पदचिह्न - अहमद निसार

लघुकथा: पदचिह्न Padchinh Short story

लघुकथा: पदचिह्न Padchinh Short story
स्कूल के बच्चों का एक दल दिल्ली भ्रमण पर आया था। साथ में अध्यापक महोदय भी थे। दल एक के बाद एक ऐतिहासिक इमारतों और स्थलों की खाक छानता घूम रहा था। मास्टर जी उसका इतिहास भी बता रहे थे और बच्चों के जिज्ञासा भरे प्रश्नों के उत्तर भी देते जा रहे थे। "बच्चों,यह है कुतुबमीनार, इसे गुलामवंश के बादशाह कुतुबद्दीन ऐबक ने बनवाया था। कई सौ वर्ष पुरानी है यह। समय के साथ साथ इस में काफी बदलाव आ चुका है। इसकी वह ऊंचाई अब नहीं रही जो कभी पहले थी।"
"यह है जामा मस्जिद। सैकड़ों वर्ष पहले मुगल बादशाह शाहजहां ने इसे बनवाया था। हालांकि समय के हाथों इसकी वह चमक दमक फीकी पड़ी है। मगर अभी भी यह कला का सुन्दर नमूना कही जाती है.......।"
"यह है लाल किला। समय की मार इस पर भी पड़ी है। मगर अभी भी इसे मुगलों की आन बान और शान का प्रतीक समझा जाता है।
"और बच्चों यह है गांधी संग्रहालय। यहां राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के जीवन से जुड़ी अनेक वस्तुएं रखी हुई हैं। जैसे यह है गांधी जी के पद चिह्न।"
चमचमाते पदचिह्नों को देखकर एक बच्चे ने पूछा, "मास्साब पदचिह्न क्या नए है।"
"नहीं बेटा, यह भी सैकड़ों वर्ष पुराने है।"
"पुराने हैं..लेकिन यह तो अब भी चमक रहे हें। क्या इन पर समय को कोई असर नहीं हुआ?"
"कैसे होता बेटा....."मास्टर जी ने ठण्डी सांस भर कर कहा....
"हम भारत वासियों ने कभी इन पर चलना गवारां ही नहीं किया।"
- अहमद निसार

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