दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया - नासिर काज़मी

दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया

दयार-ए-दिल की रात में चराग़ सा जला गया
मिला नहीं तो क्या हुआ वो शक़्ल तो दिखा गया

जुदाइयों के ज़ख़्म दर्द-ए-ज़िंदगी ने भर दिये
तुझे भी नींद आ गई मुझे भी सब्र आ गया

ये सुबह की सफ़ेदियाँ ये दोपहर की ज़र्दियाँ
अब आईने में देख़ता हूँ मैं कहाँ चला गया

पुकारती हैं फ़ुर्सतें कहाँ गई वो सोहबतें
ज़मीं निगल गई उन्हें या आसमान खा गया

वो दोस्ती तो ख़ैर अब नसीब-ए-दुश्मनाँ हुई
वो छोटी-छोटी रंजिशों का लुत्फ़ भी चला गया

ये किस ख़ुशी की रेत पर ग़मों को नींद आ गई
वो लहर किस तरफ़ गई ये मैं कहाँ समा गया

गये दिनों की लाश पर पड़े रहोगे कब तलक
उठो अमलकशो उठो कि आफ़ताब सर पे आ गया- नासिर काज़मी
मायने
दयार-ए-दिल = ह्रदय स्थल, नसीब-ए-दुश्मना = शत्रुओ का भाग्य, सुह्बते = संगत/मित्रता, अलमकशो = दुःख झेलने वालो, आफताब = सूरज


dayar-e-dil ki raat mein charagh sa jala gaya

dayar-e-dil ki raat mein charagh sa jala gaya
mila nahin to kya hua wo shakl to dikha gaya

wo dosti to khair ab nasib-e-dushmanan hui
wo chhoti chhoti ranjishon ka lutf bhi chala gaya

judaiyon ke zakhm dard-e-zindagi ne bhar diye
tujhe bhi nind aa gai mujhe bhi sabr aa gaya

pukarti hain fursaten kahan gain wo sohbaten
zamin nigal gai unhen ki aasman kha gaya

ye subh ki safediyan ye dopahar ki zardiyan
ab aaine mein dekhta hun main kahan chala gaya

ye kis khushi ki ret par ghamon ko nind aa gai
wo lahr kis taraf gai ye main kahan sama gaya

gae dinon ki lash par pade rahoge kab talak
alam-kasho utho ki aaftab sar pe aa gaya - Nasir Kazmi

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