दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ - मिर्ज़ा ग़ालिब

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ

दर्द मिन्नत-कश-ए-दवा न हुआ
मैं न अच्छा हुआ बुरा न हुआ

जमा करते हो क्यूँ रक़ीबों को
इक तमाशा हुआ गिला न हुआ

हम कहाँ क़िस्मत आज़माने जाएँ
तू ही जब ख़ंजर-आज़मा न हुआ

कितने शीरीं हैं तेरे लब कि रक़ीब
गालियाँ खा के बे-मज़ा न हुआ

है ख़बर गर्म उन के आने की
आज ही घर में बोरिया न हुआ

क्या वो नमरूद की ख़ुदाई थी
बंदगी में मिरा भला न हुआ

जान दी दी हुई उसी की थी
हक़ तो यूँ है कि हक़ अदा न हुआ

ज़ख़्म गर दब गया लहू न थमा
काम गर रुक गया रवा न हुआ

रहज़नी है कि दिल-सितानी है
ले के दिल दिल-सिताँ रवाना हुआ

कुछ तो पढ़िए कि लोग कहते हैं
आज 'ग़ालिब' ग़ज़ल-सरा न हुआ - मिर्ज़ा ग़ालिब
मायने
मिन्नत-कश-ए-दवाा = दवा को दर्द ने स्वीकार न किया, खंजर-आजमा = तुने ही खंजर को काट न अजमाया, शिरी = मधुर, रकीब = प्रतिद्वंदी, नरूद = एक बादशाह जो स्वयं को खुदा कहता था


dard minnat-kash-e-dawa na hua

dard minnat-kash-e-dawa na hua
main na achchha hua bura na hua

jama karte ho kyun raqibon ko
ek tamasha hua gila na hua

hum kahan qismat aazmane jaen
tu hi jab khanjar-azma na hua

kitne shirin hain tere lab ki raqib
galiyan kha ke be-maza na hua

hai khabar garm un ke aane ki
aaj hi ghar mein boriya na hua

kya wo namrud ki khudai thi
bandagi mein mera bhala na hua

jaan di di hui usi ki thi
haq to yun hai ki haq ada na hua

zakhm gar dab gaya lahu na thama
kaam gar ruk gaya rawa na hua

rahzani hai ki dil-sitani hai
le ke dil dil-sitan rawana hua

kuchh to padhiye ki log kahte hain
aaj 'ghaalib' ghazal-sara na hua - Mirza Ghalib

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