जज्बात की आवाज - कृष्ण बिहारी नूर

जज्बात की आवाज - कृष्ण बिहारी नूर

जज्बात की आवाज

जिसका कोई नहीं उसका तो खुदा है यारो
मै नहीं कहता किताबो में लिखा है यारो
अमिताभ बच्चन की आवाज में यह शेर भारत के बच्चे-बच्चे की जुबान पर रटा हुआ है, आम आदमी की आवाज में शायरी करने वाला यह शायर कृष्ण बिहारी नूर न सिर्फ खूबसूरत जिस्म और जज्बाती दिल का मालिक था, बल्कि नूर के अभिन्न मित्र मुनव्वर राना के शब्दों में "नूर" चलता फिरता लखनऊ था | राना बड़े फख्र के साथ कहते है कि नूर जहा मौजूद होते थे लखनऊ की तहजीब, लखनऊ की नजाकत, लखनऊ का प्यार सब मौजूद होता था |

नूर के मामू जनाब गोकरण प्रसाद 'किरण' लखनवी ने पहली बार कृष्ण बिहारी नूर को मुशायरे में ग़ज़ल पढ़वाकर शायरी और साहित्य की दुनिया को एक चमचमाता सितारा दिया | किरण लखनवी से शायद लोग परिचित न हो, शुरुवाती दिनों में कृष्णबिहारी नूर ने ‘मुबारक हो तुमको सताना किसी का‘ जैसी गज़ले कही और तुलसीराम नाज लखनवी व ‘बेदार’ जैसे शायरों की सोबत में उन्हें निखारते हुए आखिर में अपने उस्ताद शायर तक ले गए | उस्ताद के मिलते ही नूर का नूर जमाने को रोशन करने लगा |

नूर साहब के शब्दों में - "वह लम्हा मेरी जिंदगी का सबसे अहम् और सबसे खुशनसीब लम्हा था, मैंने सर उठाया तो उस्ताद की आँखों में वही जानी-पहचानी सी चमक थी, जो सिर्फ अपने वालिद-ए-बुजुर्गवार की आँखों में मिलती थी | उनकी आवाज और उनके खलूस और चेहरे की ताबानी में मुझे एक ही नजर में हमेशा-हमेशा के लिए अपना बना दिया | हुक्म हुआ जिस जगह पर इस्लाह चाहते हो उसका मतला पढ़ो | मैंने हुक्म की तामील की | मै पूरी गज़ल खत्म करके रुका ही था कि फरमाने लगे मतला लिखो, शेर लिखो और उस वक्त मेरे हैरत की हद-ओ-इन्तहा न रही, जब मै एक शेर लिख नहीं पाता था और उस्ताद दूसरा शेर कहने लगते थे | आठ शेर हो गए तो उन्होंने कहा कि हां मक्ता तो तुमने कहा ही नहीं | क्या तखल्लुस है , मैंने कहा कि अभी कुछ नहीं रखा | इरशाद हुआ आज से तुम कृष्णबिहारी ‘नूर’ हो | मैंने सर-ए-तसलीम कर दिया और दूसरे दिन हाजिर-ए-खिदमत होने का वादा करके रुखसत हो गया |"
मै जानता हू कि –
वो मुझसे क्यों रूठ जाते है
वो इस तरह से भी मेरे करीब आते है
मै देवता की तरह कैद अपने मंदिर में
वो मेरे जिस्म से बाहर मेरी तलाश में है
मै जिसके हाथ में एक फुल देके आया था
उसी के हाथ का पत्थर मेरी तलाश में है
मै किस खता की सजा में हू
गुहारी जंजीरे गिरफ्त मौत की है
और जिंदगी की कैद में हूँ

नूर की शायरी का नूर गज़लों, नज्मो और गीत में है | वे साहित्य की नहीं, समाज की अमूल्य धरोहर है | नूर के गीत की लाइने है –
मुखडा क्या देखे दर्पण में
पार छिपा है जिनके मन में
एक खरा सिक्का खोटो में जैसे फुल उलझे है कांटो में
सच्चे सुख की कद्र न जाने
झूठा सुख दौलत से ख़रीदे
फिर भी नहीं कुछ भी दामन में
मुखडा क्या देखे दर्पण में

नूर पूरी उम्र फ़िराक गोरखपुरी को अपना आदर्श मानते रहे, फिराक का एक मशहूर शेर है –
तुम मुखातिब भी हो करीब हो
तुमको देखे कि तुमसे बात करे

नूर ने इस तिश्नगी को महसूस किया और एक शेर कहा-
किस तरह मै देखू भी और बाते भी करू तुझसे
आँख अपना मजा चाहे दिल अपना मजा चाहे

फ़िराक गोरखपुरी ने मोहब्बत को कुछ इस तरह पेश किया-
बे-तअल्लुक न मुझसे हो ए दोस्त
बदसलूकी तेरी मुझे मंजूर

नूर ने भी मोहब्बत के मकाम के इस पल को कुछ अपने अंदाज में बयान किया-
बे-तअल्लुकी उसकी कितनी जानलेवा है
आज हाथ में उसके न फुल है न पत्थर है

तुलसीदास की एक चोपाई है –
श्याम गौर किम कहूं बखानी
गिरह अनेन, नयन बिन बानी

इस चोपाई पर असगर गोंडवी ने शेर कहा
तेरे जलवो के आगे हिम्मत-ए-शहर-ओ-बयां रख दी
जुबाने-बे-निगह रख दी निगाहें-बे-जुबां रख दी

और एक शेर कहा नूर ने अपनी निगाहों को इस मंजर पर ठहराते हुए नूर कहते है –
हो किस तरह से बयां तेरे हुस्न का आलम
जुबां नजर तो नहीं है नजर जुबां तो नहीं

ऐसे हजार शेरो को अपने शब्दों में पिरोकर जिंदगी के हालात को बयां कर देने का काम नूर ने अपनी शायरी में किया है –
तमाम जिस्म ही घायल था घाव ऐसा था
कोई न जान सका रख-रखाव ऐसा था

नेहरूजी की मौत हो या समाज में कोई घटना हर वाकये को शब्दों का जादू दिखाते रहे | नेहरुजी की मौत पर कहा गया शेर था –
माह-ओ-साल शहीद है एक सदी महक उठी
यु भी फैलते देखी एक गुलाब की खुशबु

शायरी के अपने शुरुवाती दौर का जिक्र करते नूर कहते है एक बात यह भी की उस्ताद मोहतरम को ग़ज़ल कहकर देने की जहमत उसी वक्त देता जब मै अपने को बिलकुल ही बेबस पाता | यह बेबसी उसी वक्त की कमी हो या तरह-तरह की दुश्वारी के सबब से हो और चाहे अच्छी ग़ज़ल पाने की ललक की हो | जहा तक मुझसे बन पड़ता, मै खुद ही शेर कहता, भले ही बज्म से गिरे होते, उलटी सीधी तरकीबो से भरे होते, घिसे-पिटे फर्सुदा ख्याल लिए होते, मगर ग़ज़ल होती थी और मतले से मकते तक होती थी | उस्ताद की देख-रेख में अब इतना हो गया था की ग़ज़ल कहने में उतनी दुश्वारी नहीं होती थी, जितनी शुरू के जमाने में होती थी | 1948 में उस्ताद-ए-मोहतरम की खिदमत में मैंने एक ग़ज़ल पेश की, जिसके मतले पर उन्होंने 4 आना जुर्माना कर दिया | मतला यह था कि –
तेरी मुस्कुराहटे छीनकर जो चमन में गुंचे बिखर गए
तो ये इंतियाज़ न हो सका वो बिगड गए या सवार गए

जाहिर है गलती का अहसास होता तो गलती करता ही क्यों ? मुजरिमो की तरह सर झुका लिया और गलती बता देने की इल्तिजा की | हुकुम हुआ 4 आना निकल लीजिए | मैंने चुपके से मेज पर 16 पैसे रख दिए | फरमाने लगे सुनो देसरे मिसरे में ‘या’ की वजह से मिसरा ना मौजू हो गया है ‘या’ की जगह ‘की’ कर लो ! एब गायब हो गया और मतला साफ़ नजर आने लगा | पूरी ग़ज़ल सुनने के बाद हुक्म हुआ कि मेरे करीब आओ, मै पास गया तो मेरी पीठ ठोकी व शाबासी देते हुए कहा कि आज मै तुम्हारी ग़ज़ल से बहुत खुश हुआ | मेरी बायीं जेब में जितने पैसे हो, निकाल लो | यह तुम्हारा इनाम है | इनाम में कुछ भी हो, किसी किस्म का भी हो, उसकी कीमत के बारे में सोचना बड़ी कम निगाही होती है | मगर दिल चाहता है कि मै आपको यह बता दू कि मुझे उनकी जेब से उस रकम से कही ज्यादा रकम मिली, जो मैंने चार-चार आने, जुर्माने के तौर पर आज तक जुदा-जुदा गलतियों के सरजद होने पर उस्ताद की खिदमत में हाजिर की थी | चंद अशआर को छोड़कर मुझे अपना कलाम ऐसा नहीं लगता कि जिसे मै अपना कहकर फख्र महसूस कर सकू |
आगे का हाल अगले आलेख में....
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