही हूँ...' की सफलता से शकील बदायूँनी शौहरत की बुलंदी पर जा बैठे। शकील बदायूँनी के लिखे गए गीतों में से कुछ बेहद प्रसिद्ध गीत :
शकील बदायूँनी को अपने गीतों के लिये लगातार तीन बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया।
वर्ष 1960 में गीत चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो के लिए (फिल्म - चौदहवीं का चांद)
वर्ष 1961 में गीत हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं के लिए (फिल्म - घराना)
वर्ष 1962 में गीत कहीं दीप जले कहीं दिल के लिए (फिल्म - बीस साल बाद)
जब शकील को टीबी हुई और उन्हें पंचगनी इलाज के लिए ले जाया गया तब नौशाद शकील की आर्थिक स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ थे तब उन्होंने शकील बदायुनी साहब को 3 फिल्मे दी और मेहनताना सामान्य से लगभग दस गुना दिया |
प्रारंभिक जीवन
शकील बदायुनी साहब का जन्म 3 अगस्त 1916 को बदायूँ में हुआ आपके पिता "मोहम्मद जमाल अहमद सोखता कादरी" बदायूं के प्रतिष्ठित विद्वान और उपदेशक थे इस कारण घर का माहोल भी शायराना और धार्मिक था | आपके पिता भी शायर थे जिनका नाम था और सोखता तखल्लुस से शेर कहते थे, चाचा "ज़िया उल कादरी नात", मंक्बत के उस्ताद शायर थे उनकी लिखी हुई "शरहे कलामे मोमिन" एक ज़माने में बहस और वाद-विवाद का विषय थी |अपने चाचा के मार्गदर्शन में सिर्फ चौदह वर्ष की उम्र से आपने शेर कहना शुरू किये और अपनी उर्दू फारसी की शिक्षा बदायूं में ही पूरी की | फिर 1936 में उच्च शिक्षा के लिए आप मुंबई गए और अलीगढ यूनिवर्सिटी में शिक्षा पूरी की | अलीगढ में पढाई के समय आपने हाकिम अब्दुल वहीद अश्क बिजनोरी साहब से उर्दू शायरी की बारिकिया सीखना शुरू किया था | फिर आपके पिता के जन्नतनशीं होने के कारण आपको अपने आर्थिक हालातों से जूझने पर मजबूर कर दिया | बी.ए. करने के बाद आपने दिल्ली में राज्य सरकार के सप्लाई विभाग में क्लर्क की नौकरी कर ली | आप साथ-साथ शायरी भी करते और नौकरी भी |
1940 में वे सलमाजी से शादी की, जो उन्ही के दूर के रिश्तेदार भी थी। वे दोनो एक ही मकान में रहते थे बचपन से, लेकिन पर्दानशीं होने के कारण शादी से पहले दोनों का मुलाकात नहीं हुई थी |
शेर-ओ-शायरी और ग़ज़ल संग्रह
सन 1942 से 1944 के बीच आपने अपनी शायरी से बहुत नाम कमाया आपकी प्रसिद्धि के पीछे सबसे बड़ा हाथ शकील के शायरी कहने के लहजे और तरन्नुम का था | यहाँ शायरी का दौर "यगाना चगेजी", "फ़िराक", "शाद आरिफी" की नई ग़ज़ल और "जोश", "फैज़" और "अख्तर उल ईमान" की नज्म में बदलाव का दौर थे नज्मो गज़लों में नए नए प्रयोग किये जा रहे थे पर शकील उसी पीढ़ी के बढते हुए शायर थे जो दाग़ के बाद चलती आ रही थी |शकील उस समय के मुशायरों में अलग ही जगमगाते थे जिस कारण से उनका व्यक्तित्व भी श्रोताओ को प्रभावित करता था | वे मुशायरों के बेहद लोकप्रिय शायर थे जिस मुशायरे में होते थे, शाइरी सुनाने के बाद सारा मुशायरा लुट ले जाते थे उनके साथ मुशायरों में 'फना निजामी', 'शेरी भोपाली', 'दिल लखनवी', 'राज मुरादाबादी', 'मजरूह सुल्तानपुरी', 'खुमार बाराबंकवी' सभी शामिल होते थे |
शकील वो शायर थे जो मुशायरों में अकेले शिरकत नहीं करते थे वे अपने साथ अपने शिष्यों और प्रंशसको का पूरा समूह ले जाते थे जिनमे 'शिफा ग्वालियरी', 'सबा अफगानी', 'कमर भुसावली' और बहुत से शायर होते थे इन सभी का खर्चे मुशायरा कमेटी वहन करती थी | सो वो थे तो बड़े महंगे शायर पर अपनी शायरी के परचम के कारण उनकी किसी मुशायरे में आना बहुत बड़ी बात हुआ करती थी और बरसो जेहन में रहती थी |
निदा फाज़ली कहते है एक बार वे ग्वालियर में उनसे मिले | वे मुशायरों में गर्म सूट और टाई, ख़ूबसूरती से संवरे हुए बाल और चेहरे की आभा से वे शायर अधिक फ़िल्मी कलाकार नज़र आते थे | मुशायरा शुरू होने से पहले वे पंडाल में अपने प्रशंसकों को अपने ऑटोग्राफ से नवाज़ रहे थे उनके होंठों की मुस्कराहट कलम के लिखावट का साथ दे रही थी इस मुशायरे में ‘दाग’ के अंतिम दिनों के प्रतिष्ठित मुकामी शायरों में हज़रत नातिक गुलावटी को भी नागपुर से बुलाया गया था लंबे पूरे पठानी जिस्म और दाढ़ी रोशन चेहरे के साथ वो जैसे ही पंडाल के अंदर घुसे सारे लोग सम्मान में खड़े हो गए | शकील इन बुज़ुर्ग के स्वभाव से शायद परिचित थे, वे उन्हें देखकर उनका एक लोकप्रिय शेर पढते हुए उनसे हाथ मिलाने के लिए आगे बढे:
वो आँख तो दिल लेने तक बस दिल की साथी होती है,
फिर लेकर रखना क्या जाने दिल लेती है और खोती है.
लेकिन मौलाना नातिक इस प्रशंसा स्तुति से खुश नहीं हुए, उनके माथे पर उनको देखते ही बल पड़ गए | वे अपने हाथ की छड़ी को उठा-उठाकर किसी स्कूल के उस्ताद की तरह बरखुरदार, मियां शकील! तुम्हारे तो पिता भी शायर थे और चचा मौलाना जिया-उल-कादरी भी उस्ताद शायर थे तुमसे तो छोटी-मोटी गलतियों की उम्मीद हमें नहीं थी पहले भी तुम्हें सुना-पढ़ा था मगर कुछ दिन पहले ऐसा महसूस हुआ कि तुम भी उन्हीं तरक्कीपसंदों में शामिल हो गए हो, जो रवायत और तहजीब के दुश्मन हैं | "
भारी आवाज़ में बोल रहे थे- "
शकील इस तरह की आलोचना से घबरा गए पर वे बुजुर्गो का सम्मान करना जानते थे वे सबके सामने अपनी आलोचना को मुस्कराहट से छिपाते हुए उनसे पूछने लगे, "हज़रत आपकी शिकायत वाजिब है लेकिन मेहरबानी करके गलती की निशानदेही भी कर दें तो मुझे उसे सुधारने में सुविधा होगी"
उन्होंने कहाँ, "बरखुरदार, आजकल तुम्हारा एक फ़िल्मी गीत रेडियो पर अक्सर सुनाई दे जाता है, उसे भी कभी-कभार मजबूरी में हमें सुनना पड़ता है और उसका पहला शेर यों है:
चौदहवीं का चाँद हो या आफताब हो,
जो भी हो तुम खुदा की कसम लाजवाब हो |
'मियां इन दोनों मिसरों का वज़न अलग-अलग है पहले मिसरे में तुम लगाकर यह दोष दूर किया जा सकता था | कोई और ऐसी गलती करता तो हम नहीं टोकते, मगर तुम हमारे दोस्त के लड़के हो, हमें अजीज़ भी हो इसलिए सूचित कर रहे हैं | बदायूं छोड़कर मुंबई में भले ही बस जाओ मगर बदायूं की विरासत का तो पालन करो |'
शकील अपनी सफाई में संगीत, शब्दों और उनकी पेचीदगिया बता रहे थे उनकी दलीलें काफी सूचनापूर्ण और उचित थीं, लेकिन मौलाना ‘नातिक’ ने इन सबके जवाब में सिर्फ इतना ही कहा- "मियां हमने जो "मुनीर शिकोहाबादी" और बाद में मिर्ज़ा दाग से जो सीखा है उसके मुताबिक़ तो यह गलती है और माफ करने लायक नहीं है | हम तो तुमसे यही कहेंगे, ऐसे पैसे से क्या फायदा जो रात-दिन फन की कुर्बानी मांगे |'
उस मुशायरे में नातिक साहब को शकील के बाद अपना कलाम पढ़ने की दावत दी गई थी उनके कलाम शुरू करने से पहले शकील ने खुद माइक पर आकार कहा था - 'हज़रत नातिक इतिहास के जिंदा किरदार हैं | उनका कलाम पिछले कई नस्लों से ज़बान और बयान का जादू जगा रहा है, कला की बारीकियों को समझने का तरीका सीखा रहा है और मुझ जैसे साहित्य के नवागंतुकों का मार्गदर्शन कर रहा है | मेरी गुज़ारिश है आप उन्हें सम्मान से सुनें |'
उनके स्वभाव में उनके धार्मिक मूल्य थे | अपनी एक नज़्म ‘फिसीह उल मुल्क’ में दाग के हुज़ूर में उन्होंने "साइल देहलवी", "बेखुद", "सीमाब" और "नूह नार्वी" आदि का उल्लेख करते हुए दाग की कब्र से वादा भी किया था:
ये दाग, दाग की खातिर मिटा के छोड़ेंगे,
नए अदब को फ़साना बना के छोड़ेंगे |
शकील की शायरी में हर तरफ रात का जिक्र मिलता है ये शायर जो मोहब्बतों का शायर भी कहलाता है | अपनी हर नज्म या गज़ल में कही ना कही जिक्र कर ही लेता था | वे कई बार ये दोहराते थे :
मैं शकील दिल का हूँ तर्जुमा, कि मोहब्बतोंं का हूँ राज़दाँ
मुझे फ़ख़्र है मेरी शाइरी, मेरी ज़िंदगी से जुदा नहीं
उनके पहले गज़ल संग्रह "रानाईयां" में कुछ ऐसे ही शेरो की बुनियाद पर "जिगर मुरादाबादी" ने अपनी भूमिका में शकील की तारीफ में लिखा था - "इस तरह के शेर भी अगर कोई व्यक्ति अपने जीवन में कह दे तो मै उसे सही मायनो में शायर मानने को तैयार हूँ |"
आपकी मुख्य प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह में "धरती को आकाश पुकारे 1961, दूर कोई गए, कुल्लियात-ए-शकील 1998, नगमा-ए-फिरदौस 1948, रानाईआ 1950, रंगीनियाँ 1961, शबिस्ताँ 1958 शामिल है |
शकील बदायुनी को बेडमिंटन खेलने का बहुत शौक था और वे पिकनिक पे जाना और पतंगे उडाना भी पसंद करते थे | नौशाद, मौहम्मद रफ़ी और कभी कभी जोनी वाकर भी उनके साथ पतंगे उड़ाने आते थे | दिलीप कुमार, वजाहत मिर्ज़ा, खुमार बारंबकवी और आज़म बाजतपुरी आपके करीबी दोस्तों में से थे |
फिल्म गीतकार के रूप में करियर
सन 1944 में शकील एक मुशायरे के लिए मुंबई आये और आपकी मुलाकात ए. आर. कारदार (अब्दुल राशिद कारदार) और नौशाद से हुई | जब नौशादजी ने उन्हे एक लाईन में अपने शायरी के बारे में कहने को कहा, तो शकील बदायुनी जी का जवाब था . . .हर दर्द का अफ़साना दुनिया को सुना देंगे,
हर दिल में मोहब्बत की एक आग लगा देंगे।
इस शेर को सुनकर कारदार साहब ने आपको अपनी फिल्म "दर्द" में गीत लिखने को कहा, बस फिर आपने अपना सुरीला अफसाना मुनव्वर सुल्ताना, श्याम और सुरैया की अदायगी के साथ शुरू किया |
'बैजु बावरा', 'मदर इंडिया', 'मुगल-ए-आजम', 'चौदहवी का चाँद' , 'साहब बीवी और गुलाम' जैसी कामयाब फिल्मों के गीतों ने उन्हें शौहरत की बुलंदी पर पंहुचा दिया था |
नौशाद आपके सबसे करीबी दोस्तों में से थे आप दोनों ने लगभग 20 वर्षों तक साथ काम किया | फिल्म "बैजू बावरा" आप दोनों के फ़िल्मी सफर का एक मील का पत्थर था जब निर्देशक विजय भट्ट साहब कवी प्रदीप से गीत लिखवाना चाहते थे पर नौशाद ने उन्हें एक बार शकील के लिखे गीत सुनने को कहा और वे मान गए इसके बाद की कहानी आप सब जानते है दोनों चमकते सितारे की तरह फ़िल्मी आसमान पर छा गए |
शकील बदायूँनी ने फ़िल्मी गीतकार के रूप में क़रीब तीन दशक में लगभग 90 फ़िल्मों के लिये गीत लिखे। उन्होंने अधिकतर गीत संगीतकार नौशाद के लिए ही लिखे । वर्ष 1947 में अपनी पहली ही फ़िल्म दर्द के गीत 'अफ़साना लिख रही हूँ...' की सफलता से शकील बदायूँनी शौहरत की बुलंदी पर जा बैठे। शकील बदायूँनी के लिखे गए गीतों में से कुछ बेहद प्रसिद्ध गीत :
Lyrics / गीत | Film Name / फिल्म | Release Year / रिलीज वर्ष | Singer / गायक | Music Composer / संगीतकार |
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अफ़साना लिख रही हूँ | दर्द | 1947 | उमा देवी | नौशाद |
चौदहवीं का चांद हो या आफ़ताब हो | चौदहवीं का चाँद | 1960 | मो. रफ़ी | रवि |
जरा नज़रों से कह दो जी निशाना चूक न जाये | बीस साल बाद | 1962 | हेमंत कुमार | हेमंत कुमार |
मधुबन में राधिका नाचे रे | कोहिनूर | 1960 | मो. रफ़ी | नौशाद |
नन्हा मुन्ना राही हूँ देश का सिपाही हूँ | सन ऑफ़ इंडिया | 1962 | शांति माथुर | नौशाद |
गाये जा गीत मिलन के | मेला | 1948 | मुकेश | नौशाद |
सुहानी रात ढल चुकी | दुलारी | 1949 | मो. रफ़ी | नौशाद |
ओ दुनिया के रखवाले | बैजू बावरा | 1952 | मो. रफ़ी | नौशाद |
मेरे महबूब तुझे, मेरी मुहब्बत की क़सम | मेरे महबूब | 1963 | मो. रफ़ी | नौशाद |
दुनिया में हम आये हैं तो जीना ही पड़ेगा | मदर इंडिया | 1957 | लता मंगेशकर | नौशाद |
जान-ए-बहार हुस्न तेरा बेमिसाल है ( with Sahir Ludhiyanvi) | प्यार किया तो डरना क्या | 1963 | मो. रफ़ी | रवि |
दो सितारों का जमीं पर है मिलन आज की रात | कोहिनूर | 1960 | मो. रफ़ी, लता मंगेशकर | नौशाद |
एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल | लीडर | 1964 | मो. रफ़ी, लता मंगेशकर | नौशाद |
प्यार किया तो डरना क्या | मुग़ल-ए-आज़म | 1960 | लता मंगेशकर | नौशाद |
ना जाओ सइयां छुड़ा के बहियां | साहब बीबी और ग़ुलाम | 1962 | Getta dutt | हेमंत कुमार |
बेक़रार करके हमें यूँ न जाइये | बीस साल बाद | 1962 | हेमंत कुमार | हेमंत कुमार |
नैन लड़ जइ हैं तो मनवामा कसक होईबे करी | गंगा जमुना | 1961 | मो. रफ़ी | नौशाद |
दिल लगाकर हम ये समझे ज़िंदगी क्या चीज़ है | ज़िंदगी और मौत | 1965 | महेंद्र कपूर | सी. रामचंद्र |
कहीं दीप जले कहीं दिल | बीस साल बाद | 1962 | लता मंगेशकर | हेमंत कुमार |
हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं | घराना | 1961 | मो. रफ़ी | रवि |
शकील बदायूँनी को अपने गीतों के लिये लगातार तीन बार फ़िल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया।
वर्ष 1960 में गीत चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो के लिए (फिल्म - चौदहवीं का चांद)
वर्ष 1961 में गीत हुस्न वाले तेरा जवाब नहीं के लिए (फिल्म - घराना)
वर्ष 1962 में गीत कहीं दीप जले कहीं दिल के लिए (फिल्म - बीस साल बाद)
जब शकील को टीबी हुई और उन्हें पंचगनी इलाज के लिए ले जाया गया तब नौशाद शकील की आर्थिक स्थिति से अच्छी तरह वाकिफ थे तब उन्होंने शकील बदायुनी साहब को 3 फिल्मे दी और मेहनताना सामान्य से लगभग दस गुना दिया |
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