दाग़ देहलवी परिचय
दाग़ देहलवी जिनका वास्तविक नाम नवाब मिर्ज़ा खां था का जन्म 25 मई, 1831 को दिल्ली में हुआ | जब दाग़ पाँच-छह वर्ष के थे तभी इनके पिता मर गए। इनकी माता ने बहादुर शाह "ज़फर" के पुत्र मिर्जा फखरू से विवाह कर लिया | तब वे भी दिल्ली में लाल किले में रहने लगे | यहाँ दाग को हर तरह की शिक्षा मिली और यहाँ वे शायरी करने लगे और जौक को अपना गुरु बनाया | सन 1856 में मिर्जा फखरू की मृत्यु हो गई और दूसरे ही वर्ष बलवा आरंभ हो गया, जिससे यह रामपुर चले गए | वहाँ युवराज नवाब कल्ब अली खाँ के आश्रय में रहने लगे। सन् 1887 ई. में नवाब की मृत्यु हो जाने पर ये रामपुर से दिल्ली चले आए। घूमते हुए दूसरे वर्ष हैदराबाद पहुचे | पुन: निमंत्रित हो सन् 1890 ई. में दाग़ हैदराबाद गए और निज़ाम के शायरी के उस्ताद नियत हो गए। इन्हें यहाँ धन तथा सम्मान दोनों मिला | यहीं सन् 1905 ई. में फालिज से इनकी मृत्यु हुई। दाग़ शीलवान, विनम्र, विनोदी तथा स्पष्टवादी थे और सबसे प्रेमपूर्वक व्यवहार करते थे।
उनके जीवन का अधिकांश समय दिल्ली में व्यतीत हुआ था, यही कारण है कि उनकी शायरी में दिल्ली की तहजीब नज़र आती है। दाग़ देहलवी की शायरी इश्क़ और मोहब्बत की सच्ची तस्वीर पेश करती है।
गुलजारे-दाग़, आफ्ताबे-दाग़, माहताबे-दाग़ तथा यादगारे-दाग़ इनके चार दीवान हैं, जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। 'फरियादे-दाग़', इनकी एक मसनवी (खंडकाव्य) है। इनकी शैली सरलता और सुगमता के कारण विशेष लोकप्रिय हुई। भाषा की स्वच्छता तथा प्रसाद गुण होने से इनकी कविता अधिक प्रचलित हुई पर इसका एक कारण यह भी है कि इनकी शायरी कुछ सुरुचिपूर्ण भी है।
मुग़ल बादशाह शाहआलम, जो कि अन्धा हो चुका था, उसके आखिरी ज़माने में पठानों का एक ख़ानदान समरकंद से अपनी रोजी-रोटी की तलाश में भारत आया था। यह ख़ानदान कुछ महीने तक ज़मीन-आसमान की खोज में इधर-उधर भटकता रहा और फिर दिल्ली के एक मोहल्ले बल्लीमारान में बस गया। इस ख़ानदान की दूसरी पीढ़ी के एक नौजवान अहमद बख़्श ख़ाँ नेअलवर के राजा बख़्तावर सिंह के उस फौजी दस्ते की सरदारी का फ़र्ज़ निभाया, जो राजा की और से भरतपुर के राजा के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की मदद के लिए भेजा गया था। लड़ाई के मैदान में अहमद बख़्श ख़ाँ ने अपनी जान को दाँव पर लगाकर एक अंग्रेज़ की जान बचाई थी। उसकी इस वफ़ादारी के लिए लॉर्ड लेक उसे फ़िरोजपुर और झरका की जागीरें इनाम में दे दी |
अहमद बख़्श ख़ाँ का बड़ा लड़का शम्सुद्दीन ख़ाँ, जो उसकी अलवर की मेवातन बीवी का बेटा था, उसने जागीर में नाइंसाफ़ी के लिए अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। वह ब्रिटिश रेजिडेंट के क़त्ल की भी साजिश रचने लगा। लेकिन उसकी इस साजिश का पता अंग्रेज़ सरकार को लग गया और उसे 1835 ई. में फाँसी दे दी गई। दाग़ देहलवी इसी शम्सुद्दीन ख़ाँ की पहली और अंतिम संतान थे, जो बाद में उर्दू ग़ज़ल के इतिहास में नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ दाग़ देहलवी के नाम से प्रसिद्ध हुए। अपने पिता की फाँसी के समय दाग़ देहलवी मात्र चार साल और चार महीने के थे। अंग्रेज़ों के भय से दाग़ देहलवी की माँ वजीर बेगम कई वर्षों तक छिप कर रहीं और इस दौरान दाग़ देहलवी अपनी मौसी के जहाँ रहे ।
कई वर्षों के भटकाव के बाद जब वजीर बेगम ने आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के पुत्र और उत्तराधिकारी मिर्ज़ा फ़ख़रू से विवाह कर लिया, तब दाग़ देहलवी भी लाल क़िले में रहने लगे। यहाँ इनकी शिक्षा-दीक्षा आदि का अच्छा प्रबन्ध हो गया था। दाग़ देहलवी ने लाल क़िले में बारह वर्ष बिताए, लेकिन यह सब विलासिता मिर्ज़ा फ़ख़रू के देहांत के बाद इनके पास नहीं रही। बूढ़े बादशाह बहादुरशाह ज़फर की जवान मलिका जीनतमहल की राजनीति ने लाल क़िले में उन्हें रहने नहीं दिया। इस बार उनके साथ उनकी माता वजीर बेगम और साथ ही माता की कुछ जायज़ और नाजायज़ संताने भी थीं। मिर्ज़ा फ़ख़रू से मिर्ज़ा मोहम्मद खुर्शीद के अतिरिक्त, आगा तुराब अली से, जिनके यहाँ वजीर बेगम शम्सुद्दीन ख़ाँ की फाँसी के बाद कुछ दिन छुपी थीं आगा मिर्ज़ा शगिल और जयपुर के एक अंग्रेज़ से भी एक लड़का अमीर मिर्ज़ा और एक लड़की बादशाह बेगम शामिल थीं।
लाल क़िले में बारह वर्ष रहते हुए दाग़ देहलवी ने अपनी शायरी से उस युग के बुजुर्ग शायरों, जैसे-ग़ालिब, मौमिन, जौक, शेफ़्ता को ही नहीं चौकाया अपितु अपनी सीधी-सहज भाषा और उसके नाटकीय आकर्षण ने आम लोगों को भी उनका प्रशंसक बना दिया। आपने जौक को अपना गुरु बनाया | दाग की ग़ज़ल के इस रूप ने भाषा को वह मंझाव और पारदर्शिता दी, जिसमे बारीक़ से बारीक़ ख्याल के इज़हार की नयी सम्भावनाएँ थीं। ग़ालिब भी दाग़ के इस अंदाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। दाग़ के एक जीवनी लेखक निसार अली शोहरत से उन्होंने एक बार कहा था- "दाग़ भाषा को न सिर्फ़ पाल रहा है, बल्कि उसे तालीम भी दे रहा है।"
दाग़ देहलवी की रचनात्मक क्षमता अपने समकालीन उर्दू शायरों से कहीं अधिक थी। उनका एक 'दीवान' 1857 की लूटमार की भेट चढ गया था। दूसरा उनके हैदराबाद के निवास के दौरान किसी के हाथ की सफाई का शिकार हो गया। इन दो दीवानों के खो जाने के बावजूद दाग़ देहलवी के पाँच दीवान 'गुलजारे दाग़', 'महताबे दाग़', 'आफ़ताबे दाग़', 'यादगारे दाग़', 'यादगारे दाग़- भाग-2', जिनमें 1038 से ज़्यादा गज़लें, अनेकों मुक्तक, रुबाईयाँ, सलाम मर्सिये आदि शामिल थे, इसके अतिरिक्त एक 838 शेरों की मसनवी भी 'फरियादे दाग़' के नाम से प्रकाशित हुई। इतने बड़े शायरी के सरमाये में सिर्फ़ उनकी मोहब्बत की बाज़ारियत को ही उनकी शायरी की पहचान समझना सबसे बड़ी भूल होगी। यहाँ तक की फ़िराक़ गोरखपुरी जैसा समझदार आलोचक भी हुआ। इससे इंकार करना कठिन है कि लाल क़िले के मुजरों, कव्वालियों, अय्याशियों, अफीम शराब की रंगरंलियों से जिनकी ऊपरी चमक-दमक में उस समय की दम तोड़ती तहजीब की अंतिम हिचकियाँ साफ सुनाई देती थीं, दाग़ के बचपन और जवानी के शुरुआती वर्षों में प्रभावित हुए थे। इस दौर का सांस्कृतिक पतन उनके शुरू के इश्क़ के रवेये में साफ नज़र आता है। उनकी ग़ज़ल की नायिका भी इस असर के तहत बाज़ार का खिलौना थी, जिससे वो भी उन दिनों की परम्परा के अनुसार खूब खेले। लेकिन दाग़ देहलवी का कमाल यह है कि वह यहीं तक सिमित होकर नहीं रहे थे। उनकी शायरी में उनके व्यक्तित्व की भाँति, जिसमें आशिक, नजाराबाज़, सूफ़ी, फनकार, दुनियादार, अतीत, वर्तमान एक साथ जीते-जागते हैं, कई दिशाओं का सफरनामा है। ये शायरी जिन्दा आदमी के विरोधाभासों का बहुमुखी रूप है, जिसे किसी एक चेहरे से पहचान पाना मुश्किल है।
काबे की है हवस कभी कूए बुताँ की है
मुझको खबर नहीं, मेरी मिटटी कहाँ की है।
दाग़ देहलवी वर्ष 1857 की तबाहियों से गुजरे थे। दिल्ली के गली-मोहल्लों में लाशों का नज़ारा उन्होंने देखा था। लाल क़िले से निकलकर तिनका-तिनका जोड़कर जो आशियाना उन्होंने बनवाया था, उसे बिखरते हुए भी देखा। अपने दस-बारह साल के कलाम की बर्बादी के वह मात्र एक मजबूर तमाशाई बनकर रह गये थे। क़िले से निकले अभी मुश्किल से आठ-नो महीने ही हुए थे कि इस तबाही ने उन्हें घेर लिया। दिल्ली के हंगामों से गुजर कर दाग़ देहलवी ने रामपुर में पनाह ली। रामपुर से उनका संबंध उनकी मौसी उम्दा बेगम के पति रामपुर के नवाब युसूफ़ अली ख़ाँ के समय से था। दिल्ली के उजड़ने के बाद रामपुर उन दिनों असीर, अमीर, जहीर, निज़ाम और जलाला जैसे उस्तादों की आवाजों से आबाद था। नवाब शायरों का कद्रदान था। यहाँ दाग़ देहलवी की शायरी भी खूब फली-फूली और उनकी आशिक़ाना तबियत भी।
मुन्नीबाई हिजाब नाम की एक गायिका और तवायफ़ से दाग़ देहलवी का मशहूर इश्क़ इसी माहौल की देन था। उनका यह इश्क़ आशिक़ाना कम और शायराना अथिक था। दाग़ देहलवी उस वक्त आधी सदी से अधिक उम्र जी चुके थे, जबकि मुन्नीबाई हर महफ़िल में जाने-महफ़िल होने का जश्न मना रही थी। अपने इस इश्क़ की दास्ताँ को उन्होंने 'फरयादे दाग़' में मजे के साथ दोहराया है। मुन्नीबाई से दाग़ का यह लगाव जहाँ रंगीन था, वहीं थोड़ा-सा संगीन भी। दाग़ देहलवी उनके हुस्न पर कुर्बान थे और वह नवाब रामपुर के छोटे भाई हैदरअली की दौलत पर मेहरबान थी। रामपुर में हैदरअली का रक़ीब बनकर दाग़ देहलवी के लिए मुश्किल था। जब इश्क़ ने दाग़ देहलवी को अधिक सताया तो उन्होंने हैदरअली तक अपना पैगाम भिजवा दिया- "दाग़ हिजाब के तीरे नज़र का घायल है। आप के दिल बहलाने के और भी सामान हैं, लेकिन दाग़ बेचारा हिजाब को न पाए तो कहाँ जाए।" नवाब हैदरअली ने दाग़ की इस गुस्ताख़ी को न सिर्फ़ क्षमा कर दिया, बल्कि उनके खत का जवाब खुद मुन्नीबाई उन तक लेकर आई। नवाब हैदरअली का जवाब था कि- "दाग़ साहब, आपकी शायरी से ज़्यादा हमें मुन्नीबाई अजीज़ नहीं है।"
सबसे तुम अच्छे हो तुमसे मेरी किस्मत अच्छी
ये ही कमबख्त दिखा देती है सूरत अच्छी
मुन्नीबाई एक डेरेदार तवायफ़ थी। उसके पास अभी उम्र की पूंजी भी थी और रूप का ख़ज़ाना भी था। वह घर की चाहर दीवारी में सिमित होकर पचास से आगे निकलती हुई ग़ज़ल का विषय बनकर नहीं रह सकती थी। वह दाग़ देहलवी के पास आई, लेकिन जल्द ही दाग़ को छोड़कर वापस कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के बाज़ार की ज़ीनत बन गयी। नवाब रामपुर कल्बे अली ख़ाँ के देहांत के बाद दाग़ देहलवी रामपुर में अधिक समय तक नहीं रह सके। समय ने फिर से उनसे छेड़छाड़ शुरू कर दी थी। लाल क़िले से निकलने के पश्चात चैन की जो चंद साँसे आसमान ने उनके नाम लिखी थी, वह अब पूरी हो रही थीं। वह बुढ़ापे में नए सिरे से मुनासिब ज़मीं-आसमान की तलाश में कई शहरों की धूल छान कर नवाब महबूब अली ख़ाँ के पास हैदराबाद में चले आए।
तदबीर से किस्मत की बुराई नहीं जाती
बिगड़ी हुई तकदीर बनायीं नहीं जाती
दाग़ देहलवी अब ढलती उम्र से निकलकर बुढ़ापे की सीमा में दाखिल हो चुके थे। उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था। हैदराबाद में दाग़ को पाँव जमाने में साढ़े तीन साल से ज़्यादा का समय लगा। उस जमाने के हैदराबाद के रईस राजा गिरधारी प्रसाद बाक़ी, महाराज किशन प्रसाद शाद ने उनके लिए बहुत कोशिशें कीं, लेकिन दाग़ देहलवी को रोज़गार की फ़ौरी ज़रुरत थी और नवाब को कोई क़दम उठाने से पहले लंबी छानबीन करने की आदत थी। यह समय दाग़ देहलवी पर बड़ा भरी पड़ा। वह अपने घर से अलग बुढ़ापे में जवानों की तरह रोज़गार की तलाश में हाथ-पैर मार रहे थे। नवाब और उनके मित्रों की शान में क़सीदेलिख रहे थे। मज़ारों की चौखटों पर दुआएँ मांग रहे थे। दोस्तों की मदद के सहारे उनका समय कट रहा था। जब वक्त ने कई बार परीक्षा लेकर भी उन्हें मायूस होते नहीं देखा तो मजबूरी ने उन्हें नवाब के महल तक पहुँचा दिया और अब वे नवाब के उस्ताद नियुक्त हो गए।
दाग़ देहलवी के इस सम्मान की शोहरत ने मुन्नीबाई के दिल में उस ज़माने की यादों को फिर से जगा जगा दिया, जिनको भुलाकर वह अपने किसी साज़िंदेके निकाहमें आ चुकी थी। वह अपने पति से तलाक़ लेकर दाग़ देहलवी के पास हैदराबाद चली आई। वह जिस समय हैदराबाद आई थी, उस समय दाग़ देहलवी 72 वर्ष के हो चुके थे और मुन्नीबाई बालों में ख़िज़ाब और मुँह में नकली डाट लगाने लगी थी। लेकिन दाग़ देहलवी की मुँह बोली बेटी और उनके पति साएल देहलवी की अंदरूनी राजनीति के कारण ये मिलन जल्दी ही शको-सुबहका शिकार होकर हमेशा के लिए समाप्त हो गया।
'दाग़ युग' साहित्यिक दृष्टि से दो दिशाओं में विभाजित था। एक तरफ़ सर सैय्यद और उनके साथी हाली, शिबली और आज़ाद थे, जो साहित्य को देश और कौम के सुधार का माध्यम बनाना चाहते थे। वे कथ्य तथा कहने में नए प्रयोग कर रहे थे, नज़ीर अकबराबादी के सौ वर्ष बाद कविता फिर से सामूहिक जीवन से जुड़ रही थी। इसमें में हाली की आवाज़ ज़्यादा ऊँची और रचनात्मक थी। डॉक्टर इकबाल, सीमाब, जिगर मुरादाबादी के अलावा उनके शिष्यों की तादाद दो हज़ार से अधिक थीं। इनमें से सभी दाग़ देहलवी की ग़ज़ल से किसी न किसी स्तर पर प्रभावित थे। उर्दू की नयी ग़ज़ल जो फ़िराक़ गोरखपुरी से वर्तमान युग में आई, उस पर भी दाग़ देहलवी की ग़ज़ल के प्रभाव को साफ देखा जा सकता है।
दाग़ देहलवी का बुढ़ापा आर्थिक संपन्नता के होते हुए भी आराम से व्यतीत नहीं हुआ। बीवी के देहांत ने उनके अकेलेपन को अधिक गहरा कर दिया था, जिसे बहलाने के लिए वह एक साथ कई तवायफ़ों को नौकर रखे हुए थे। इनमें सहिब्जान, उम्दजान, इलाहिजान, जद्दनबाई, सूरत की अख्तर जान ख़ास थीं। ये सब दाग़ देहलवी के दरबार की मुलाजिम थीं। दाग़ देहलवी से इन तवायफ़ों का रिश्ता शाम की महफ़िलों तक ही था। उनको शायरी के साथसंगीत का भी शौक़ था। ये सब तवायफ़ें अपने दौर की प्रसिद्ध गायिकाएँ भी थीं। दाग़ देहलवी की गज़लों की शौहरत में इन सुरीली आवाज़ों का भी बड़ा योगदान था।
दाग़ देहलवी की अपनी कोई संतान नहीं थी। पत्नी के देहांत के बाद दूर-पास के रिश्तेदार, जिनको दाग़ देहलवी पाल रहे थे, वे उनके घर को आपसी मतभेद का महाभारत बनाये हुए थे। सबकी नज़रें केवल मौत की और बढ़ते हुए दाग़ देहलवी के बुढ़ापे पर थी। हैदराबाद में ही 71-72 वर्ष की उम्र में उनका वर्ष 1905 में निधन हो गया।
क्या मिला हमको ज़िंदगी के सिवा
वह भी दुश्वार, नातमाम, खराब।
उनके जीवन का अधिकांश समय दिल्ली में व्यतीत हुआ था, यही कारण है कि उनकी शायरी में दिल्ली की तहजीब नज़र आती है। दाग़ देहलवी की शायरी इश्क़ और मोहब्बत की सच्ची तस्वीर पेश करती है।
गुलजारे-दाग़, आफ्ताबे-दाग़, माहताबे-दाग़ तथा यादगारे-दाग़ इनके चार दीवान हैं, जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। 'फरियादे-दाग़', इनकी एक मसनवी (खंडकाव्य) है। इनकी शैली सरलता और सुगमता के कारण विशेष लोकप्रिय हुई। भाषा की स्वच्छता तथा प्रसाद गुण होने से इनकी कविता अधिक प्रचलित हुई पर इसका एक कारण यह भी है कि इनकी शायरी कुछ सुरुचिपूर्ण भी है।
मुग़ल बादशाह शाहआलम, जो कि अन्धा हो चुका था, उसके आखिरी ज़माने में पठानों का एक ख़ानदान समरकंद से अपनी रोजी-रोटी की तलाश में भारत आया था। यह ख़ानदान कुछ महीने तक ज़मीन-आसमान की खोज में इधर-उधर भटकता रहा और फिर दिल्ली के एक मोहल्ले बल्लीमारान में बस गया। इस ख़ानदान की दूसरी पीढ़ी के एक नौजवान अहमद बख़्श ख़ाँ नेअलवर के राजा बख़्तावर सिंह के उस फौजी दस्ते की सरदारी का फ़र्ज़ निभाया, जो राजा की और से भरतपुर के राजा के ख़िलाफ़ अंग्रेज़ों की मदद के लिए भेजा गया था। लड़ाई के मैदान में अहमद बख़्श ख़ाँ ने अपनी जान को दाँव पर लगाकर एक अंग्रेज़ की जान बचाई थी। उसकी इस वफ़ादारी के लिए लॉर्ड लेक उसे फ़िरोजपुर और झरका की जागीरें इनाम में दे दी |
अहमद बख़्श ख़ाँ का बड़ा लड़का शम्सुद्दीन ख़ाँ, जो उसकी अलवर की मेवातन बीवी का बेटा था, उसने जागीर में नाइंसाफ़ी के लिए अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाई। वह ब्रिटिश रेजिडेंट के क़त्ल की भी साजिश रचने लगा। लेकिन उसकी इस साजिश का पता अंग्रेज़ सरकार को लग गया और उसे 1835 ई. में फाँसी दे दी गई। दाग़ देहलवी इसी शम्सुद्दीन ख़ाँ की पहली और अंतिम संतान थे, जो बाद में उर्दू ग़ज़ल के इतिहास में नवाब मिर्ज़ा ख़ाँ दाग़ देहलवी के नाम से प्रसिद्ध हुए। अपने पिता की फाँसी के समय दाग़ देहलवी मात्र चार साल और चार महीने के थे। अंग्रेज़ों के भय से दाग़ देहलवी की माँ वजीर बेगम कई वर्षों तक छिप कर रहीं और इस दौरान दाग़ देहलवी अपनी मौसी के जहाँ रहे ।
कई वर्षों के भटकाव के बाद जब वजीर बेगम ने आखिरी मुग़ल बादशाह बहादुरशाह ज़फर के पुत्र और उत्तराधिकारी मिर्ज़ा फ़ख़रू से विवाह कर लिया, तब दाग़ देहलवी भी लाल क़िले में रहने लगे। यहाँ इनकी शिक्षा-दीक्षा आदि का अच्छा प्रबन्ध हो गया था। दाग़ देहलवी ने लाल क़िले में बारह वर्ष बिताए, लेकिन यह सब विलासिता मिर्ज़ा फ़ख़रू के देहांत के बाद इनके पास नहीं रही। बूढ़े बादशाह बहादुरशाह ज़फर की जवान मलिका जीनतमहल की राजनीति ने लाल क़िले में उन्हें रहने नहीं दिया। इस बार उनके साथ उनकी माता वजीर बेगम और साथ ही माता की कुछ जायज़ और नाजायज़ संताने भी थीं। मिर्ज़ा फ़ख़रू से मिर्ज़ा मोहम्मद खुर्शीद के अतिरिक्त, आगा तुराब अली से, जिनके यहाँ वजीर बेगम शम्सुद्दीन ख़ाँ की फाँसी के बाद कुछ दिन छुपी थीं आगा मिर्ज़ा शगिल और जयपुर के एक अंग्रेज़ से भी एक लड़का अमीर मिर्ज़ा और एक लड़की बादशाह बेगम शामिल थीं।
लाल क़िले में बारह वर्ष रहते हुए दाग़ देहलवी ने अपनी शायरी से उस युग के बुजुर्ग शायरों, जैसे-ग़ालिब, मौमिन, जौक, शेफ़्ता को ही नहीं चौकाया अपितु अपनी सीधी-सहज भाषा और उसके नाटकीय आकर्षण ने आम लोगों को भी उनका प्रशंसक बना दिया। आपने जौक को अपना गुरु बनाया | दाग की ग़ज़ल के इस रूप ने भाषा को वह मंझाव और पारदर्शिता दी, जिसमे बारीक़ से बारीक़ ख्याल के इज़हार की नयी सम्भावनाएँ थीं। ग़ालिब भी दाग़ के इस अंदाज से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके। दाग़ के एक जीवनी लेखक निसार अली शोहरत से उन्होंने एक बार कहा था- "दाग़ भाषा को न सिर्फ़ पाल रहा है, बल्कि उसे तालीम भी दे रहा है।"
दाग़ देहलवी की रचनात्मक क्षमता अपने समकालीन उर्दू शायरों से कहीं अधिक थी। उनका एक 'दीवान' 1857 की लूटमार की भेट चढ गया था। दूसरा उनके हैदराबाद के निवास के दौरान किसी के हाथ की सफाई का शिकार हो गया। इन दो दीवानों के खो जाने के बावजूद दाग़ देहलवी के पाँच दीवान 'गुलजारे दाग़', 'महताबे दाग़', 'आफ़ताबे दाग़', 'यादगारे दाग़', 'यादगारे दाग़- भाग-2', जिनमें 1038 से ज़्यादा गज़लें, अनेकों मुक्तक, रुबाईयाँ, सलाम मर्सिये आदि शामिल थे, इसके अतिरिक्त एक 838 शेरों की मसनवी भी 'फरियादे दाग़' के नाम से प्रकाशित हुई। इतने बड़े शायरी के सरमाये में सिर्फ़ उनकी मोहब्बत की बाज़ारियत को ही उनकी शायरी की पहचान समझना सबसे बड़ी भूल होगी। यहाँ तक की फ़िराक़ गोरखपुरी जैसा समझदार आलोचक भी हुआ। इससे इंकार करना कठिन है कि लाल क़िले के मुजरों, कव्वालियों, अय्याशियों, अफीम शराब की रंगरंलियों से जिनकी ऊपरी चमक-दमक में उस समय की दम तोड़ती तहजीब की अंतिम हिचकियाँ साफ सुनाई देती थीं, दाग़ के बचपन और जवानी के शुरुआती वर्षों में प्रभावित हुए थे। इस दौर का सांस्कृतिक पतन उनके शुरू के इश्क़ के रवेये में साफ नज़र आता है। उनकी ग़ज़ल की नायिका भी इस असर के तहत बाज़ार का खिलौना थी, जिससे वो भी उन दिनों की परम्परा के अनुसार खूब खेले। लेकिन दाग़ देहलवी का कमाल यह है कि वह यहीं तक सिमित होकर नहीं रहे थे। उनकी शायरी में उनके व्यक्तित्व की भाँति, जिसमें आशिक, नजाराबाज़, सूफ़ी, फनकार, दुनियादार, अतीत, वर्तमान एक साथ जीते-जागते हैं, कई दिशाओं का सफरनामा है। ये शायरी जिन्दा आदमी के विरोधाभासों का बहुमुखी रूप है, जिसे किसी एक चेहरे से पहचान पाना मुश्किल है।
काबे की है हवस कभी कूए बुताँ की है
मुझको खबर नहीं, मेरी मिटटी कहाँ की है।
दाग़ देहलवी वर्ष 1857 की तबाहियों से गुजरे थे। दिल्ली के गली-मोहल्लों में लाशों का नज़ारा उन्होंने देखा था। लाल क़िले से निकलकर तिनका-तिनका जोड़कर जो आशियाना उन्होंने बनवाया था, उसे बिखरते हुए भी देखा। अपने दस-बारह साल के कलाम की बर्बादी के वह मात्र एक मजबूर तमाशाई बनकर रह गये थे। क़िले से निकले अभी मुश्किल से आठ-नो महीने ही हुए थे कि इस तबाही ने उन्हें घेर लिया। दिल्ली के हंगामों से गुजर कर दाग़ देहलवी ने रामपुर में पनाह ली। रामपुर से उनका संबंध उनकी मौसी उम्दा बेगम के पति रामपुर के नवाब युसूफ़ अली ख़ाँ के समय से था। दिल्ली के उजड़ने के बाद रामपुर उन दिनों असीर, अमीर, जहीर, निज़ाम और जलाला जैसे उस्तादों की आवाजों से आबाद था। नवाब शायरों का कद्रदान था। यहाँ दाग़ देहलवी की शायरी भी खूब फली-फूली और उनकी आशिक़ाना तबियत भी।
मुन्नीबाई हिजाब नाम की एक गायिका और तवायफ़ से दाग़ देहलवी का मशहूर इश्क़ इसी माहौल की देन था। उनका यह इश्क़ आशिक़ाना कम और शायराना अथिक था। दाग़ देहलवी उस वक्त आधी सदी से अधिक उम्र जी चुके थे, जबकि मुन्नीबाई हर महफ़िल में जाने-महफ़िल होने का जश्न मना रही थी। अपने इस इश्क़ की दास्ताँ को उन्होंने 'फरयादे दाग़' में मजे के साथ दोहराया है। मुन्नीबाई से दाग़ का यह लगाव जहाँ रंगीन था, वहीं थोड़ा-सा संगीन भी। दाग़ देहलवी उनके हुस्न पर कुर्बान थे और वह नवाब रामपुर के छोटे भाई हैदरअली की दौलत पर मेहरबान थी। रामपुर में हैदरअली का रक़ीब बनकर दाग़ देहलवी के लिए मुश्किल था। जब इश्क़ ने दाग़ देहलवी को अधिक सताया तो उन्होंने हैदरअली तक अपना पैगाम भिजवा दिया- "दाग़ हिजाब के तीरे नज़र का घायल है। आप के दिल बहलाने के और भी सामान हैं, लेकिन दाग़ बेचारा हिजाब को न पाए तो कहाँ जाए।" नवाब हैदरअली ने दाग़ की इस गुस्ताख़ी को न सिर्फ़ क्षमा कर दिया, बल्कि उनके खत का जवाब खुद मुन्नीबाई उन तक लेकर आई। नवाब हैदरअली का जवाब था कि- "दाग़ साहब, आपकी शायरी से ज़्यादा हमें मुन्नीबाई अजीज़ नहीं है।"
सबसे तुम अच्छे हो तुमसे मेरी किस्मत अच्छी
ये ही कमबख्त दिखा देती है सूरत अच्छी
मुन्नीबाई एक डेरेदार तवायफ़ थी। उसके पास अभी उम्र की पूंजी भी थी और रूप का ख़ज़ाना भी था। वह घर की चाहर दीवारी में सिमित होकर पचास से आगे निकलती हुई ग़ज़ल का विषय बनकर नहीं रह सकती थी। वह दाग़ देहलवी के पास आई, लेकिन जल्द ही दाग़ को छोड़कर वापस कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) के बाज़ार की ज़ीनत बन गयी। नवाब रामपुर कल्बे अली ख़ाँ के देहांत के बाद दाग़ देहलवी रामपुर में अधिक समय तक नहीं रह सके। समय ने फिर से उनसे छेड़छाड़ शुरू कर दी थी। लाल क़िले से निकलने के पश्चात चैन की जो चंद साँसे आसमान ने उनके नाम लिखी थी, वह अब पूरी हो रही थीं। वह बुढ़ापे में नए सिरे से मुनासिब ज़मीं-आसमान की तलाश में कई शहरों की धूल छान कर नवाब महबूब अली ख़ाँ के पास हैदराबाद में चले आए।
तदबीर से किस्मत की बुराई नहीं जाती
बिगड़ी हुई तकदीर बनायीं नहीं जाती
दाग़ देहलवी अब ढलती उम्र से निकलकर बुढ़ापे की सीमा में दाखिल हो चुके थे। उन्हें कई बीमारियों ने घेर लिया था। हैदराबाद में दाग़ को पाँव जमाने में साढ़े तीन साल से ज़्यादा का समय लगा। उस जमाने के हैदराबाद के रईस राजा गिरधारी प्रसाद बाक़ी, महाराज किशन प्रसाद शाद ने उनके लिए बहुत कोशिशें कीं, लेकिन दाग़ देहलवी को रोज़गार की फ़ौरी ज़रुरत थी और नवाब को कोई क़दम उठाने से पहले लंबी छानबीन करने की आदत थी। यह समय दाग़ देहलवी पर बड़ा भरी पड़ा। वह अपने घर से अलग बुढ़ापे में जवानों की तरह रोज़गार की तलाश में हाथ-पैर मार रहे थे। नवाब और उनके मित्रों की शान में क़सीदेलिख रहे थे। मज़ारों की चौखटों पर दुआएँ मांग रहे थे। दोस्तों की मदद के सहारे उनका समय कट रहा था। जब वक्त ने कई बार परीक्षा लेकर भी उन्हें मायूस होते नहीं देखा तो मजबूरी ने उन्हें नवाब के महल तक पहुँचा दिया और अब वे नवाब के उस्ताद नियुक्त हो गए।
दाग़ देहलवी के इस सम्मान की शोहरत ने मुन्नीबाई के दिल में उस ज़माने की यादों को फिर से जगा जगा दिया, जिनको भुलाकर वह अपने किसी साज़िंदेके निकाहमें आ चुकी थी। वह अपने पति से तलाक़ लेकर दाग़ देहलवी के पास हैदराबाद चली आई। वह जिस समय हैदराबाद आई थी, उस समय दाग़ देहलवी 72 वर्ष के हो चुके थे और मुन्नीबाई बालों में ख़िज़ाब और मुँह में नकली डाट लगाने लगी थी। लेकिन दाग़ देहलवी की मुँह बोली बेटी और उनके पति साएल देहलवी की अंदरूनी राजनीति के कारण ये मिलन जल्दी ही शको-सुबहका शिकार होकर हमेशा के लिए समाप्त हो गया।
'दाग़ युग' साहित्यिक दृष्टि से दो दिशाओं में विभाजित था। एक तरफ़ सर सैय्यद और उनके साथी हाली, शिबली और आज़ाद थे, जो साहित्य को देश और कौम के सुधार का माध्यम बनाना चाहते थे। वे कथ्य तथा कहने में नए प्रयोग कर रहे थे, नज़ीर अकबराबादी के सौ वर्ष बाद कविता फिर से सामूहिक जीवन से जुड़ रही थी। इसमें में हाली की आवाज़ ज़्यादा ऊँची और रचनात्मक थी। डॉक्टर इकबाल, सीमाब, जिगर मुरादाबादी के अलावा उनके शिष्यों की तादाद दो हज़ार से अधिक थीं। इनमें से सभी दाग़ देहलवी की ग़ज़ल से किसी न किसी स्तर पर प्रभावित थे। उर्दू की नयी ग़ज़ल जो फ़िराक़ गोरखपुरी से वर्तमान युग में आई, उस पर भी दाग़ देहलवी की ग़ज़ल के प्रभाव को साफ देखा जा सकता है।
दाग़ देहलवी का बुढ़ापा आर्थिक संपन्नता के होते हुए भी आराम से व्यतीत नहीं हुआ। बीवी के देहांत ने उनके अकेलेपन को अधिक गहरा कर दिया था, जिसे बहलाने के लिए वह एक साथ कई तवायफ़ों को नौकर रखे हुए थे। इनमें सहिब्जान, उम्दजान, इलाहिजान, जद्दनबाई, सूरत की अख्तर जान ख़ास थीं। ये सब दाग़ देहलवी के दरबार की मुलाजिम थीं। दाग़ देहलवी से इन तवायफ़ों का रिश्ता शाम की महफ़िलों तक ही था। उनको शायरी के साथसंगीत का भी शौक़ था। ये सब तवायफ़ें अपने दौर की प्रसिद्ध गायिकाएँ भी थीं। दाग़ देहलवी की गज़लों की शौहरत में इन सुरीली आवाज़ों का भी बड़ा योगदान था।
दाग़ देहलवी की अपनी कोई संतान नहीं थी। पत्नी के देहांत के बाद दूर-पास के रिश्तेदार, जिनको दाग़ देहलवी पाल रहे थे, वे उनके घर को आपसी मतभेद का महाभारत बनाये हुए थे। सबकी नज़रें केवल मौत की और बढ़ते हुए दाग़ देहलवी के बुढ़ापे पर थी। हैदराबाद में ही 71-72 वर्ष की उम्र में उनका वर्ष 1905 में निधन हो गया।
क्या मिला हमको ज़िंदगी के सिवा
वह भी दुश्वार, नातमाम, खराब।