डॉ. कलीम आजिज़ - शायरी में नये लहजे की इजाद डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री कलीम आजिज़ का असल नाम कलीम अहमद था । 11अक्टूबर 1926 को उनकी पैदाइश हुई ...
डॉ. कलीम आजिज़ - शायरी में नये लहजे की इजाद
डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़रीकलीम आजिज़ का असल नाम कलीम अहमद था । 11अक्टूबर 1926 को उनकी पैदाइश हुई और 14 फरवरी 20 अप्रैल 2015 को वह इस संसार से रुखसत हो गए । बिहार के नालंदा में एक तेल्हाड़ा गांव है, जहां उनका आबाई (खानदानी) घर है । उन्होंने पटना यूनिवर्सिटी से पीएचडी की उपाधि ली और वहीं उर्दू विभाग में लेक्चरर के तौर पर अपनी सेवाएं दीं । कॉलेज में पढ़ने के दौरान ही उनकी शायरी के प्रति दिलचस्पी बढ़ी और फिर यह सिलसिला लगातार चलने लगा ।
जहां तक शायरी की बात है वह उर्दू दुनिया में दूसरे मीर के नाम से जाने गए । मीर वह शायर हैं जिसे मिर्ज़ा ग़ालिब भी अपना उस्ताद मानते थे, गालिब ने कहा था -
रेख़्ता के तुम्हीं उस्ताद नहीं हो ग़ालिब
सुना है अगले जमाने में कोई मीर भी था ।
जाहिर है जब कलीम आजिज़ को दूसरा मीर कहा गया तो इससे उनके कद और कामत का पता चलता है । 1975 में प्रकाशित उनके गजलों का संग्रह वो जो शायरी का सबब हुआ, इतना लोकप्रिय हुआ कि उसकी गजलें हर खासो -आम की जबान पर स्थाई रूप से रहने लगीं । उनकी प्रसिद्ध किताबों में जब फसले बहारां आई थीं, अभी सुन लो मुझसे का जिक्र भी उर्दू दुनिया में सम्मान के साथ लिया जाता है । ऐसा नहीं है कि उन्होंने शायरी ही लिखी उनके गद्य की मजलिसे अदब जैसी बहुत सारी किताबें हैं, लेकिन एक मशहूर शायर के तौर पर पूरी दुनिया में उन्हें अधिक जाना और पहचाना गया ।
डॉ. कलीम आजिज़ क्लासिकल शायरी के लिए जाने जाते हैं । उनका अपना लबो लहजा है । असल में उनकी शायरी कोई कल्पना की उपजी हुई वस्तु नहीं है बल्कि उनकी शायरी में जो दर्द है, वह उनका भोगा हुआ यथार्थ है, इसलिए उनकी शायरी हमारे दिल में किसी झरने सी उतरती हुई चली जाती है ।
सन 1946 में जो तेल्हाड़ा में दंगा हुआ, उसमें कलीम आजिज़ की मां और बहन समेत खानदान के बाइस लोग मार डाले गये । इस दंगे के बाद जो बच गए थे सब पाकिस्तान रवाना हो गये, पर कलीम आजिज़ को अपने वतन से इतनी मोहब्बत थी कि उन्होंने मुल्क को छोड़कर जाना गवारा नहीं किया । यहां यह बताना इसलिए जरूरी था कि कलीम आजिज़ की शायरी में जो विभाजन का दर्द और अपने लोगों के खोने की जो पीड़ा है, वो कोई थोपा नहीं हुआ है ।
स्वयं कलीम आजिज़ के शब्दों में-
ये जो शायरी का सबब हुआ ये मामला भी अजब हुआ
मैं गजल सुनाऊं हूं इसलिए कि जमाना उसको भुला ना दे
अपने खास लहजे की शायरी के लिए कलीम आजिज़ पूरी दुनिया में जाने और पहचाने गए । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उन्हें काफी शोहरत और इज्जत मिली । उन्हें सरकारी सम्मान भी कम नहीं मिला । भारत सरकार ने जहां उन्हें पद्मश्री की उपाधि दी तो बिहार सरकार ने उन्हें अपने उर्दू सलाहकार समिति का अध्यक्ष बनाया । यह अलग बात है कि शासन से रुष्ट कलीम आजिज़ बार-बार आग्रह पर भी पद्मश्री की उपाधि लेने नहीं गए, जिसे बाद में भटकते हुए डाक के माध्यम से किसी तरह उनके पास पहुंचा दिया गया । डॉ. कलीम आजिज़ साठ -सत्तर के दशक के बिहार के अकेले ऐसे शायर थे जो लाल किला दिल्ली के मुशायरे में शरीक होते थे । 1976 में उनके पुस्तक का लोकार्पण तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति के द्वारा किया गया था ।
प्रोफेसर कलीम आजिज़ की शायरी में अपनी खास शैली और अलाहिदा अंदाज के कारण उनके ज्यादातर शेर लोगों की जबान पर चढ़ते चले गए, फिर उनकी यह मशहूर गजल तो कलीम आजिज़ की पहचान ही बन गई-
दिन एक सितम एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो दुश्मन को मगर मात करो हो
दामन पे कोई छींट ना खंजर पर कोई दाग
तो कत्ल करो हो कि करामात करो हो
ये वो गजल थी जो आपातकाल के समय लिखी गई थी, और सीधे-सीधे उनका यह शेर कातिल के करामात की निशानदेही कर रहा था । यही वह समय था जब हिंदी में दुष्यंत ने 'साये में धूप' लिखकर हिंदी पट्टी में धूम मचा दी थी ।
पूरी उर्दू शायरी में कलीम आजिज़ की नाराजगी झलकती है । उनकी नाराजगी ये बेसबब नहीं है । उनके दिल में अपने खानदान के खोने और देश के बंटवारे का गम हमेशा मौजूद रहा । उनकी शायरी ही नहीं उनकी आवाज में भी एक टीस होती थी । जिस दर्द की अपनी वजह भी थी स्वयं कई कलीम आजिज़ के कौल है कि -
ये आंसू बेसबब जारी नहीं है
मुझे रोने की बीमारी नहीं है
कलीम आजिज़ की शायरी का यह जलवा था कि किसी भी शायर को ना पसंद करने वाले रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी भी उनकी गजलगोई के मुरीद थे । कलीम आजिज़ ने गजल को अपने खून से सींचा था इसलिए उन्होंने जो कहा वह शायरी किसी और से नहीं कही गई । बक़ौल कलीम आजिज़ -
ये तर्ज़े खास है कोई कहां से लाएगा
जो हम कहेंगे किसी से कहा न जाएगा
डॉ. कलीम आजिज़ शायरी में अपने प्रयोग के लिए भी जाने जाते हैं । हम कह सकते हैं कि उर्दू शायरी में नई शैली का इजाद कलीम आजिज़ से होता है । कुछ शेर देखें -
रखना है कहीं पांव तो रक्खो है कहीं पांव
चलना जरा आया है तो इतराये चलो हो
.......
मरना तो बहुत सहल सी एक बात लगे है
जीना तो मोहब्बत में करामात लगे है
.......
गरज किसी से न यह दोस्तों कभू रखियो
बस अपने हाथ यहां अपनी आबरू रखियो
कहना ना होगा कि कलीम आजिज़ एक क्लासिकल शायर थे । उनकी शायरी में खून, कत्ल, दामन और दमन की बात बार-बार आती है । कलीम आजिज़ को मुशायरों में चाहने वाला भी एक बड़ा वर्ग था । वह जहां होते थे मुशायरा की कामयाबी की गारंटी होती थी । वह अपने मिजाज के शायर थे । एक बार मैंने गांधी मैदान बेगूसराय के मुशायरे में उन्हें अपनी पसंद की कोई खास गजल सुनाने को कहा तो वो नाराज हो गए थे । उनकी गजल का कुछ जादू ऐसा था, कि कलीम आजिज़ को खुद कहना पड़ा-
बयां जब कलीम अपनी हालत करे है
गजल क्या पढ़े है कयामत करे है
यह भी अजीब बात है कि पूरी उर्दू हिंदी शायरी में जाना जाने वाला यह शायर भेदभाव का भी शिकार हुआ । उर्दू जबानो अदब की तारीख़ लिखते हुए उन्हें वह तरजीह नहीं दी गई जो मिलनी चाहिए । वह बिहार में भी किसी पाठ्यपुस्तक का हिस्सा नहीं बन सके । इंटरमीडिएट के उर्दू पाठ्यक्रम को छोड़ भी दें तो नवम और दशम वर्ग के पाठ्य पुस्तक में भी उनका नामोनिशान नहीं है । उर्दू की नवम वर्ग की किताब में तईस और दशम वर्ग के पाठ्य पुस्तक में इक्कीस शायर शामिल हैं । इन दोनों वर्ग में सात शायर बिहार के हैं, पर कलीम अजीज वहां नदारद हैं । यह भी अजीब इत्तेफाक है कि शाद अज़ीमाबादी, जमील मज़हरी समेत यह तमाम के तमाम के तमाम शायर शहर पटना के हैं, तो क्या यह मान लेना चाहिए कि पटना के बाहर बिहार के दिगर हिस्सों में अच्छी शायरी नहीं हो रही है।
बहरकैफ कलीम आजिज़ जैसे शायर पर इस युग को नाज है । उनका कद इतना बड़ा है कि इन छोटी चीजों से वह छोटे नहीं होते । पूरी दुनिया में यह एक अकेला शायर है जिसकी शायरी कलम से नहीं जिगर के खून से लिखी गई है । इसलिए हर दुखी और षड्यंत्र का शिकार आदमी उनके अशआर में अपनी उपस्थिति पाता है ।
9934847941, 6205200000
डॉ. कलीम आजिज़ क्लासिकल शायरी के लिए जाने जाते हैं । उनका अपना लबो लहजा है । असल में उनकी शायरी कोई कल्पना की उपजी हुई वस्तु नहीं है बल्कि उनकी शायरी में जो दर्द है, वह उनका भोगा हुआ यथार्थ है, इसलिए उनकी शायरी हमारे दिल में किसी झरने सी उतरती हुई चली जाती है ।
सन 1946 में जो तेल्हाड़ा में दंगा हुआ, उसमें कलीम आजिज़ की मां और बहन समेत खानदान के बाइस लोग मार डाले गये । इस दंगे के बाद जो बच गए थे सब पाकिस्तान रवाना हो गये, पर कलीम आजिज़ को अपने वतन से इतनी मोहब्बत थी कि उन्होंने मुल्क को छोड़कर जाना गवारा नहीं किया । यहां यह बताना इसलिए जरूरी था कि कलीम आजिज़ की शायरी में जो विभाजन का दर्द और अपने लोगों के खोने की जो पीड़ा है, वो कोई थोपा नहीं हुआ है ।
स्वयं कलीम आजिज़ के शब्दों में-
ये जो शायरी का सबब हुआ ये मामला भी अजब हुआ
मैं गजल सुनाऊं हूं इसलिए कि जमाना उसको भुला ना दे
अपने खास लहजे की शायरी के लिए कलीम आजिज़ पूरी दुनिया में जाने और पहचाने गए । अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी उन्हें काफी शोहरत और इज्जत मिली । उन्हें सरकारी सम्मान भी कम नहीं मिला । भारत सरकार ने जहां उन्हें पद्मश्री की उपाधि दी तो बिहार सरकार ने उन्हें अपने उर्दू सलाहकार समिति का अध्यक्ष बनाया । यह अलग बात है कि शासन से रुष्ट कलीम आजिज़ बार-बार आग्रह पर भी पद्मश्री की उपाधि लेने नहीं गए, जिसे बाद में भटकते हुए डाक के माध्यम से किसी तरह उनके पास पहुंचा दिया गया । डॉ. कलीम आजिज़ साठ -सत्तर के दशक के बिहार के अकेले ऐसे शायर थे जो लाल किला दिल्ली के मुशायरे में शरीक होते थे । 1976 में उनके पुस्तक का लोकार्पण तत्कालीन महामहिम राष्ट्रपति के द्वारा किया गया था ।
प्रोफेसर कलीम आजिज़ की शायरी में अपनी खास शैली और अलाहिदा अंदाज के कारण उनके ज्यादातर शेर लोगों की जबान पर चढ़ते चले गए, फिर उनकी यह मशहूर गजल तो कलीम आजिज़ की पहचान ही बन गई-
दिन एक सितम एक सितम रात करो हो
वो दोस्त हो दुश्मन को मगर मात करो हो
दामन पे कोई छींट ना खंजर पर कोई दाग
तो कत्ल करो हो कि करामात करो हो
ये वो गजल थी जो आपातकाल के समय लिखी गई थी, और सीधे-सीधे उनका यह शेर कातिल के करामात की निशानदेही कर रहा था । यही वह समय था जब हिंदी में दुष्यंत ने 'साये में धूप' लिखकर हिंदी पट्टी में धूम मचा दी थी ।
पूरी उर्दू शायरी में कलीम आजिज़ की नाराजगी झलकती है । उनकी नाराजगी ये बेसबब नहीं है । उनके दिल में अपने खानदान के खोने और देश के बंटवारे का गम हमेशा मौजूद रहा । उनकी शायरी ही नहीं उनकी आवाज में भी एक टीस होती थी । जिस दर्द की अपनी वजह भी थी स्वयं कई कलीम आजिज़ के कौल है कि -
ये आंसू बेसबब जारी नहीं है
मुझे रोने की बीमारी नहीं है
कलीम आजिज़ की शायरी का यह जलवा था कि किसी भी शायर को ना पसंद करने वाले रघुपति सहाय फिराक गोरखपुरी भी उनकी गजलगोई के मुरीद थे । कलीम आजिज़ ने गजल को अपने खून से सींचा था इसलिए उन्होंने जो कहा वह शायरी किसी और से नहीं कही गई । बक़ौल कलीम आजिज़ -
ये तर्ज़े खास है कोई कहां से लाएगा
जो हम कहेंगे किसी से कहा न जाएगा
डॉ. कलीम आजिज़ शायरी में अपने प्रयोग के लिए भी जाने जाते हैं । हम कह सकते हैं कि उर्दू शायरी में नई शैली का इजाद कलीम आजिज़ से होता है । कुछ शेर देखें -
रखना है कहीं पांव तो रक्खो है कहीं पांव
चलना जरा आया है तो इतराये चलो हो
.......
मरना तो बहुत सहल सी एक बात लगे है
जीना तो मोहब्बत में करामात लगे है
.......
गरज किसी से न यह दोस्तों कभू रखियो
बस अपने हाथ यहां अपनी आबरू रखियो
कहना ना होगा कि कलीम आजिज़ एक क्लासिकल शायर थे । उनकी शायरी में खून, कत्ल, दामन और दमन की बात बार-बार आती है । कलीम आजिज़ को मुशायरों में चाहने वाला भी एक बड़ा वर्ग था । वह जहां होते थे मुशायरा की कामयाबी की गारंटी होती थी । वह अपने मिजाज के शायर थे । एक बार मैंने गांधी मैदान बेगूसराय के मुशायरे में उन्हें अपनी पसंद की कोई खास गजल सुनाने को कहा तो वो नाराज हो गए थे । उनकी गजल का कुछ जादू ऐसा था, कि कलीम आजिज़ को खुद कहना पड़ा-
बयां जब कलीम अपनी हालत करे है
गजल क्या पढ़े है कयामत करे है
यह भी अजीब बात है कि पूरी उर्दू हिंदी शायरी में जाना जाने वाला यह शायर भेदभाव का भी शिकार हुआ । उर्दू जबानो अदब की तारीख़ लिखते हुए उन्हें वह तरजीह नहीं दी गई जो मिलनी चाहिए । वह बिहार में भी किसी पाठ्यपुस्तक का हिस्सा नहीं बन सके । इंटरमीडिएट के उर्दू पाठ्यक्रम को छोड़ भी दें तो नवम और दशम वर्ग के पाठ्य पुस्तक में भी उनका नामोनिशान नहीं है । उर्दू की नवम वर्ग की किताब में तईस और दशम वर्ग के पाठ्य पुस्तक में इक्कीस शायर शामिल हैं । इन दोनों वर्ग में सात शायर बिहार के हैं, पर कलीम अजीज वहां नदारद हैं । यह भी अजीब इत्तेफाक है कि शाद अज़ीमाबादी, जमील मज़हरी समेत यह तमाम के तमाम के तमाम शायर शहर पटना के हैं, तो क्या यह मान लेना चाहिए कि पटना के बाहर बिहार के दिगर हिस्सों में अच्छी शायरी नहीं हो रही है।
बहरकैफ कलीम आजिज़ जैसे शायर पर इस युग को नाज है । उनका कद इतना बड़ा है कि इन छोटी चीजों से वह छोटे नहीं होते । पूरी दुनिया में यह एक अकेला शायर है जिसकी शायरी कलम से नहीं जिगर के खून से लिखी गई है । इसलिए हर दुखी और षड्यंत्र का शिकार आदमी उनके अशआर में अपनी उपस्थिति पाता है ।
~ डॉ. ज़ियाउर रहमान जाफ़री
ग्राम +पोस्ट -माफ़ी, पो-अस्थावां, ज़िला -नालंदा, बिहार 8031079934847941, 6205200000
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