मै कौन हू – मेरा बाप कौन था? ये सवाल ग्वालियर के एक मुहल्ले में कुछ दशको पहले सुने थे | इन सवालो का संबोधन अधेड़ उम्र की एक महिला फातिमा जुबै...
मै कौन हू – मेरा बाप कौन था? ये सवाल ग्वालियर के एक मुहल्ले में कुछ दशको पहले सुने थे | इन सवालो का संबोधन अधेड़ उम्र की एक महिला फातिमा जुबैर से था | वो एक स्थानीय गर्ल्स हाई स्कूल में टीचर थी, इन सवालों को पूछने वाला एक नौजवान शायर था शमीम फ़रहत |
फातिमा जुबैर जिनको सब फातिमा आपा कहते थे, उस शायर की माँ थी | इस महिला की तीसरी नस्ल पीछे ग़ालिब के समकालीन मोमिन खां मोमिन का नाम था | वह आजाद मिजाज़ और उस समय ग्वालियर के अदबी समाज की एक सक्रीय शख्सियत थी | खुद तो शायरी करती नहीं थी, लेकिन उनका साहित्यिक शौक और अध्ययन ऐसा था कि शहर के छोटे-बड़े उनकी आलोचना और प्रशंसा को सनद का दर्जा देते थे | वो उस समय दो जवान बेटियों और दो बेटो की माँ थी | ये दोनों बेटे शायर थे | बड़े का नाम निसार परवेज था और छोटे का शमीम फ़रहत था | बड़ी-बड़ी आँखों, लंबे कद और घुंघराले बलों वाला ये शायर जहा जाता था, लोगो की तवज्जो का केन्द्र बन जाता था | उन दिनों एक बड़ी खूबसूरत लड़की से उसके इश्क के चर्चे भी लोगो की जुबान पर थे |
फातिमा आपा, जुबैर अहमद नाम के एक शख्स की बेगम थी, लेकिन वह मशहूर शायर जानिसार अख्तर की दोस्ती से पहचानी जाती थी | इस रिश्ते का जिक्र साफिया अख्तर के उन खतों में महफूज़ हाई जो उन्होंने शादी से पहले अपने होने वाले पति जानिसार अख्तर को लिखे थे | इन खातों को जानिसार ने बाद में हर्फ़ आशना और जेरे लब के नाम से दो खंडों में छपवाया था | पत्रों के इन संकलनो में केन्द्रीय किरदार तो शादी से पहले की साफिया और जानिसार ही थे, लेकिन इनके इर्द-गिर्द जो दूसरे छोटे-बड़े पात्र हाई, उनमे फातिमा आपा भी शामिल है | इन पुस्तकों को ज्यादा दिलचस्प बनाने के लिए इनमे भूमिका भी फातिमा आपा से लिखवाई गई थी |
जुबैर साहब सीधे-सादे आदमी थे | घर, बच्चो और नौकरी तक उनकी दुनिया सीमित थी | पत्नी के अदबी शौक और महफ़िल आराई और जानिसार से उनके रिश्ते की रुसवाई ने जब घर के सुख को बेसुकुं कर दिया, तो वो एक दिन ख़ामोशी से गायब हो गए | बहुत तलाश किया मगर कही सुराग नहीं मिला | काफी अरसा गुजर जाने के बाद जब फातिमा आपा जवान से बूढी हो चुकी थी, लड़के जवान होकर शायर बन चुके थे | एक दिन अचानक जाहिर हुए बीमार हालत में और कुछ दिन अपनी बड़ी बेटी के साथ रहकर अपनी नाराजगी के साथ हमेशा के लिए दौबारा गायब हो गए -
‘जाने वालो से राब्ता रखना
दोस्तों रस्मे फ़ातिहा रखना’
शमीम के बड़े भाई निसार परवेज अपनी चाल-ढाल और रूप-रंग से जवानी के दिनों के जानिसार दिखाई देते थे, वही आधी सोई आधी जागी आँखे वही दरमियानी कद और बिखरे-बिखरे बाल | शेर सुनते वक्त भी उन पर अख्तर साहब का धोखा होता था, उन्हें देखकर अमृता प्रीतम की एक किताब रसीदी टिकट की याद आ जाति थी | अमृता जी ने अपनी जीवनी में लिखा है… जब उनके बेटे ने उनसे पूछा कि उसका चेहरा साहिर से क्यों मिलता है, क्या वही… ! जवाब में उन्होंने कहा नहीं, यह सच नहीं है, तुम्हारा चेहरा साहिर से शायद इसलिए मिलता है कि जब तुम मेरे पेट में थे तब साहिर मेरे दिमाग में रहता था | जबकि शमीम फ़रहत तो निसार परवेज कि तरह अख्तर से नहीं मिलते थे, उनका चेहरा माँ पर गया था | जानिसार से उनका रिश्ता पसंद-नापसंद की कश्मकश का शिकार था | वो दिन में जानिसार और उनकी शायरी के प्रशंसक होते थे, लेकिन सूरज डूबता ही वो दिन में जिसे पसंद करते थे उसी को प्रश्नों का निशाना बनाते थे और अपनी माँ को बढती उम्र में रुलाते थे | यह ड्रामा वो हफ्ते में दो-तीन बार जरुर करते थे | उनका मकसद माँ को सताना होता था, अपनी वलदियत का पता लगाना होता था -दोस्तों रस्मे फ़ातिहा रखना’
‘तुम्हारी याद कि ठंडक भिगो रही थी अभी
नदी के पास कही शाम हो रही थी अभी
नदी के पास कही शाम हो रही थी अभी
वो जिंदगी जिसे समझा था कहकहा सबने
हमारे पास खड़ी थी तो रो रही थी अभी’
हमारे पास खड़ी थी तो रो रही थी अभी’
रोटी हुई जिंदगी को बहलाने के लिए उन्होंने शराब का सहारा लिया | फातिमा आपा के रहने तक थोड़ी बहुत पाबंदी थी, उनके बाद चाँद-सूरज का अंतर खत्म हो चूका था | ग्वालियर आने से पहले वह जावरा में अपनी बड़ी बहन के साथ थे, वही से उन्होंने बीए किया |
शमीम के शेर पढ़ने का अंदाज काफी पुर असर था | जिस सभा में होते उसमे छा जाते थे | फातिमा आपा के देहांत के बाद उन्ही के स्कूल में टीचर हो गए थे, काफी अकेले रहते थे, स्कूल के चंद घंटो के बाद बाकी का सारा वक्त इसी शौक में गुजरता था | शहर से दूर एक पहाड़ी पर मकान बनवा लिया था, उसी में महफ़िल सजाते थे | यार-दोस्तों में पीते-पिलाते थे और इस तरह कभी शेर लिखकर कभी स्वयं को भुलाकर समय बिताते थे |
माँ के देहांत से पहले इलाज के लिए उन्हें मुंबई लाए थे | मुंबई में उनसे मुलाकात हुई तो लड़ता-झगडता, चीखता-चिल्लाता, माँ से हर रात सवाल पूछकर उन्हें सताने वाला शमीम आंसुओ का पेड़ बन गया था | हल्का सा झोका लगने से भी बरसना शुरू कर देता था | उसे माँ से बेहद प्यार था… वो उन्हें खोना नहीं चाहता था, सुबह से शाम तक माँ के पलंग से लगा रहता था |
जन्म का वर्ष 1934 था | जीवन के 51 साल पुरे करके 1985 में 19 अगस्त कि एक रात अकेले घर में थोड़ी-सी किताबो, खाली-भरी बोतलों, थोड़ी-सी बीडियो और सिगरेटो के बीच मरे हुए पाए गए |
उनके इंतकाल के बाद उनके एक दोस्त ने अपनी याददाश्त और घर में मिले कुछ कागज के टुकडो और दीवारों पर लिखे शेरो से उनका एक संकलन देवनागरी में ‘दिनभर की धुप’ के नाम से छापा…
‘वो आदमी है रंग का, खुशबू का
कैसे मुकाबला करे दिन भर की धुप का’
शमीम फ़रहत एक ज़हीन शायर थे लेकिन उनकी जहानत को उन्ही की मनोवैज्ञानिक पेचीदगियो ने पनपने नहीं दिया | – निदा फाज़लीकैसे मुकाबला करे दिन भर की धुप का’
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