आत्ममंथन - महावीर उत्तरांचली

आत्ममंथन - महावीर उत्तरांचली : सम्पूर्ण विश्व में मेरा ही वर्चस्व है, भूख ने भयानक स्वर में गर्जना की। मै कुछ समझी नहीं, प्यास बोली।

आत्ममंथन - महावीर उत्तरांचली

सम्पूर्ण विश्व में मेरा ही वर्चस्व है, भूख ने भयानक स्वर में गर्जना की।

मै कुछ समझी नहीं, प्यास बोली।

मुझसे व्याकुल होकर ही लोग नाना प्रकार के उद्योग करते हैं। यहाँ तक कि कुछ अपना ईमान तक बेच देते हैं, भूख ने उसी घमंड में चूर होकर पुन: हुंकार भरी, "निर्धनों को तो मै हर समय सताती हूँ और अधिक दिन भूखे रहने वालों के मैं प्राण तक हरण कर लेती हूँ। अकाल और सूखा मेरे ही पर्यायवाची हैं। अब तक असंख्य लोग मेरे कारण असमय काल का ग्रास बने हैं।"

यकायक मेघ गरजे और वर्षा प्रारम्भ हुई। समस्त प्रकृति ख़ुशी से झूम उठी। जीव-जंतु। वृक्ष-लताएँ। घास-फूस। मानो सबको नवजीवन मिला हो! शीतल जल का स्पर्श पाकर ग्रीष्म ऋतु से व्याकुल प्यासी धरती भी तृप्त हुई। प्यास ने पानी का आभार व्यक्त करते हुए, प्रतिउत्तर में "धन्यवाद" कहा।

किसलिए तुम पानी का शुक्रिया अदा करती हो, जबकि पानी से ज़्यादा तुम महत्वपूर्ण हो? भूख का अभिमान बरक़रार था।

शुक्र है मेरी वज़ह से लोग नहीं मरते, ग़रीब आदमी भी पानी पीकर अपनी प्यास बुझा लेते हैं। क्या तुम्हें भी अपना दंभ त्यागकर अन्न का शुक्रिया अदा नहीं करना चाहिए?

प्यास के इस आत्म मंथन पर भूख हैरान थी।
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