दोस्तो बारगह-ए-क़त्ल सजाते जाओ
दोस्तो बारगह-ए-क़त्ल सजाते जाओक़र्ज़ है रिश्ता-ए-जाँ, क़र्ज़ चुकाते जाओ
रहे ख़ामोश तो ये होंठ सुलग उठेंगे
शोला-ए-फ़िक़्र को आवाज़ बनाते जाओ
अपनी तक़दीर में सहरा है तो सहरा ही सही
आबला-पाओ नए फूल खिलाते जाओ
ज़िंदगी साया-ए-दीवार नहीं दार भी है
ज़ीस्त को इश्क़ के आदाब सिखाते जाओ
बे-ज़मीरी है सरअफ़राज़ को ग़म कैसा है
अपने तजलील को मेयार बनाते जाओ
ऐ मसीहाओ अगर चारागरी है दुश्वार
हो सके तुमसे, नया ज़ख़्म लगाते जाओ
कारवाँ अज़्म का रोके से कहीं रुकता है
लाख तुम राह में दीवार उठाते जाओ
एक मुद्दत की रिफ़ाकत का हो कुछ तो इनआम
जाते-जाते कोई इल्ज़ाम लगाते जाओ
जिनको गहना दिया अफ़कार की परछाई ने
“मोहसिन” उन चेहरों को आईना दिखाते जाओ - मोहसिन भोपाली
मायने
बरगह-ए-क़त्ल = वध स्थल, आबला-पाओ = जिनके पाँव छालों से भरे हों, दार = सूली, ज़ीस्त = जीवन, बे-ज़मीरी = अंतरात्मा का न होना, तज़्लील = अपमान, चारागरी = चिकित्सा, अज़्म=संकल्प, रिफ़ाकत = दोस्ती, अफ़कार = चिंताएँ, अज़्म = संकल्प/निश्चय
dosto baargah-e-qatl sajate jaao
dosto baargah-e-qatl sajate jaaokarz hai rishta-e-jaan, karz chukate jaao
rahe khamosh to hoth sulag uthenge
shola-e-fikra ko aawaz banate jaao
apni takdeer me sahra hai to sahra hi sahi
aabla - paao naye phool khilate jaao
zindgi saya-e-deedar nahi daar bhi hai
zist ko ishq ke aadab sikhate jaao
be-zamiri hai sar-afaraz ko gham kaisa hai
apne tazleel ko maiyar banate jaao
ae masihao agar charagari hai dushwar
ho sake tumse, naya zakhm lagate jaao
karwaan azm ka roke se kahi rukta hai
laakh tum raah me deewar me uthate jaao
ek muddat ki rifaqat ka hi to kuch to in-aam
jate-jate koi ilzam lagate jaao
jinko gahna diya afkar ki parchhai ne
"Mohsin" un chehro ko aaina dikhate jaao - Mohsin Bhopali