अब बात हुई प्राचीन
एक शहर था जिसका नाम सहारनपुर हैउसमें भी कुछ एक बरस मैंने काटे हैं
बात सही सन् सत्तावन-अट्ठावन की होगी
मैं छोटा था, पतंग देख कर ख़ुश होता था
भूख उन दिनों बेहद सताया करती
शायद मेरे, रहे पेट में कीड़े होंगे
शायद माँ से हठ करना रोटी-चीनी को
मेरी भूख बढ़ाने वाला कारण होगा
भूत-प्रेत मारा करते कानों में सीटी
जहाँ झुटपुटा हुआ, हृदय धकधक करता था
हनुमान जी, दुर्गा मैया, मोहन भैया
ये तीनों ही मेरे असली संरक्षक थे
रामलीला से दीवाली तक के दिन
धनुष की तरह तने
साल के सबसे बढ़िया दिन होते थे
उनसे थोड़ी-सी ही कम अच्छी होतीं
गर्मियों की छुट्टियाँ, बरसातें सबसे बुरी
जामुन था सबसे उम्दा फल या अधपका अमरूद
सबसे अच्छा दिन इतवार, सबसे बुरा सोमवार
वीरों का कैसा हो वसंत, हल्दी घाटी
दोनों ही कविताएँ मुझको अति भातीं
वैसे मैं था अति भीरु और दुर्बल बालक
केवल कम ऊँची दीवारों पर चढ़ पाता था
चढ़ लिया सरासर करता था जो पेड़ों पर
वह साधूराम हृदय मेरा झुलसाता था
अँग्रेज़ों को गए बरस दस बीत चुके थे
लेकिन क़ायम था तब भी सब रुतबा उनका
रेलवई का आंग्ल भारती एक डिराइवर
मेरे लिए देश का दूजा महापुरुष था
पहले तो थे ख़ैर जवाहरलाल नेहरू
अख़बारों में जिन्हें कहा जाता था चाचा
चाचा जैसे तो न कभी हमको वे सूझे
देव पुरुष अवतारी किंतु लगा करते थे
अक्सर मिलते थे सुनने को उनके क़िस्से
बहुत बड़े हेकड़ हैं तनिक न परवा करते
जनता यदि हल्ला करती घपला करती हो
भरी भीड़ में घुसकर उसे चुपा देते हैं
यह भी कहते लोग कि यद्यपि हैं नेहरू जी
गांधी के शागिर्द स्वदेशी के हिमायती
लेकिन आला ख़ानदान में रख-रखाव में
उनका जलवा अँग्रेज़ों से भी बढ़ कर है
तभी सुना, हैं नेहरू के दो नाती जिनका
फोटू डाक-टिकट के ऊपर छपा हुआ है
और कि उनकी माता जी भी राजनीति में
अच्छा-ख़ासा दख़ल बना कर रखती हैं
तब तक मेरी समझ बात को पकड़ न पाई
इसीलिए मैं अपने नाना पर चिढ़ता था
क्यों पहना करते हैं काली गंदी टोपी
नेहरू की ही तरह क्यों नहीं बनते हैं वे
जब देखो तब पूजा ही करते रहते हैं
इसीलिए तो माँ को भी लत बुरी लगी है
सदा डरी रहती है कितने अंदेशों से
सुबह-शाम घंटी टुन-टुन करती रहती है
नाना वैसे शानदार थे और मामा तो
बिल्कुल लाजवाब, जैसे हो आम सफ़ेदा
तेजस्वी भी मीठा गद्दर रसेदार भी
चाचा तो बस मेरे अपने चाचा जी थे
अलग तरह से कुछ प्यारे लगते थे मुझको
ऊल-जलूल हरक़तों में तो माहिर थे
उनके कई उसूलों का मैं भी क़ायल हूँ
पिता कभी आँधी थे और कभी थे पानी
कभी धूप थे और कभी घनघोर अँधेरा
कभी हवा थे सुखद बसंती ख़ुशबू वाली
और कभी थे लंबी एक कथा पीड़ा की
अब हुई बात प्राचीन मगर फिर भी बतलाता हूँ
आता था याद सात वर्ष के बालक को भी
अपना बचपन जो छूटा किंचित दूर मगर था अति सुदूर
गोया सपने के भीतर हो कोई सपना
वाक़या ये दर्जा दो का है
स्कूल में टट्टी हो गई थी नेकर में
इतने बरसों के बाद भी बिल्कुल
साफ़-साफ़ वह घटना अंकित है
बमय सभी रंगों गंधों के वह कातरता
वह थी जीवन की प्रथम सांघातिक शर्मिंदगी
रहा प्रेम तो वो बुहुत बाद की चीज़ है
वीरेन डंगवाल