कोई दिन गर ज़िंदगानी और है - मिर्ज़ा ग़ालिब

कोई दिन गर ज़िंदगानी और है

कोई दिन गर ज़िंदगानी और है
अपने जी में हम ने ठानी और है

आतिश-ए-दोज़ख़ में ये गर्मी कहाँ
सोज़-ए-ग़म-हा-ए-निहानी और है

बार-हा देखी हैं उन की रंजिशें
पर कुछ अब के सरगिरानी और है

दे के ख़त मुँह देखता है नामा-बर
कुछ तो पैग़ाम-ए-ज़बानी और है

क़ाता-ए-एमार है अक्सर नुजूम
वो बला-ए-आसमानी और है

हो चुकीं 'ग़ालिब' बलाएँ सब तमाम
एक मर्ग-ए-ना-गहानी और है - मिर्ज़ा ग़ालिब
मायने
आतिश-ए-दोज़ख़ = नरक की आग, सोज़-ए-ग़महा-ए-निहानी = निहित ग़म की गर्मी, मर्ग-ए-नागहानी = आकस्मिक मृत्यु


koi din gar zindagani aur hai

koi din gar zindagani aur hai
apne ji mein hum ne Thani aur hai

aatish-e-dozaKH mein ye garmi kahan
soz-e-gham-ha-e-nihani aur hai

bar-ha dekhi hain un ki ranjishen
par kuchh ab ke sargirani aur hai

de ke KHat munh dekhta hai nama-bar
kuchh to paigham-e-zabani aur hai

qata-e-emar hai aksar nujum
wo bala-e-asmani aur hai

ho chukin 'ghalib' balayen sab tamam
ek marg-e-na-gahani aur hai - Mirza Ghalib

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