तुम जो आ जाओ आज दिल्ली में - मखदूम मोहिउद्दीन

मखदूम साहब का यह कलाम ग़ालिब को नज्र है |
"ग़ालिब"

तुम जो आ जाओ आज दिल्ली में

तुम जो आ जाओ आज दिल्ली में
खुद को पाओगे अजनबी की तरह

तुम फिरोगे भटकते रास्तो में
इक बेचेहरा जिंदगी की तरह

दिन है दस्ते ख़सीस की मानिंद
रात है दामने-तह की तरह

पंजा ज़रगिरी वो ज़र गेरी
आम है रस्मे रहज़नी की तरह

आज हर मयकदे में है कोहराम
हर गली है तेरी गली की तरह

वो जुबान जिस का नाम है उर्दू
उठ न् जाए कही खुशी की तरह

हमज़ुबा कुछ इधर उधर साए
नज़र आएँगे आदमी की तरह

तुम थे अपनी शिकस्त की आवाज़
आज सब चुप है मुन्सफी की तरह

आ रही है निदा बहारो से
इक गुमनाम रौशनी की तरह

इस अँधेरे में इक रुपहली लकीर
इक आवाज़े-हक़ नबी की तरह- मखदूम मोहिउद्दीन
मायने
ख़सीस = कंजूस का हाथ, ज़रगिरी = सुनार का व्यवसाय, रस्मे रहज़नी = लूटने वाले की रीत, हमज़ुबां = समविचारक, शिकस्त = हार, निदा बहारो = बसंत-ध्वनि


tum jo aa jao aaj Dilli me

"Ghalib"
tum jo aa jao aaj Dilli me
khud ko paaoge ajnabi ki tarah

tum firoge bhatkate raasto me
el bechehra jindgi ki tarah

din hai daste khasis ki maanind
raat hai daamne-tah ki tarah

panja zargiri wo zar geri
aam hai rasme rahjani lo tarah

aaj har maykade me hai kohraam
har gali hai teri gali ki tarah

wo jubaan jis ka naam hai Urdu
uth n jaae kahi khushi ki tarah

hamjubaan kuch idhar udhar saaye
nazar aaenge aadmi ki tarah

tum the apni shikst ki aawaz
aaj sab chup hai munsif ki tarah

aa rahi hai nidaa bahaaro se
ek gumnaam roshni ki tarah

is andhere me ek ruphali lakeer
ek aawaze-haq nabi ki tarah- Makhdoom Mohiuddin

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