जयशंकर प्रसाद की छायावादी ग़ज़ल - डॉ.जियाउर रहमान जाफ़री

जयशंकर प्रसाद की छायावादी ग़ज़ल - डॉ.जियाउर रहमान जाफ़री

हिंदी साहित्य में द्विवेदी युग के बाद छायावाद का समय आता है | मोटे तौर पर 1918 से लेकर 1935 तक के बीच की रचना जिसमें लाक्षणिकता, स्वच्छंदता प्रकृति प्रेम और रहस्यात्मकता दिखलाई पड़ती है छायावाद के अंतर्गत माना जाता है |

छायावाद को आधुनिक काल का स्वर्ण युग भी कहा गया है | हिंदी में कामायनी, राम की शक्ति पूजा, तुलसीदास, आंसू गीतिका, वीना, ग्रंथि, पल्लव गुंजन, यामा आदि प्रसिद्ध पुस्तकें छायावाद के अंतर्गत लिखी गईं | हिंदी में छायावाद का नाम मुकुटधर पांडेय ने दिया और मुकुटधर पांडेय की कविता कुर्री के प्रति छायावाद की प्रथम कविता मानी जाती है | छायावाद में मुख्यतः जिन चार कवियों का जिक्र होता है उसमें प्रसाद की प्रतिभा सबसे अधिक थी | एक कवि ही नहीं कहानीकार, उपन्यासकार, नाटककार और निबंध लेखक के तौर पर भी उनका नाम अमर है.वो एक युग प्रवर्तक लेखक थे | भारतेन्दु के बाद हिंदी में सबसे बड़े नाटककार हुए तो उनकी रचित कामायनी को दूसरा बाइबल की संज्ञा दी जाती है | 1918 में प्रकाशित उनकी कृति झरना को प्रथम छायावादी काव्य ग्रंथ माना जाता है | जिसमें कुल चौबीस छायावादी प्रवृत्तियों की कविताएं शामिल हैं .यह अलग बात है कि उसके बाद के संस्करणों में उनकी और भी कविताएं जोड़ दी गईं |

उनका कहानी पक्ष भी कम मजबूत नहीं है | विजय मोहन सिंह ने लिखा है कि प्रसाद ने सर्वाधिक प्रयोगात्मकता कहानी के क्षेत्र में ही प्रयुक्त किये हैं | प्रसाद की लिखी गई ग्राम कहानी हिंदी कि वह पहली कहानी है, जिसे वास्तव में आधुनिक कहानी होने की संज्ञा दी जा सकती है.अपनी कहानी ग्राम में जहां वह महाजनी सभ्यता के अमानवीय पक्ष का उद्घाटन करते हैं, वहीं ममता कहानी में यह स्पष्ट कर देते हैं कि अब सामंतवाद का अंत बहुत जल्द होने वाला है | अपने उपन्यास कंकाल, तितली और इरावती मैं धर्म के नाम पर होने वाला अनाचार और दुराचार को दिखाया गया है | इस कहानी के माध्यम से वो तीर्थ स्थलों की सच्चाई से भी वाकिफ करवाते हैं | मधुरेश के मानें तो इस उपन्यास में समाज की सारी नग्नता और विद्रूपता साफ-साफ दिखलाई पड़ती है.जहां तक नाटक की बात है प्रसाद ने ऐतिहासिक और पौराणिक दोनों प्रकार के नाटकों की रचना अधिक की है | उन्होंने अपने नाटकों में मौर्य काल से लेकर हर्ष के समय तक का इति वृत्त प्रस्तुत किया है | स्कंदगुप्त में प्रसाद ने दिखाया है कि हूणों के आक्रमण से बिखरी हुई जनता स्कंदगुप्त के साथ साम्राज्य प्राप्त कर लेती है | असल में प्रसाद दिखाना चाहते हैं कि ब्रिटिश शासक को भी ऐसे ही उखाड़ फेक सकते हैं | डॉ. सत्यप्रकाश मिश्र ने कहीं लिखा भी है स्कंद गुप्त एक राष्ट्रीय संग्राम है जो साहित्य के द्वारा लड़ा गया था | एक घूंट और धुरुवस्वामिनी नामक एकांकी मंच के दृष्टिकोण से भी काफी सफल और सहज है |

प्रसाद ने जहां हिन्दी साहित्य की लगभग तमाम लोकप्रियत विधाओं को अपनाया | यहां तक कि उन्होंने गजल वाली शैली भी अपनाई | यह अलग बात है कि हिंदी गजल के इतिहास में प्रसाद का खास महत्व रेखांकित नहीं किया जाता रहा है | निराला ने बेला में बाज़ाब्ता ग़ज़लें लिखीं | जयशंकर प्रसाद ने भी अपने कुछ नाटकों और कविता संग्रह में हिंदी गजल वाली शैली अपनाई है | सरदार मुजावर लिखते हैं कि छायावादी गजलकरों ने हिंदी कविता के विकास में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया है |

गजल अपने आरंभिक रूप में प्रेम काव्य ही रही है | इसके विषय वस्तु में परिवर्तन दुष्यंत के साथ हुआ जब यह प्रेम और दरबार से निकलकर घरबार की तरफ मुखातिब हो गई | जयशंकर प्रसाद की ग़ज़लों में प्रेम और भक्ति दोनों रूपों के दर्शन होते हैं .यह अलग बात है कि उनकी गजलों में शृंगारिकता अधिक दिखलाई देती है | उदाहरण के तौर पर इनके एक -दो शेर देखे जा सकते हैं-

अस्ताचल पर युवती संध्या की खुली अलक घुंघराली है
लो माणिक मदिरा की धारा बहने लगी निराली है
(ध्रुवस्वामिनी, पृष्ठ35)

प्रसाद उसको न भूलो तुम तुम्हारा जो के प्रेमी हो
न सज्जन छोड़ते उसको जिसे स्वीकार करते हैं
(इंदु कला, पृष्ठ 498)

प्रसाद ने इस गजल में अपने तखल्लुस का भी इस्तेमाल किया है | जो उर्दू ग़ज़ल की परंपरा से आई है |
छायावादी कवि निराला भी इसी प्रणय भाव का विस्तार देते हैं बेला में उनकी एक प्रसिद्ध ग़ज़ल का शेर है -

उनके बाग में बहार देखता चला गया
कैसा फूलों का उभार देखता चला गया

प्रेम का विकास वह आंखें चार हो गई
पड़ा रश्मियों का हार देखता चला गया

मैंने उनको दिल दिया उनका दिल मिला मुझे
दोनों दिलों का सिंगार देखता चला गया

यह भी सच है कि हिंदी ग़ज़ल ने प्रसाद तक आते-आते कोई बड़ी यात्रा नहीं की थी | प्रयोग के तौर पर अमीर खुसरो कबीर, रंग और शमशेर की कुछ ग़ज़लें मिलती हैं लेकिन गजल ने अपनी लोकप्रियता प्रसाद के बाद दुष्यंत के शेरों से पाई.उनकी हिन्दी ग़ज़लों ने इमरजेंसी के समय में एक इंकलाब बरपा कर दिया | गजल में पहली बार विद्रोह को जगह मिली.जयशंकर प्रसाद ने भी अपनी ग़ज़लों में प्रेम के अतिरिक्त भक्ति और विद्रोह का स्वरूप दिखलाया है | इस संदर्भ में प्रसाद की एक ग़ज़ल देखने योग्य है-

अपने सुप्रेम रस का प्याला पिला दे मोहन
तेरे में अपनों को हम जिस में भुला दे मोहन

निजी रूप माधुरी की चस्की लगाई मुझको
मुंह से कभी न छूटे ऐसी छका दे मोहन

सौंदर्य विश्व भर में फैला हुआ तो तेरा
एकत्र करके उसमें मन में दिखा दे मोहन

डालकर नहीं करते जो रूप की नीरवता से
हमको पतंग अपना ऐसा बना दे मोहन

तेरा हृदय गगन भी तब राग में रंगा तो
ऐसी उषा की लाली अब तो दिखा दे मोहन
(कानन कुसुम पृष्ठ 412)

वास्तव में इस ग़ज़ल के माध्यम से अपने आराध्य से बेहतर करने की मांग की गई है | उस दौर की शायरी में जहां हुस्न और उसकी खूबसूरती का जिक्र भर होता था वहां प्रसाद ने मोहन से खूबसूरत दुनिया की फरमाइश की है | हिंदी गजल में विषय वस्तु के दृष्टिकोण से यह बदलाव की पहली रचना है.यह अलग बात है कि प्रसाद ने ग़ज़ल शीर्षक से ग़ज़लें नहीं लिखीं | फिर भी उनकी ग़ज़लें हिंदी गजल को विस्तार देती हुई दिखलाई पड़ती है | प्रसाद की एक ऐसी ही महत्वपूर्ण ग़ज़ल है जिसमें देश के लिए चिंता साफ-साफ दिखलाई पड़ती है | यह रचना प्रसाद की सबसे लोकप्रिय ग़ज़ल भी है, जिसे अधिकतर ग़ज़ल समीक्षकों ने बार -बार अपने लेखो में रेखांकित किया है | आप भी देखें -

देश की दुर्दशा निहारोगे
डूबते को कभी उबारोगे

कुछ करोगे कि बस सदा रोकर
दीन हो देव को पुकारोगे

सो रहे तुम ना भाग्य सोता है
आप बिगड़ी हम संवारोगे

दीन जीवन बिता रहे अब तक
क्या हुए जा रहे विचारोगे

समय के अनुसार प्रसाद ने जहां प्रेम प्रधान ग़ज़लें लिखी हैं वहां भी उन्होंने सिर्फ नायिका के रूप श्रृंगार का वर्णन नहीं किया है उसमें भी महबूब से बावफाई की सीख ही दी गई है, और यह बताया गया है कि सच्चा प्रेमी अंत तक संबंधों का निर्वाह करता है | जयशंकर प्रसाद की एक गजल के कुछ शेर इस संबंध में देखने योग्य हैं -

सरासर भूल करते हैं उन्हें जो प्यार करते हैं
बुराई कर रहे हैं और अस्वीकार करते हैं

उन्हें अवकाश ही कहां रहता मुझसे मिलने का
किसी से पूछ लेते हैं यही उपकार करते हैं

जो ऊंचे चढ़ के चलते हैं वह नीचे देखते हरदम
प्रफुल्लित वृक्ष की यह भूमि कुसुम गार करते हैं

ना इतना फूलिये तरुवर सुफल कोरी कली लेकर
बिना मकरंद के मधुकर नहीं गुंजार करते हैं

प्रसाद उनको न भूलो तुम तुम्हारा जो कि प्रेमी हो
न सज्जन छोड़ते उसको जिसे स्वीकार करते हैं
(इंदु कला, पृष्ठ498)

आज हिंदी ग़ज़ल का एक बड़ा तबका यह मानकर चल रहा है कि हिंदी गजल हिंदी कविता परंपरा में लिखी जा रही है | इसलिए इसमें समकालीन कविता की दृष्टि भाव भूमि और भाषागत प्रयोग होना चाहिए | इसे जहां तक मुमकिन हो असहज अरबी- फारसी संस्कृत शब्दों से बचाया जाए | यह अलग मुद्दा है कि इस प्रकार की धारणा से हिंदी गजल का फायदा अथवा नुकसान हुआ है | देखने की बात यह है कि जयशंकर प्रसाद अपनी गजलों में जिस भाषा का इस्तेमाल करते हैं, वो भी संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से संपृक्त है | शुद्ध हिंदी शब्दों का प्रयोग पर उन्होंने भी बल दिया है | पर ऐसा करते हुए उन्होंने ग़ज़ल की की लयात्मकता,स्वाभाविकता, लचक और छांदसिकता का भी पूरा पूरा निर्वाह किया है | उदाहरण के लिए उनकी ग़ज़ल का यह शेर देखा जा सकती है-

जीने का अधिकार तुझे क्या क्यों इसमें सुख पाता है
मानव तूने कुछ सोचा है क्यों आता है क्यों जाता है

बहर के दृष्टिकोण से अगर मूल्यांकन करें तो यह शेर बहरे मुतदारिक है | वहीं' सरासर भूल करते हैं उन्हें जो प्यार करते हैं/ बुराई कर रहे हैं और अस्वीकार करते हैं-मफाईलुन छंद पर है | प्रसाद के ऐसे अन्य शेर भी देखे जा सकते हैं जिसमें उन्होंने अपनी नजरों में शब्द चयन, नाद सौंदर्य, उपमा, मुहावरा, शैली और शब्द शक्तियों का उम्दा निर्वाह किया है-

वसुधा मदमाती हुई उधर आकाश लगा देखो झुकने
सब झूम रहे अपने सुख में तूने क्यों बाधा डाली है
(ध्रुवस्वामिनी, पृष्ठ 35)

निवास जल में ही है तुम्हारा तथापि मिश्रित कभी ना होते
मनुष्य निर्लिप्त होवे कैसे सुपाठ तुमसे ये मिल रहा है |

यदि तुलनात्मक दृष्टिकोण से भी विचार करें तो छायावाद काल के प्रसाद और निराला की ग़ज़लों में एक बड़ा अंतर यह भी है कि निराला उर्दू शैली वाली अगले लिखते हैं लेकिन प्रसाद हिंदी शैली वाली हिंदी गजल की रचना करते हैं | निराला और प्रसाद की गजल के एक-दो शेर से इसे और अधिक आसानी से देखा जा सकता है-

गिराया है जमी होकर छुपाया आसमां होकर
निकाला दुश्मने जां और बुलाया मेहरबां होकर

चमकती धूप जैसे हाथ वाला दबदबा आया
जलाया गर्मियां होकर खिलाया गुलसितां होकर

उजाड़ा है कसर होकर बसाया है असर होकर
उजाड़ा है रवा होकर लगाया बागबां होकर
(सूर्यकांत त्रिपाठी निराला)

पर जब इसी ग़ज़ल विधा को प्रसाद आजमाते हैं तो उनका कहन बदल जाता है और वह हिन्दी तेवर की ग़ज़लें रखते हैं | उनकी एक गजल के कुछ शेर मुलाहिजा हों -

भर ली पहाड़ियों ने अपने झीलों की रत्न मई प्याली है
झुक चली चूमने वल्लरियों से लिपटी तरु की डाली है

भार उठी प्यालियां सुमनों ने सौरभ मकरंद मिलाया है
कामिनियों ने अनुराग भरे अधरों से उन्हें लगा ली है

वसुधा मदमाती हुई अंधकार लगा देखो झुकने
सब झूम रहे अपने दुख में तुमने क्यों बाधा डाली है

इस प्रकार हम देखते हैं कि प्रसाद की ग़ज़लों में प्रयुक्त सारे शब्द संस्कृतनिष्ठ पदावली के परिचायक हैं | प्रसाद ने अपनी तमाम गजलों में गजल के आधारभूत तत्व काफिया, रदीफ बहर आदि का पूरे अधिकार के साथ इस्तेमाल किया है | यह अलग बात है कि उन्होंने अपनी इस रचना को ग़ज़ल की संज्ञा नहीं दी, यद्यपि उन्हें पता था कि वह जो लिख रहे हैं यह ग़ज़ल ही है | इसलिए उनकी ग़ज़लें छंदों पर भी खड़ी उतरती हैं और आज हिंदी गजल जहां तक पहुंची है उस ग़ज़ल की परंपरा में प्रसाद का स्थान भी है | पर देखने की बात यह है कि प्रसाद की ग़ज़लों को लेकर अभी तक कोई स्वतंत्र काम नहीं हुआ है | बस जहां -तहां उनका ज़िक्र भर कर देने से हम उनकी ग़ज़लों के प्रति ईमानदार नहीं हो सकते | आधुनिक हिंदी साहित्य में प्रसाद ही एक ऐसे लेखक हैं जिन्होंने भारतेन्दु हरिश्चंद्र के बाद हिंदी गद्य- पद्य की तमाम विधाओं में अपना मौलिक सृजन किया है | ऐतिहासिक एवं पौराणिक पात्रों के माध्यम से उन्होंने देश भक्ति के रास्ते दिखलाएं हैं और बताया कि ऐसी परिस्थितियों मैं हमारे पूर्वजों ने किस प्रकार का काम किया था |

आज हिंदी गजल कविता की सबसे लोकप्रिय विधा है दुष्यंत और उसके बाद के शायरों -जहीर कुरैशी, हरेराम समीप, विनय मिश्र, चंद्रसेन विराट, उर्मिलेश, अनिरुद्ध सिन्हा, डॉ भावना, बालस्वरूप राही, कुंवर बेचैन आदि ने जिस तरह से हिंदी ग़ज़ल को सजाया और संवारा है और जिसके रास्ते खुसरो, कबीर, रंग, शमशेर निराला और प्रसाद होते हुए इस मंजिल तक पहुंचते हैं, वो ग़ज़ल आज इनकी बदौलत हिन्दी कविता की सबसे लोकप्रिय विधा बन चुकी है |

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