मुहावरों और कहावतों का हिन्दी उर्दू शायरी/कविता में उपयोग

मुहावरों और कहावतों का हिन्दी उर्दू शायरी/कविता में उपयोग

मुहावरों और कहावतों का हिन्दी उर्दू शायरी/कविता में उपयोग

हम अपने जीवन में न जाने कितनी बार मुहावरों और कहावतों का इस्तेमाल जरुर करते है | इन्हें जाने अनजाने अपनी बातो में जाहिर किया जाता है | वैसे मुहावरा और कहावत को एक ही समझा जाता है परन्तु ऐसा नहीं है मुहावरा एक अरबी शब्द है जिसका अर्थ होता है अर्थ है बातचीत करना या उत्तर देना | मुहावरा ऐसे शब्दों का समूह होता है जिन्हें उसी तरह बोला या लिखा जाता है उनमे कोई फेरबदल नहीं किया जाता है | ना ही शब्दों में ना ही लिखने के तरीके में | जैसे आँख आना, पानी-पानी होना | यहाँ पानी-पानी होना को जल-जल होना या फिर निर-निर होना नहीं बोला जाता बल्कि पानी-पानी होना ही बोला जाता है |

कहावत वाक्यांश न होकर अपने आप में पूरा वाक्य होती है | कहावत में ज्ञान और अनुभव के आधार पर सुन्दर और प्रभावशाली तरीके से कम शब्दों में गुढ़ बाते कही जाती है | यह अपने आप में पूर्ण वाक्य होती है | लोकोक्ति में लोक का अर्थ "जनसामान्य" है और उक्ति का अर्थ "कथन" से है। यह कहावत का ही एक रूप है। जनसामान्य में प्रसिद्ध कहावत लोकोक्ति कहलाती है।
कहावत को उर्दू भाषा में "मसल" और अंग्रेजी में Proverb कहते है।
शायरी और कविता में भी मुहावरों और कविताओं का प्रयोग होता आया है और कुछ शेर या कवितांश ही मुहावरों का रूप ले लेते है और जनसामान्य में प्रसिद्द हो जाते है |

आज से लगभग लगभग दो सौ बरस पहले अरबी-फ़ारसी-उर्दू और संस्कृत के विद्वान "मिर्ज़ा जान तपिश देहलवी" (जन्म: सन 1755 के आसपास / मृत्यु: सन 1814) ने अपने संघर्षमय तथा क्रांतिकारी जीवन में मुब्तिला (विपत्तियों से घिरे हुए) होने के बावजूद हिन्दुस्तानी मुहावरों का एक दुर्लभ संग्रह तैयार किया जिसका फ़ारसी में नाम रखा गया "शम्सुल बयान फ़ी मुस्तलहातिल हिन्दुस्तान" इस कोष का नाम मुर्शिदाबाद ढाका के नवाब मिर्ज़ा जान नवाब शम्सुद्दौला के नाम पर रखा गया है |

इस संग्रह की सबसे बड़ी खासियत यह थी कि इसमें उर्दू और हिंदी के लेखक और रचनाकारों ने तत्कालीन जन-जीवन में प्रचलित मुहावरों का संकलन तथा व्याख्या ही तैयार नहीं की बल्कि हर मुहावरे को समझाने के लिये जाने-माने शायरों के अशआर दे कर भी इस मुहावरा संग्रह की गरिमा को बढ़ा दिया | इस कोष को खोजने तथा हिंदी में प्रकाशित करने का श्रेय ऐतिहासिक महत्व की संस्था "ख़ुदा बख्श ओरियेन्टल पब्लिक लाइब्रेरी, पटना (बिहार) को जाता है |

सबसे पहले हम देखते है कि हिंदी साहित्य के सबसे पुराने कवि कबीर का एक दोहा
‘आछे दिन पाछे गए, हरि से किया न हेत
अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गई खेत‘

‘करता था तो क्यों किया, अब करि क्यों पछताय
बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय‘

‘जिन खोजा तिन पाइयां, गहरे पानी पैंठ
मैं बपुरा बूड़न डरा, रहा किनारे बैठ‘
- कबीर

इन दोहों में आप देख सकते है किस तरह मुहावरों का उपयोग किया गया है पहले दोहे में 'अब पछताए होत क्या जब चिडियाँ चुग गई खेत' और दूसरे दोहे में 'बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से खाय'|

रामधारी सिंह दिनकर जी की कविता की कुछ पंक्तियाँ में विनाशकाले विपरीत बुद्धि को कुछ यूं उपयोग किया गया है
‘जब नाश मनुज पर छाता है
पहले विवेक मर जाता है‘
- रामधारी सिंह दिनकर

इसी तरह दुष्यंत कुमार की ग़ज़ल का एक शेर है
‘कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो!‘

जिसे गाहे बेगाहे कहीं न कहीं सभी लोग इस शेर का स्वरूप बिगाड़ देते है |

ऐसा ही उर्दू साहित्य में ग़ज़ल के कुछ शेर भी है

जैसे
उधेड़बुन = किसी व्यक्ति द्वारा एकांत में किसी समस्या या उसके समाधान के बारे में तनावपूर्ण स्थिति में सोच-विचार करना
कुछ आप ही गिरा के, आप ही कुछ चुनता है
कहता है कुछ आप ही, आप ही कुछ सुनता है
ऐ दर्द देख हमको हमेशा ये दिले-ए-दीवाना
क्या कुछ उधेड़ता है, आप ही कुछ बुनता है
- ख्वाज़ा मीर दर्द

क्या क्या हिर्सो-हवस की धुन है दिल को
किस किस ढब की उधेड़बुन है दिल को
तशवीशे मआश मग्ज़े-जां खाती जाती है
दुनिया की गरज़ तलाश, धुन है दिल को
- मिर्ज़ा अली नकी महशर

हाथ पाँव फूलना = घबरा जाना
'असद' ख़ुशी से मिरे हाथ पाँव फूल गए
कहा जो उस ने ज़रा मेरे पाँव दाब तो दे
- ग़ालिब

बाग़ बाग़ होना = बहुत अधिक खुश होना
ऐ वली गुल-बदन कूँ बाग़ में देख
दिल-ए-सद-चाक बाग़-बाग़ हुआ
- वली मोहम्मद वली

पानी न मांगना = ऐसा वार करना जिससे शिकार तत्काल मर जाये
दिखलावे उसे तू अपनी शमशीर-ए-निगाह
जिस का मारा कभी न पानी माँगे
- मीर सोज़

आँख लगना = झपकी आना
बिस्तर पे लेटे लेटे मिरी आँख लग गई
ये कौन मेरे कमरे की बत्ती बुझा गया
- जयन्त परमार

एक से दिन नहीं रहते = विपरीत परिस्थितियाँ, कष्ट या संकट आदि सदा नहीं रहते
हिज्र की रातें भी आखिर कट गयीं
एक से रहते नहीं दिन हमनशीं
- मीर सज्जाद

आँखें नीली-पीली करना = क्रोध करना
रोज़ आँखें नीली-पीली कर जताता है वो शोख़
बज़्म में तो चश्मे-हैरत से न देखा कर मुझे
- जुर्रअत कलंदर बख्श

पाँव गाड़ना = अपनी बात पर अडिग रहना
यारब रहे तलब में कोई कब तलक फिरे
तस्कीन दे कि बैठ र बै हूँ पाँव गाड़ कर
- मीर तक़ी मीर

फूँक-फूँक कर पाँव धरना = सावधानी से काम करना या बच बच कर चलना
छिड़काव आब-ए-तेग़ का है कू-ए-यार में
पाँव इस ज़मीं पे रखिए ज़रा फूँक फूँक कर
- दत्तात्रिया कैफ़ी

सर धुनना = पश्चाताप या शोक के कारण बहुत अधिक दुख प्रकट करना
कभी रोना कभी सर धुन्ना कभी चुप रहना
काम करने हैं बहुत से तिरे बे-कारों को
- रज़ा अज़ीमाबादी

तारे गिनना = नींद न आना
ख़्वाब की दौलत चैन से सोने वालों की
तारे गिनना काम है हम बेदारों का
- साबिर वसीम

पानी-पानी होना = शर्मिंदा होना
फ़ज़्ल-ए-बारी से हों ये आँसू जारी
सावन की घटा शर्म से पानी हो जाए
- मिर्ज़ा सलामत अली दबीर

पानी पी पी कोसना = अत्यधिक बद्दुआ देना या श्राप देना
क्या ज़ुल्ज़ुम है बस दिल मसोसा कीजिये
यादे-लबे-बाम का दिनरात बोसा कीजिये
ईज़ा है सख्त मोहतसिब के हाथ देखना
अब उनको पानी पी पी कोसा कीजिये
- मिर्ज़ा अर्ज़ा ली नकी महशर

गुल खिलाना/गुल खाना = प्रेम प्रसंग, वियोग, मायूसी वग़ैरा में माशूक़ के छल्ले वग़ैरा को गर्म कर के अपने शरीर को दाग़ना, मुहब्बत में मुब्तला होना, प्रेम में मिले कष्ट को सहना
दाग़ जूँ लाला खा चमन में नसीम
मैं भी आया हूँ गुल खिलाने आज
- शाह नसीर

गुल खाए जिनके वास्ते मै जिस्म-ए-ज़ार पर
दो फूल भी न लाए ..... वो मेरे मज़ार पर
- मीर तक़ी मीर

मुंह में जुबान है या नहीं = जान बूझकर न बोलना
जुर्म है उसकी जफ़ा का कि वफ़ा की तक़सीर
कोई तो बोलो मियां मुँह में ज़बां है कि नहीं
- शम्सुर रहमान फ़ारूक़ी

गुस्से से भूत होना = अत्यधिक क्रोध में जलना
मज़मून तू शुक्र कर कि तेरा नाम सुन रकीब
गुस्से में भूत हो गया लेकिन जला तो है
- शरफुद्दीन मजमून

मिटटी खराब करना = बुरा हाल होना/ दुर्दशा करना
छानी कहाँ न ख़ाक न पाया कही तुम्हे
मिटटी मिरी खराब हुई अबस दर-ब-दर हुई
- भारतेंदु हरिश्चंद्र

मुँह से फूल झडना = बुरा भला कहना
गालियाँ दे के अब बिगडते है
वाह क्या मुँह से फूल झाड़ते है
- इंशा अल्ला खान इंशा

सर पटकना = परेशान होना
मुसाफ़िर अपनी मंज़िल पर पहुच कर चैन पाते है
वो मौजे सर पटकती है जिन्हें साहिल नहीं मिलता
- मखदूम दहलवी

लाले पड़ना = चाह होने पर भी अप्राप्य होना
इस असीरी के न कोई ए सबा पाले पड़े
यह नज़र गुल देखने के भी हमें लाले पड़े
- मीर तक़ी मीर

ज़ख्म हरे होना = अप्रिय घटना याद आना
हर बारिश में ज़ख्म हरे हो जाएंगे
यादो को दफ़नाने से भी क्यां होगा
- सुरेन्द्र चतुर्वेदी

उँगली छुड़ाना = साथ छोड़कर जाना
न जाने उँगली छुड़ा कर चला गया है कहाँ
बहुत कहा था ज़माने से साथ-साथ चले
- गुलज़ार

दिन को दिन, रात को रात न जानना = गहरी तल्लीनता / सारे संसार से बेख़बर होना
क्या कहिये कटी हिज्र में क्योंकर औक़ात
नै ख्वाबो-ख़ुरिख़ु श ध्यान में, नै मौतों-हयात
दिन रात ख़याले-ज़ुल्ज़ुफो- रूखे- पेशे- नज़र
जाना नहीं, आह, दिन को दिन रात को रात
- मिर्ज़ा अली नकी महशर

जब जागो तभी संवेरा = सीखने की कोई उम्र नहीं होती / समय रहते सचेत होना
एक दिन जब मेरी खुली आँखे
बस तभी से हुआ संवेरा है
- महेश कटारे 'सुगम'

साँसे उखडना = बहुत थक जाना
मै मंज़िल के निशाँ कभी के छू लेता
लेकिन रस्तों कि भी उखड़ी साँसे थी
- युसूफ रईस

शेर जिनमे कहावतों का इस्तेमाल हुआ है

आस्तीन का साँप = निकट रहने वाले व्यक्ति द्वारा शत्रुता का व्यवहार
तज़्किरा होने लगा जब आस्तीं के साँप का
पास ही एहसास मुझ को सरसराहट का हुआ
- ज़िशान इलाही


रफ़्ता रफ़्ता यार जौहर अपने दिखलाने लगा
आस्तीं का सांप निकला यह तो जी खाने लगा
- मिर्ज़ा फिदवीं


डस न ले आस्तीन के सांप कहीं
इन से महफूज़ जिंदगी रखना
- चाँद शेरी

नाच न जाने आँगन टेढ़ा = अपनी असफलताओ को स्वीकार न करते हुए दोष दूसरों पर डालना/ खुद कार्य न कर सकने पर बहाना बनाना
मोर का रक़्स उसे नहीं भाता अपनी चाल पे है इतराता
नाच न जाने टेढ़ा आँगन माशा-अल्लाह माशा-अल्लाह
- बर्क़ी आज़मी

जिसकी लाठी उसकी भैंस = बलवान की जीत होना
ये भी है कोई हुकूमत जिस की लाठी उस की भैंस
जानते हो इस का जो अंजाम होना चाहिए
- आज़म जलालाबादी

जो गरजते हैं वो बरसते नहीं = ज्यादा बोलने वाले कुछ करते नहीं
जो गरजते हों वो बरसते हों कभी ऐसा हम ने सुना नहीं
यहाँ भूँकता कोई और है यहाँ काटता कोई और है
- ज़ियाउल हक़ क़ासमी

ऐसे बहुत से शायर है जिनके शेर के मिसरे इतने मशहुर हुए की उनका प्रयोग ही कहावतों/मुहावरों के तौर पर होने लगा पेश है कुछ उदाहरण
ग़ालिब के इस शेर को न सुना तो क्या सुना
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
- मिर्ज़ा ग़ालिब

इशरत-ए-क़तरा है दरिया में फ़ना हो जाना
दर्द का हद से गुज़रना है दवा हो जाना
- मिर्ज़ा ग़ालिब

फ़िक्र-ए-दुनिया में सर खपाता हूँ
मैं कहाँ और ये वबाल कहाँ
- मिर्ज़ा ग़ालिब

बस कि दुश्वार है हर काम का आसाँ होना
आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसाँ होना
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आँख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
- मिर्ज़ा ग़ालिब

इस शेर को गाहे-बेगाहे कहीं न कहीं जरुर सुना होगा आपने
हमको मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल के ख़ुश रखने को ग़ालिब ये ख़याल अच्छा है
- मिर्ज़ा ग़ालिब

मोमिन का यह शेर तो आशिको की जान है 
तुम हमारे किसी तरह न हुए
वर्ना दुनिया में क्या नहीं होता
- मोमिन खां मोमिन

मिर्ज़ा रज़ा बर्क के इस शेर का दूसरा मिसरा तो बकायदा एक कहावत बन चूका है 
ऐ सनम वस्ल की तदबीरों से क्या होता है,
वही होता है जो मंज़ूर-ए-ख़ुदा होता है।
- मिर्ज़ा रज़ा बर्क़

भाँप ही लेंगे इशारा सर-ए-महफ़िल जो किया,
ताड़ने वाले क़यामत की नज़र रखते हैं।
- माधव राम जौहर

जिगर के इस शेर को इश्क करने वालो के लिये खासकर बोला जाता है 
ये इश्क़ नहीं आसाँ इतना ही समझ लीजे
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है
हम को मिटा सके ये ज़माने में दम नहीं
हम से ज़माना ख़ुद है ज़माने से हम नहीं
उन का जो फ़र्ज़ है वो अहल-ए-सियासत जानें
मेरा पैग़ाम मोहब्बत है जहाँ तक पहुँचे
- जिगर मुरादाबादी

इकबाल के इस शेर का तो क्या कहना

सितारों से आगे जहाँ और भी हैं
अभी इश्क़ के इम्तिहाँ और भी हैं
- अल्लामा इक़बाल

चल साथ कि हसरत दिल-ए-मरहूम से निकले,
आशिक़ का जनाज़ा है, ज़रा धूम से निकले।
- मिर्ज़ा मोहम्मद अली फिदवी

जब अपना ही अपने घर को तबाह कर दे तो तांबा के इस शेर के दूसरे मिसरे को जरुर बोला जाता है 

दिल के फफूले जल उठे सीने के दाग़ से,
इस घर को आग लग गई,घर के ही चराग़ से।
- महताब राय ताबां

हार त्यौहार पर ईद शब्द को बदल-बदल कर क़मर बदायुनी साहब के इस शेर को तोड़ मरोडकर जरुर बोला जाता है 

ईद का दिन है, गले आज तो मिल ले ज़ालिम,
रस्म-ए-दुनिया भी है,मौक़ा भी है, दस्तूर भी है।
- क़मर बदायुनी

मीर के इस शेर के बारे में कुछ भी कहना गलत होगा शायद ही कोई होगा जिसने पहला शेर न सुना हो |

राह-ए-दूर-ए-इश्क़ में रोता है क्या
आगे आगे देखिए होता है क्या
अब तो जाते हैं बुत-कदे से मीर
फिर मिलेंगे अगर ख़ुदा लाया
- मीर तक़ी मीर

मीर के इस शेर का दूसरा मिसरा तो कहावतों/मुहावरों में बहुत अच्छी तरह अपनी जगह बना चूका है |

‘मीर’ अमदन भी कोई मरता है,
जान है तो जहान है प्यारे।
- मीर तक़ी मीर

जाए है जी नजात के ग़म में
ऐसी जन्नत गई जहन्नम में
- मीर तक़ी मीर

दाद खां सय्याह ने जिस भी स्थिति में यह शेर कहाँ होगा पर जब दो दोस्त मिले और इस शेर का दूसरा मिसरा न कहे ऐसा हो नहीं सकता |

क़ैस जंगल में अकेला ही मुझे जाने दो,
ख़ूब गुज़रेगी, जो मिल बैठेंगे दीवाने दो।
- मियाँ दाद ख़ां सय्याह

शब को मय ख़ूब पी, सुबह को तौबा कर ली,
रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत न गई।
- जलील मानिकपूरी

तुराब काकोरवी के इस शेर के दूसरे मिसरे को साहिर साहब ने उपयोग कर लैला मजनू फिल्म में जो गवाया तो असल शायर का नाम ही ज़हन से जैसे गायब हो गया |

शहर में अपने ये लैला ने मुनादी कर दी,
कोई पत्थर से न मारे मेरे दीवाने को
- शैख़ तुराब अली क़लंदर काकोरवी

ये जब्र भी देखा है तारीख़ की नज़रों ने,
लम्हों ने ख़ता की थी, सदियों ने सज़ा पाई।
- मुज़फ़्फ़र रज़्मी

जब कहीं अंतहीन दर्द की बात आती है तो अमीर मिनाई साहब के इस शेर का दूसरा मिसरा तोड़-मरोडकर परोस दिया जाता है जैसे 'सारी दुनिया का दर्द मेरे दिल में है', असल शेर है
खंज़र चले किसी पे, तडपते है हम अमीर
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है
- अमीर मिनाई

अल्लामा इकबाल के इस शेर को तो लगभग हर व्यक्ति ने सुना है और लगभग हर अध्यापक ने इसे एक न एक बार जरुर दोहराया होगा
ख़ुदी को कर बुलंद इतना कि हर तक़दीर से पहले
ख़ुदा बंदे से ख़ुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है
- अल्लामा इक़बाल

मजरूह साहब का यह शेर तो अपने आप में अमर हो चूका है और एक कहावत का रूप ले चूका है
मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल मगर
लोग साथ आते गए और कारवाँ बनता गया
- मजरूह सुल्तानपुरी

इश्क और जुदाई को बयां करते फैज़ साहब के इस शेर को न सुना तो क्या सुना
और भी दुःख हैं ज़माने में मुहब्बत के सिवा
राहतें और भी हैं, वस्ल की राहत के सिवा
- फै़ज़ अहमद फै़ज़

दिल्ली में रहने वाले इस शेर का उपयोग कभी न कभी कर ही लेते है :
इन दिनों गरचे दकन में है बड़ी क़द्र-ए-सुख़न
कौन जाए ‘ज़ौक़’ पर दिल्ली की गलियां छोड़कर
- शैख़ इब्राहीम ज़ौक

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